ईश्वर से अनुराग
ईश्वर से अनुराग – आज हम लोगो के अंदर ईश्वर के प्रति जो प्रेम – भाव या गहरी भक्ति देखते है यह उन विभिन्न प्रकार के भक्ति तथा सूफी आंदोलनों की देन है , जिनका आठवीं शताब्दी से उदभव होने लगा।
नयनार और अलवार
सातवीं से नौवीं शताब्दीयो के बीच कुछ नए धार्मिक आंदोलनो का प्रादुर्भाव हुआ। इन आंदोलनो का नेतृत्व नयनारों ( शैव संतों ) और आलवारों ( वैष्णव संतो ) ने किया। ये संत सभी जातियों के थे , जिनमे पुलैया और पनार जैसी अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के लोग भी शामिल थे।
वे बौद्धों और जैनों के कटु आलोचक थे। और शिव तथा विष्णु के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताते थे। उन्होंने संगम साहित्य में समाहित प्यार और शूरवीरता के आदर्शों को अपना कर भक्ति के मूल्यों में उनका समावेश किया था। ईश्वर से अनुराग
नयनार और अलवार घुमक्कड़ साधु – संत थे। वे जिस किसी स्थान या गाँव में जाते थे , वहाँ के स्थानीय देवी – देवताओं की प्रशंसा में सुंदर कविताएँ रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे। दसवीं से बारहवीं सदियों के बीच , चोर और पांड्यन राजाओं ने उन अनेक धार्मिक स्थलों पर विशाल मंदिर बनवा दिए, जहां की इन संत – कवियों ने यात्रा की थी।
इस प्रकार भक्ति परंपरा और मंदिर पूजा के बीच गहरे संबंध स्थापित हो गए। यही वह समय था , जब उनकी कविताओं का संकलन तैयार किया गया था। इसके अलावा अलवारो तथा नयनार संतों की धार्मिक जीवनियाँ भी रची गई। ईश्वर से अनुराग
कुल मिलाकर 63 नयनार ऐसे थे , जो कुम्हार , ‘ अस्पृश्य ‘ कामगार, किसान , शिकारी, सैनिक, ब्राह्मण और मुखिया जैसी अनेक जातियों में पैदा हुए थे। उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध थे – अप्पार, संबंदर , सुंदरार और माणिक्कवसागार। उनके गीतों के दो संकलन हैं – तेवरम और तिरुवाचकम।
अलवार संत संख्या में 12 थे। वे भी भिन्न – भिन्न प्रकार की पृष्ठभूमि से आए थे। उनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध थे – पेरियअलवार, उनकी पुत्री अंडाल, तोंडरडिप्पोड़ी अलवार और नम्मालवा। उनके गीत दिव्या प्रबंधम में संकलित है। ईश्वर से अनुराग
शंकर
भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली दार्शनिक में से एक शंकर का जन्म आठवीं शताब्दी में केरल प्रदेश में हुआ था। वे अद्वैतवाद के समर्थक थे , जिसके अनुसार जीव आत्मा और परमात्मा ( जो परम सत्य है ) , दोनों एक ही हैं। उन्होंने यह शिक्षा दी कि ब्रह्मा , जो एकमात्र या परम सत्य है , वह निर्गुण और निराकार है।
शंकर ने हमारे चारों ओर के संसार को मिथ्या या माया मान और संसार का परित्याग करने अर्थात संन्यास लेने और ब्रह्मा की सही प्रकृति को समझने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ज्ञान के मार्ग को अपनाने का उपदेश दिया। ईश्वर से अनुराग
रामानुज
रामानुज ग्यारहवीं शताब्दी में तमिलनाडु में पैदा हुए थे। वे विष्णुभक्त अलवार संतों से बहुत प्रभावित थे। उनके अनुसार मोक्ष प्राप्त करने का उपाय विष्णु के प्रति अनन्य भक्ति भाव रखना है। भगवान विष्णु की कृपा दृष्टि से भक्त उनके साथ एकाकार होने का परम आनंद प्राप्त कर सकता है।
