कत्थक
कत्थक नृत्य शैली उत्तर भारत के अनेक भागों से जुड़ी है। ‘ कत्थक ‘ शब्द ‘ कथा ‘ शब्द से निकला है , जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में कहानी के लिए किया जाता है।
कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरों में कथा यानी कहानी सुनने वालों की एक जाती थी। ये कथाकार अपने हाव – भाव तथा संगीत से अपने कथावाचन को अलंकृत किया करते थे।
पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दियों में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ कत्थक एक विशिष्ट नृत्य शैली का रूप धारण करने लगा।
राधा – कृष्ण के पौराणिक आख्यान ( कहानियाँ ) लोकनाट्य के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे , जिन्हें ‘ रासलीला ‘ कहा जाता था।
रासलीला में लोक नृत्य के साथ कत्थक कथाकार के मूल हाव – भाव भी जुड़े होते थे।
मुगल बादशाहों और उनके अभिजातो के शासनकाल में कत्थक नृत्य राजदरबार में प्रस्तुत किया जाता था , जहाँ इस नृत्य ने अपने वर्तमान अभिलक्षण अर्जित किए और वह एक विशिष्ट नृत्य शैली के रूप में विकसित हो गया।
आगे चलकर यह दो परंपराओं अर्थात ‘ घरानों ‘ में फूला – फला : राजस्थान ( जयपुर ) के राजदरबारों में और लखनऊ में।
अवध के अंतिम नवाब वाजिदअली शाह के संरक्षण में यह एक प्रमुख कला – रूप में उभरा। 1850 – 1875 के दौरान यह नृत्य शैली के रूप में इन दो क्षेत्रों में ही नहीं , बल्कि आज के पंजाब , हरियाणा , जम्मू और कश्मीर , बिहार तथा मध्य प्रदेश के निकटवर्ती इलाकों में भी पक्के तौर पर संस्थापित हो गया।
इसकी प्रस्तुति में क्लिष्ट तथा द्रुत पद संचालन , उत्तम वेशभूषा तथा कहानियों के प्रस्तुतीकरण एवं अभिनय पर जोर दिया जाने लगा।
अनेक अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों की तरह कत्थक को भी उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दियों में अधिकांश ब्रिटिश प्रशासकों ने नापसंद किया। फिर भी यह ‘ जीवित ‘ बचा रहा और गणिकाओं द्वारा पेश किया जाता रहा।
स्वतंत्रता – प्राप्ति के बाद तो देश में इसे 6 ‘ शास्त्रीय ‘ नृत्य रूपों में मान्यता मिल गई। उस शैली को ‘ शास्त्रीय ‘ कहते है , जिसे निर्धारित नियमों के अनुसार प्रदर्शित या प्रस्तुत किया जाता है और इसमें विभिन्नतााओं को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है।
अन्य नृत्य रूप , जिन्हें हम इस समय शास्त्रीय माना जाता है, निम्नलिखित है :
भरतनाट्यम ( तमिलनाडु )
कथाकली ( केरल )
ओडिसी ( उड़ीसा )
कुचिपुड़ी ( आंध्र प्रदेश )
मणिपुरी ( मणिपुर ) कत्थक
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