तराइन का युद्ध
तराइन का युद्ध – मुइज्जुद्दीन मुहम्मद और पृथ्वीराज के बीच संघर्ष की शुरुआत तबरहिंद ( भटिंडा ) पर दोनों के दावों को लेकर हुई 1191 ईस्वी में तराइन की लड़ाई में गौरी फौज , बुरी तरह पराजित हुई और मुइज्जुद्दीन मुहम्मद की जान एक खिलजी घुड़सवार ने बचाई।
मुइज्जुद्दीन मुहम्मद अपनी सैन्य शक्ति को नए सिरे से संगठित करके अगले ही साल उसने फिर धावा बोला दिया। कहते है कि जब पृथ्वीराज ने उससे यह पेशकश की थी कि वह पंजाब में चैन से शासन करता रहे , लेकिन मुहम्मद गोरी ने उसकी यह पेशकश ठुकरा दी। तराइन का युद्ध
सन 1192 की तराइन की दूसरी लड़ाई को भारतीय इतिहास को एक नया मोड़ देने वाली लड़ाई माना जाता है।
पृथ्वीराज जब तक वह संभलता तब तक काफी देर हो चुकी थी। तराइन की पिछली लड़ाई का विजयी सेनापति स्कन्द अन्यत्र मोर्चे संभाले हुए था। तराइन का युद्ध
लेकिन मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी की ओर से उपस्थित एक नए खतरे का अहसास होते ही पृथ्वीराज ने उत्तर भारत के सभी राजाओं से सहायता की गुहार की।
कहते हैं कि बहुत से राजाओं ने उसकी सहायता के लिए अपनी – अपनी सैनिक टुकड़ियां भेजी , परंतु कन्नौज का शासक जयचंद अलग खड़ा रहा। तराइन का युद्ध
जयचंद के इस अलगाव का कारण यह था कि पृथ्वीराज ने उसकी पुत्री का , चौहान राजा से प्रेम था , अपहरण किया था। यह कथा बहुत बाद में चंदबरदाई ने लिखी और इसमें बहुत – सी असंभव घटनाओं का समावेश है।
यह लड़ाई मुख्य रूप से घुड़सवार सेनाओं की लड़ाई थी। अंत में तुर्क सेना का संगठन और गतिशीलता निर्णायक साबित हुई।
भारतीय सैनिक बड़ी तादाद में मारे गए। पृथ्वीराज जान बचाकर भागा , लेकिन सरस्वती के निकट बंदी बना लिया गया। पृथ्वीराज को कुछ काल तक अजमेर पर शासन करने दिया गया
क्योंकि इस लड़ाई के बाद के ऐसे सिक्के मिले हैं जिनके एक ओर तिथि और ” पृथ्वीराज ” मुद्रालेख अंकित है ओर दूसरी ओर ” श्री मुहम्मद साम ” लिखा हुआ है।
इसके कुछ ही दिन बाद पृथ्वीराज को षड्यंत्र करने के आरोप में मौत के घाट उतार दिया गया। उसके उपरांत उसका बेटा गद्दी पर बैठा।
एक विद्रोह के बाद मुस्लिम सेना ने अजमेर पर फिर से कब्जा कर लिया , और वहां का शासन एक तुर्क सेनापति को सौंप दिया।
पृथ्वीराज के पुत्र ने वहां से रणथंबोर जाकर एक नई शक्तिशाली चौहान राज्य की स्थापना की। तराइन का युद्ध
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