रामानुज ने विशिष्टताद्वैत के सिद्धांत को प्रतिपादित किया , जिसके अनुसार आत्मा , परमात्मा से जुड़ने के बाद भी अपनी अलग सत्ता बनाए रखती है। रामानुज के सिद्धांत ने भक्ति की नयी धारा को बहुत प्रेरित किया , जो परवर्ती काल में उत्तरी भारत में विकसित हुई। ईश्वर से अनुराग
बसवन्ना का वीरशैववाद
यह आंदोलन 12वीं शताब्दी के मध्य में कर्नाटक में प्रारंभ हुआ था। वीरशैवों ने सभी व्यक्तियों की समानता के पक्ष में और जाति तथा नारी के प्रति व्यवहार के बारे में ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध अपने प्रबल तर्क प्रस्तुत किए। इसके अलावा वे सभी प्रकार के कर्मकांडो और मूर्ति पूजा के विरोधी थे। ईश्वर से अनुराग
महाराष्ट्र की संत
तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में अनेकानेक संत कवि हुए , जिनके सरल मराठी भाषा में लिखे गए गीत आज भी जान – मन को प्रेरित करते हैं। उन संतों में सबसे महत्वपूर्ण थे – ज्ञानेश्वर , नामदेव , एकनाथ और तुकाराम तथा सखूबाई जैसी स्त्रियाँ तथा चोखामेळा ( करमामेला इसका पुत्र था ) का परिवार , जो अस्पृश्य समझी जाने वाली महार जाति का था।
भक्ति की यह क्षेत्रीय परंपरा पंढरपुर में विट्ठल ( विष्णु का एक रूप ) पर और जन – मन के हृदय में विराजमान व्यक्तिगत देव संबंधी विचारों पर केंद्रित थी। ईश्वर से अनुराग
इन संत – कवियों ने सभी प्रकार के कर्मकांडो , पवित्रता के ढोंग और जन्म पर आधारित सामाजिक अंतरो का विरोध किया। यहाँ तक कि उन्होंने संन्यास के विचार को भी ठुकरा दिया और किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह रोजी – रोटी कमाते हुए परिवार के साथ रहने और विनम्रतापूर्वक जरूरतमंद साथी व्यक्तियों की सेवा करते हुए जीवन बिताने को अधिक पसंद किया।
उन्होंने इस बात पर बोल दिया की असली भक्ति दूसरों के दु:खों को बाँट लेना है। इसके एक नए मानवतावादी विचार का उदभव हुआ। ईश्वर से अनुराग
महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर , नामदेव , एकनाथ और तुकाराम जैसे वैष्णव संत कवि भगवान विट्ठल के उपासक थे। भगवान विट्ठल की आराधना ने वारकारी संप्रदाय को जन्म दिया जो पंढरपुर की वार्षिक तीर्थयात्रा पर जोर देता था।
विट्ठल संप्रदाय का भक्ति के शक्तिशाली उपादान के रूप में उदय हुआ तथा लोगों में काफी लोकप्रिय हुआ। ईश्वर से अनुराग
नाथपंती , सिद्ध और योगी
इन्होने संसार का परित्याग करने का समर्थन किया। उनके विचार से निराकार परम सत्य का चिंतन – मनन और उसके साथ एक हो जाने की अनुभूति ही मोक्ष का मार्ग है।
इसके लिए उन्होंने योगासन , प्राणायाम और चिंतन – मनन जैसी क्रियाओं के माध्यम से मन एवं शरीर को कठोर प्रशिक्षण देने की आवश्यकता पर बोल दिया। यह समूह खासतौर पर नीची कहीं जाने वाली जातियों में बहुत लोकप्रिय हुए। ईश्वर से अनुराग
इस्लाम और सूफी मत
इस्लाम ने एकेश्वरवाद यानी एक अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण का दृढ़ता से प्रचार किया। आठवीं और नौवीं शताब्दी में धार्मिक विद्वानों ने पवित्र कानून ( शरिया ) और इस्लामिक धर्मशास्त्र के विभिन्न पहलुओं को विकसित किया। इससे इस्लाम धीरे – धीरे जटिल होता गया। ईश्वर से अनुराग
