राष्ट्रकूट वंश
इस राजवंश ( राष्ट्रकूट वंश ) ने दकन को एक के बाद एक अनेक योद्धा तथा कुशल प्रशासक दिए। इस राज्य की स्थापना दन्तिदुर्ग ने की थी जिसने आधुनिक शोलापुर के निकट मान्यखेट या मालखेड़ को अपनी राजधानी बनाया।
राष्ट्रकूटों ने शीघ्र ही उत्तर महाराष्ट्र के पूरे प्रदेश पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। वे वेंगी ( आधुनिक आंध्रप्रदेश में स्थित )के पूर्वी चालुक्यों से भी बराबर जूझते रहे और दक्षिण में कांची के पल्ल्वों तथा मदुरै के पांड्यों से भी दो – दो हाथ करते रहे। राष्ट्रकूट वंश
गोविन्द तृतीय और अमोघवर्ष शायद सबसे महान राष्ट्रकूट राजा थे। कन्नौज के नागभट्ट पर सफल आक्रमण करने और मालवा को अपने साम्राज्य का अंग बना लेने के बाद तृतीय गोविन्द दक्षिण की ओर मुड़ा।
एक अभिलेख से मालूम होता है कि गोविन्द ने ” केरल , पाण्ड्य तथा चोल राजाओं को भयभीत कर दिया और पल्ल्वों को श्रीहीन बना दिया। राष्ट्रकूट वंश
अपनी नीचता के कारण असंतुष्ट हो जाने वाले गंगो को शृंखला में जकड़ दिया और वे मृत्यु को प्राप्त हुए। लंका का राजा और उसका मंत्री , जिन्हे अपने हित – अहित का विचार नहीं था , बंदी बनाकर हालपुर लाए गए।
लंका के इष्टदेव की दो प्रतिमाएं मान्यखेट लाई गई और शिव मंदिर के सामने विजय – स्तंभों के रूप में प्रतिष्ठित कर दी गई। राष्ट्रकूट वंश
अमोघवर्ष ने 68 वर्षों तक शासन किया , लेकिन प्रकृत्य युद्ध की अपेक्षा उसकी धर्म और साहित्य में अधिक रूचि थी। वह स्वयं भी लेखक था और उसे राजनीति पर कन्नड़ की प्रथम कृति की रचना करने का श्रेय दिया जाता है।
वह एक महान निर्माता भी था और कहते हैं , मान्यखेट को उसने ऐसा रूप दिया जिसके सामने इंद्रपुरी भी लज्जित होती थी। इसके शासनकाल में राष्ट्रकूट साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेशों में कई विद्रोह हुए, जिन्हे बहुत मुश्किल से दबाया गया। राष्ट्रकूट वंश
अमोघवर्ष का पौत्र तृतीय इंद्र , 915 ईस्वी में महिपाल को पराजित करने और कन्नौज को पदमर्दित करने के बाद अपने समय के सबसे शक्तिशाली राजा के रूप में सामने आया।
उस काल में भारत की यात्रा करने वाले अल – मसुदी के अनुसार राष्ट्रकूट राजा बलहारा या वल्लभराज भारत का सबसे प्रतापी राजा था। राष्ट्रकूट वंश
राष्ट्रकूट वंश का अंतिम प्रतापी राजा कृष्ण तृतीय हुआ उसने रामेश्वरम तक के प्रदेशों को जीत कर वहां एक विजयस्तंभ स्थापित किया एवं एक मंदिर का निर्माण कराया। कृष्ण की मृत्यु के बाद उसके सभी वेंगी उसके उत्तराधिकारी के खिलाफ एकजुट हो गए।
972 ईस्वी में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट को जीत कर उन्होंने वहां आग लगा दी। इसके साथ ही राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंत हो गया। राष्ट्रकूट वंश
दकन में राष्ट्रकूट शासन दसवीं सदी के अंत तक लगभग 200 साल कायम रहा। राष्ट्रकूट राजाओं के धार्मिक विचारों में बहुत सहिष्णुता और उदारता थी। उन्होंने न केवल शैव और वैष्णव धर्म को प्रश्रय दिया बल्कि जैन धर्म को भी बढ़ावा दिया।
राष्ट्रकूट राजा प्रथम कृष्ण ने एलोरा का प्रसिद्ध शिव मंदिर नवी सदी में बनवाया था। कहते हैं कि उसका उत्तराधिकारी अमोघवर्ष जैन था। राष्ट्रकूट राजाओं ने मुस्लिम व्यापारियों को अपने राज्य में बसने की इजाजत दी और साथ ही उन्हें इस्लाम के प्रचार की भी छूट दी। राष्ट्रकूट वंश
राष्ट्रकूट राजा कला और साहित्य के महान संरक्षक थे। उनके दरबार में न केवल संस्कृत के विद्वान थे , बल्कि अनेक ऐसे कवि और लेखक भी थे जो प्राकृत तथा अपभ्रंश में लिखते थे। महान अपभ्रंश कवि स्वयंभू और उसके पुत्र शायद राष्ट्रकूट दरबार में ही रहते थे। राष्ट्रकूट वंश
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