सूफी मुसलमान रहस्यवादी थे। वे धर्म के बाहरी आडंबरों को अस्वीकार करते हुए ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति तथा सभी मनुष्यों के प्रति दया भाव रखने पर बल देते थे। संत – कवियों की तरह सूफी लोग भी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए काव्य रचना किया करते थे।
मध्य एशिया के महान सूफी संतों में गज्जाली , रूमी और सादी के नाम उल्लेखनीय है। नाथपंथियों , सिद्धों और योगियों की तरह , सूफी भी यही मानते थे कि दुनिया के प्रति अलग नजरिया अपनाने के लिए दिल को सिखाया – पढ़ाया जा सकता है। ईश्वर से अनुराग
उन्होंने किसी औलिया या पीर की देख – रेख में जिक्र ( नाम का जाप ), चिंतन , समा ( गाना ), रक्स ( नृत्य ), नीति – चर्चा , सांस पर नियंत्रण आदि के जरिए प्रशिक्षण की विस्तृत रीतियों का विकास किया।
इस प्रकार आध्यात्मिक सूफी उस्तादों की पीढ़ियों , सिलसिलाओं का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें से हरेक सिलसिला निर्देशों व धार्मिक क्रियाओं का थोड़ा – बहुत अलग तरीका अपनाती थी। ईश्वर से अनुराग
11वीं शताब्दी से अनेक सूफी जन मध्य एशिया से आकर हिंदुस्तान में बसने लगे थे। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ यह प्रक्रिया उस समय और भी मजबूत हो गई जब उपमहाद्वीप में सर्वत्र बड़े – बड़े अनेक सूफी केंद्र विकसित हो गए।
चिश्ती सिलसिला इन सभी सिलसिलाों में सबसे अधिक प्रभावशाली था। इसमें ओलियाओं की एक लंबी परंपरा थी , जैसे – अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती , दिल्ली के कुतबुद्दीन बख्तियार काकी , पंजाब के बाबा फरीद , दिल्ली के ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया और गुलबर्ग के बंदानवाज गीसुदराज। ईश्वर से अनुराग
सूफी संत अपने खानकाहो में विशेष बैठकों का आयोजन करते थे जहाँ सभी प्रकार के भक्तगण शामिल होते थे। खानकाह – सूफी संस्था जहाँ सूफी संत अकसर रहते भी है। कश्मीर में 15वीं एवं 16वीं सदियों में सूफीवाद के ऋषि पंथ का उदय हुआ।
इस पंथ की स्थापना शेख नूरुद्दीन वली, जिन्हें नंद ऋषि के नाम से भी जाना जाता है , ने की और जिसने कश्मीर के लोगों के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है। ऋषि संतो को समर्पित कई स्मारक कश्मीर के कई भागों में पाए जाते हैं।
जलालुद्दीन रूमी तेरहवीं सदी का महान सूफी शायर था। वह ईरान का रहने वाला था और उसने फ़ारसी में काव्य रचना की। ईश्वर से अनुराग
उत्तर भारत में धार्मिक बदलाव
तेरहवीं सदी के बाद उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन की एक नयी लहर आई। यह एक ऐसा युग था , जब इस्लाम , ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म , सूफीमत , भक्ति की विभिन्न धाराओं ने और नाथपंथियों , सिद्धों तथा योगियों ने परस्पर एक – दूसरे को प्रभावित किया।
कबीर और बाबा गुरु नानक जैसे कुछ संतों ने सभी आडंबरपूर्ण रूढ़िवादी धर्मो को अस्वीकार कर दिया। ईश्वर से अनुराग
तुलसीदास ने ईश्वर को राम के रूप में धारण किया। अवधि में लिखी गई तुलसीदास की रचना रामचरितमानस उनके भक्ति – भाव की अभिव्यक्ति और साहित्यिक कृति , दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। सुरदास श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे।
उनकी रचनाएँ सूरसागर , सूरसारावली और साहित्य लहरी में संग्रहित है एवं उनके भक्ति भाव को अभिव्यक्त करती है। असम के शंकरदेव जो इन्हीं के समकालीन थे , ने विष्णु की भक्ति पर बल दिया और असमिया भाषा में कविताएँ तथा नाटक लिखे।
उन्होंने ही ‘ नामघर ‘ ( कविता पाठ और प्रार्थना गृह ) स्थापित करने की पद्धति चलाई, जो आज तक चल रही है। ईश्वर से अनुराग
शंकर देव की भक्ति का सार – ” एक शरण नाम धर्म ” ( एक सर्वोच्च सत्ता के प्रति समर्पण ) के नाम से जाना गया। शंकर देव की शिक्षाएं भागवत गीता तथा भागवत पुराण पर आधारित है।
उन्होंने ज्ञान के प्रसार के लिए सत्र या मठों की स्थापना को प्रोत्साहित किया। उनकी प्रमुख रचना में कीर्तनघोष शामिल है।
मीराबाई, रविदास, जो ‘ अस्पृश्य ‘ जाति के माने जाते थे, की अनुयायी बन गई। वे कृष्ण के प्रति समर्पित थी और उन्होंने अपने गहरे भक्ति – भाव को कई भजनों में अभिव्यक्त किया है।
उनके गीतों ने ‘ उच्च ‘ जातियों के रीतियो – नियमों को खुली चुनौती दी। तथा ये गीत राजस्थान व गुजरात के जनसाधारण में बहुत लोकप्रिय हुए। ईश्वर से अनुराग
इन संतों में से अधिकांश का विशिष्ट अभिलक्षण यह है कि उनकी कृतियां क्षेत्रीय भाषाओं में रची गई और इन्हें आसानी से गाया जा सकता था। इसलिए ये बेहद लोकप्रिय हुई और पीढ़ी – दर – पीढ़ी मौखिक रूप से चलती रही।
चैतन्यदेव, 16वीं शताब्दी के बंगाल के एक भक्ति संत थे। इन्होंने कृष्ण – राधा के प्रति निष्काम भक्ति – भाव का उपदेश दिया।
भक्ति संतों का एक महत्वपूर्ण योगदान संगीत के विकास में था। बंगाल के जयदेव में संस्कृत में गीत गोविंद की , जिसमें हर गीत एक विशेष राग और ताल में रचित है।
संगीत पर इन संतों का एक महत्वपूर्ण प्रभाव – भजन , कीर्तन और अंभग का प्रयोग था। इन गीतों ने, जो मनोभावनात्मक अनुभवों पर बल देते हैं, जनमानस को ज्यादा आकर्षित किया। ईश्वर से अनुराग
कबीर
कबीर संभवत : पंद्रहवीं – सोलहवीं सदी में हुए थे। वे एक अत्यधिक प्रभावशाली संत थे। उनका पालन – पोषण बनारस में या उसके आस -पास के एक मुसलमान जुलाहा यानी बुनकर परिवार में हुआ था।
हमें उनके विचारों की जानकारी उनकी साखियों और पदों के विशाल संग्रह से मिलती है ,जिनके बारे में यह कहा जाता है कि उनकी रचना तो कबीर ने की थी परंतु ये घुमंतू भजन – गायको द्वारा गाए जाते थे।
इनमें से कुछ भजन गुरु ग्रंथ साहब , पंचवाणी और बीजक में संग्रहित एवं सुरक्षित है। ईश्वर से अनुराग
कबीर के उपदेश प्रमुख धार्मिक परंपराओं की पूर्ण एवं प्रचंड अस्वीकृति पर आधारित थे। उनके उपदेशों में ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों की बाह्य आडंबरपूर्ण पूजा के सभी रूपों का मजाक उड़ाया गया है।
उनके काव्य की भाषा बोलचाल की हिंदी थी , जो आम आदमियों द्वारा आसानी से समझी जा सकती थी। उन्होंने कभी – कभी रहस्यमयी भाषा का भी प्रयोग किया , जिसे समझना कठिन होता है। कबीर, निराकर परमेश्वर पर विश्वास रखते थे।
उन्होंने यह उपदेश दिया कि भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष यानी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। हिंदू तथा मुसलमान दोनों लोग उनके अनुयायी हो गए। ईश्वर से अनुराग
बाबा गुरु नानक
तलवंडी ( पाकिस्तान में ननकाना साहब ) में जन्म लेने वाले बाबा गुरु नानक ने करतारपुर ( रावी नदी के तट पर डेरा बाबा नमक ) में एक केंद्र स्थापित किया। उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए करतारपुर में एक नियमित उपासना पद्धति अपनाई , जिसके अंतर्गत उन्हीं के शब्दों ( भजनों ) को गया जाता था।
उनके अनुयाई अपने – अपने पहले धर्म या जाति अथवा लिंग – भेद को नजर अंदाज करके एक सांझी रसोई में इकट्ठे खाते – पीते थे। इसे ‘ लंगर ‘ कहा जाता था। ईश्वर से अनुराग
बाबा गुरु नानक ने उपासना और धार्मिक कार्यों के लिए जो जगह नियुक्त की थी , उसे ‘ धर्मसाल ‘ कहा गया। आज इसे गुरुद्वारा कहते हैं। 1539 में अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा गुरु नानक ने एक अनुयायी को अपना उत्तराधिकारी चुना।
इसका नाम लहणा था, लेकिन ये गुरु अंगद के नाम से जाने गए। ‘ गुरु अंगद ‘ नाम का महत्व यह था कि गुरु अंगद , बाबा गुरु नानक के ही अंग माने गए। ईश्वर से अनुराग
गुरु अंगद ने बाबा गुरु नानक की रचनाओं का संग्रह किया और उस संग्रह में अपनी कृतियाँ भी जोड़ दी। संग्रह एक नई लिपि गुरमुखी में लिखा गया था। गुरु अंगद के तीन उत्तराधिकारी ने भी अपनी रचनाएं ‘ नानक ‘ के नाम से लिखी।
इन सभी का संग्रह गुरु अर्जन ने 1604 में किया। इस संग्रह में शेख फरीद, संत कबीर, भगत नामदेव और गुरु तेगबहादुर जैसे सूफियों संतों और गुरुओं कि वाणी जोड़ी गई।
1706 में इस वृहत संग्रह को गुरु तेगबहादुर के पुत्र व उत्तराधिकारी गुरु गोविंद सिंह ने प्रमाणित किया। आज इस संग्रह को सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में जाना जाता है। ईश्वर से अनुराग
बाबा गुरु नानक इस बात पर बल दिया करते थे कि उनके अनुयाई गृहस्थ हो और उपयोगी वह उत्पादक पेशों से जुड़े हो। अनुयायियों से यह आशा भी की जाती थी कि वे नए समुदाय के सामान्य कोष में योगदान देंगे।
उन्होंने एक ईश्वर की उपासना के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने आग्रह किया कि जाति, धर्म अथवा लिंग – भेद , मुक्ति प्राप्ति के लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। ईश्वर से अनुराग
उनके लिए मुक्ति किसी निष्क्रिय आनंद की स्थिति नहीं थी , बल्कि सक्रिय जीवन व्यतीत करने के साथ – साथ सामाजिक प्रतिबद्धता की निरंतर कोशिशें में ही निहित थी। अपने उपदेश के सार को व्यक्त करने के लिए उन्होंने तीन शब्दों का प्रयोग किया : नाम , दान और इस्नान (स्नान )।
नाम से उनका तात्पर्य , सही उपासना से था। दान का तात्पर्य था , दूसरों का भला करना और इस्नान का तात्पर्य आचार – विचार की पवित्रता। आज उनके उपदेशों को नाम – जपना , किर्त – करना और वंड – छकना के रूप में याद किया जाता है।
स्वर्ण मंदिर का दूसरा नाम हरमंदर साहब है। 1606 में मुगल सम्राट जहाँगीर ने गुरु अर्जुन को मृत्युदंड देने का आदेश दिया। 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा की संस्था का निर्माण किया। ईश्वर से अनुराग
मार्टिन लूथर और धर्मसुधार आंदोलन
सोलहवीं सदी का समय यूरोप में भी एक धार्मिक उथल – पुथल का कल था , तब ईसाई धर्म में अनेक परिवर्तन हुए , जिन्हें लाने वाले महत्वपूर्ण नेताओं में एक थे – मार्टिन लूथर ( 1483 – 1546 )।
लूथरा ने यह महसूस किया कि रोमन कैथोलिक चर्च के अनेक आचार – विचार बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध जाते हैं।
लूथर ने लैटिन भाषा की बजाय आम लोगों की भाषा के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया और बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया। ईश्वर से अनुराग
वे दंडमोचन की उस प्रथा के घोर विरोधी थे , जिनके अंतर्गत पाप कर्मों को क्षमा करने के लिए चर्च को दान दिया जाता था। छापेखाने के बढ़ते हुए प्रयोग से उनकी रचनाओं का व्यापक रूप से प्रचार – प्रसार हुआ।
अनेक प्रोटेस्टेंट ईसाई संप्रदाय अपना उदभव लूथरा की शिक्षाओं में ही खोजते हैं। ईश्वर से अनुराग
ईश्वर से अनुराग ( MCQ )
प्रश्न 1. नयनार और अलवार कटु आलोचक थे –
उत्तर- बौद्धों और जैनों के
प्रश्न 2. नयनारों ने किस के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताया था ?
उत्तर- शिव
प्रश्न 3. आलवारों ने किस के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताया था ?
उत्तर- विष्णु
प्रश्न 4. संगम साहित्य में समाहित प्यार और शूरवीरता के आदर्शों को अपना कर भक्ति के मूल्यों में उनका समावेश किया था –
उत्तर- नयनारों और आलवारों ने
प्रश्न 5. भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली दार्शनिक में से एक शंकर का जन्म आठवीं शताब्दी में हुआ था –
उत्तर- केरल प्रदेश में
प्रश्न 6. शंकर समर्थक थे –
उत्तर- अद्वैतवाद के
प्रश्न 7. मोक्ष प्राप्त करने के लिए शंकर ने किस मार्ग को अपनाने का उपदेश दिया।
उत्तर- ज्ञान के
प्रश्न 8. किस सिद्धांत के अनुसार जीव आत्मा और परमात्मा ( जो परम सत्य है ) , दोनों एक ही हैं ?
उत्तर- अद्वैतवाद
प्रश्न 9. रामानुज ग्यारहवीं शताब्दी में पैदा हुए थे –
उत्तर- तमिलनाडु में
प्रश्न 10. रामानुज अनुसार मोक्ष प्राप्त करने का उपाय है –
उत्तर- विष्णु के प्रति अनन्य भक्ति भाव रखना
प्रश्न 11. रामानुज ने किस सिद्धांत को प्रतिपादित किया –
उत्तर- विशिष्टताद्वैत के
प्रश्न 12. किस सिद्धांत के अनुसार आत्मा , परमात्मा से जुड़ने के बाद भी अपनी अलग सत्ता बनाए रखती है ?
उत्तर- विशिष्टताद्वैत
प्रश्न 13. बसवन्ना का वीरशैव आंदोलन 12वीं शताब्दी के मध्य में प्रारंभ हुआ था –
उत्तर- कर्नाटक में
प्रश्न 14. महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर , नामदेव , एकनाथ और तुकाराम जैसे वैष्णव संत कवि उपासक थे –
उत्तर- भगवान विट्ठल के
प्रश्न 15. भगवान विट्ठल की आराधना ने किस संप्रदाय को जन्म दिया ?
उत्तर- वारकारी
प्रश्न 16. सूफी मुसलमान थे –
उत्तर- रहस्यवादी
प्रश्न 17. संत – कवियों की तरह सूफी लोग भी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए किया करते थे –
उत्तर- काव्य रचना
प्रश्न 18. मध्य एशिया के महान सूफी संतों में नाम उल्लेखनीय है –
उत्तर- गज्जाली , रूमी और सादी के
प्रश्न 19. सूफी संस्था जहाँ सूफी संत विशेष बैठकों का आयोजन करते है, तथा अकसर वहाँ रहते भी है –
उत्तर- खानकाह
प्रश्न 20. कश्मीर में 15वीं एवं 16वीं सदियों में सूफीवाद के किस पंथ का उदय हुआ ?
उत्तर- ऋषि पंथ
प्रश्न 21. ऋषि पंथ की स्थापना की –
उत्तर- शेख नूरुद्दीन वली ने
प्रश्न 22. शेख नूरुद्दीन वली को किस नाम से भी जाना जाता है ?
उत्तर- नंद ऋषि के
प्रश्न 23. जलालुद्दीन रूमी महान सूफी शायर था –
उत्तर- तेरहवीं सदी का
प्रश्न 24. जलालुद्दीन रूमी रहने वाला था –
उत्तर- ईरान का
प्रश्न 25. अवधि में लिखी गई रामचरितमानस की रचना की –
उत्तर- तुलसीदास ने
प्रश्न 26. ‘ नामघर ‘ ( कविता पाठ और प्रार्थना गृह ) स्थापित करने की पद्धति चलाई –
उत्तर- असम के शंकरदेव जो ने
प्रश्न 27. शंकर देव की भक्ति का सार किस नाम से जाना गया ?
उत्तर- ” एक शरण नाम धर्म ” के
प्रश्न 28. चैतन्यदेव, 16वीं शताब्दी के एक भक्ति संत थे –
उत्तर- बंगाल के
प्रश्न 29. चैतन्यदेव जी ने किस के प्रति निष्काम भक्ति – भाव का उपदेश दिया ?
उत्तर- कृष्ण – राधा
प्रश्न 30. कबीर का पालन – पोषण हुआ था –
उत्तर- जुलाहा यानी बुनकर परिवार में
प्रश्न 31. कबीर विश्वास रखते थे –
उत्तर- निराकर परमेश्वर पर
प्रश्न 32. बाबा गुरु नानक जी का जन्म हुआ था –
उत्तर- तलवंडी ( पाकिस्तान में ननकाना साहब ) में
प्रश्न 33. बाबा गुरु नानक जी के अनुयाई अपने – अपने पहले धर्म या जाति अथवा लिंग – भेद को नजर अंदाज करके एक सांझी रसोई में इकट्ठे खाते – पीते थे। इसे कहा जाता था –
उत्तर- ‘ लंगर ‘
प्रश्न 34. बाबा गुरु नानक ने उपासना और धार्मिक कार्यों के लिए जो जगह नियुक्त की थी , उसे ‘ धर्मसाल ‘ कहा गया। आज इसे कहते हैं –
उत्तर- गुरुद्वारा
प्रश्न 35. 1539 में अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा गुरु नानक ने एक अनुयायी को अपना उत्तराधिकारी चुना। इसका नाम था –
उत्तर- लहणा
प्रश्न 36. लहणा किस नाम से जाने गए ?
उत्तर- गुरु अंगद के
प्रश्न 37. बाबा गुरु नानक के ही अंग माने गए –
उत्तर- गुरु अंगद
प्रश्न 38. अपने उपदेश के सार को व्यक्त करने के लिए गुरु नानक जी ने तीन शब्दों का प्रयोग किया : –
उत्तर- नाम , दान और इस्नान (स्नान )
प्रश्न 39. नाम से गुरु नानक जी का तात्पर्य था –
उत्तर- सही उपासना से
प्रश्न 40. इस्नान से गुरु नानक जी का तात्पर्य था –
उत्तर- आचार – विचार की पवित्रता
प्रश्न 41. स्वर्ण मंदिर का दूसरा नाम है –
उत्तर- हरमंदर साहब
प्रश्न 42. 1606 में मुगल सम्राट जहाँगीर ने मृत्युदंड देने का आदेश दिया –
उत्तर- गुरु अर्जुन को
प्रश्न 43. 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने निर्माण किया –
उत्तर- खालसा की संस्था का
प्रश्न 44. बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया –
उत्तर- मार्टिन लूथर ने