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चोल राजवंश

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चोल राजवंश

चोल साम्राज्य ( चोल राजवंश ) की स्थापना विजयालय ने की जो आरंभ में पल्लवों का सामंत था। सबसे समृद्ध चोल राजा राजराज ( 985 ईस्वी – 1014 ईस्वी ) और उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम ( 1014 ईस्वी – 1044 ईस्वी ) थे।

राजराज को अपने पिता के जीवन काल में ही युवराज नियुक्त कर दिया गया था। सिंहासनारूढ़ होने के पूर्व ही वह प्रशासन और युद्ध का काफी अनुभव प्राप्त कर चुका था। उसने त्रिवेंद्रम के चेरों की नौसेना को ध्वस्त कर दिया और कोइलोन पर हमला कर दिया।

उसके बाद उसने मदुरै पर आक्रमण किया और पांडय राजा को बंदी बना लिया। उसने श्री लंका पर भी चढ़ाई कर दी और उसके उत्तरी हिस्से को जीत कर अपने साम्राज्य मिला लिया।चोल राजवंश

इन सैनिक कार्रवाइयों का उद्देश्य अंशतः यह था कि दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ होने वाले व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके। राजराज के नौसैनिक पराक्रम का एक उदाहरण मालदीव की विजय थी।

राजराज ने गंगा क्षेत्र के उत्तरी पश्चिमी प्रदेशों को जीत कर अपने राज्य में मिल लिया और वेंगी राज्य की ईंट से ईंट बजा दी। चोल राजवंश 

राजराज की विस्तार वादी नीति को आगे बढ़ते हुए राजेंद्र प्रथम ने पांडय और चेर देशों को पूर्णत: पराभूत करके अपने साम्राज्य में मिला लिया।

श्रीलंका की विजय को परिणति तक पहुंचाते हुए उसने वहां के राजा और रानी के मुकुट तथा राज – चिन्ह को अपने कब्जे में कर लिया। श्रीलंका अगले 50 वर्षों तक चोल नियंत्रण में से मुक्त नहीं हो पाया। चोल राजवंश 

राजराज और राजेंद्र प्रथम ने अनेक स्थानों पर शिव और विष्णु के मंदिर बनवा कर अपनी विजयों की स्मृति को स्थायित्व प्रदान किया। इनमें से सबसे प्रसिद्ध तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर था जो 1010 ईस्वी में पूरा हुआ।

चोल शासको ने इन मंदिरों की दीवारों पर लंबे – लंबे अभिलेख उत्कीर्ण करने का चलन आरंभ किया जिनमे उनकी जीतो के ऐतिहासिक विवरण दिए जाते थे। चोल राजवंश

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राजेंद्र प्रथम के शासनकाल का एक अत्यंत उल्लेखनीय सैनिक अभियान कलिंग के रास्ते बंगाल पर किया गया आक्रमण था। चोल सेना ने गंगा को पार करके दो स्थानीय राजाओं को पराजित किया।

1022 ईस्वी में एक चोल सेनापति के नेतृत्व में किए गए इस अभियान में उसी मार्ग अनुसरण किया गया था जिससे होकर महान विजेता समुद्रगुप्त ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया था।

इस विजय की स्मृति में राजेंद्र ने गंगकोंडचोल का विरुद धारण किया। उसने कावेरी के मुहाने पर नई राजधानी बसाई और उसका नाम गंगईकोंडचोलपुरम रखा। चोल राजवंश

राजेंद्र प्रथम के शासनकाल के इससे भी अधिक उल्लेखनीय सैनिक पराक्रम का उदाहरण श्रीविजय साम्राज्य पर किया गया आक्रमण था। इस बार आक्रमण किया था चोर नौसेना ने। इस साम्राज्य पर शैलेंद्र राजवंश का शासन था।

शैलेंद्र शासक बौद्ध थे और चोलो के साथ उनके मधुर संबंध थे। शैलेंद्र शासक ने नागपटनम में एक बौद्ध विहार भी बनवाया था और उसके अनुरोध पर राजेंद्र ने विहार का खर्च चलाने के लिए एक गांव दान में दिया था। चोल राजवंश 

दोनों के बीच अनबन का कारण स्पष्ट ही यह था कि चोलराज्य भारतीय व्यापार के मार्ग की बाधाएँ दूर करना चाहता था चीन के साथ चोल व्यापार का विस्तार करना चाहता था।

इस अभियान में चोलो ने कडारम या केड़ा तथा मलय प्रायद्वीप और सुमात्रा के कई ठिकाने जीत लिए। कुछ साल तक चोल नौसेना इस क्षेत्र की सबसे शक्तिशाली नौसेना बनी रही और बंगाल की खाड़ी की हैसियत ” चोल झील ” कि सी हो गई। चोल राजवंश 

चोल शासको ने चीन को कई राजदूत मंडल भेजें। ये आंशिक रूप से कूटनीतिक थे और आंशिक रूप से व्यापारिक।

राष्ट्रकूट के पतन के बाद उनका स्थान ग्रहण करने वाले चालुक्यों से भी चोल शासक बराबर लोहा लेते रहे। इन्हे उत्तर चालुक्य कहा जाता था और उनकी राजधानी कल्याणी थी। चोल राजवंश

चोलों और उत्तर चालुक्यों के बीच के संघर्ष का कारण यह था कि दोनों वेंगो , तुंगभद्र दोआब और उत्तर पश्चिम कर्नाटक में गंगदेश पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे।

इस स्पर्धा में दो में से कोई भी पक्ष निर्णायक विजय प्राप्त नहीं कर पाया और अंत में इस संघर्ष में दोनों की शक्ति चूक गई। चोल राजवंश 

चोल प्रशासन की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि वह साम्राज्य से सर्वत्र गांवों के स्तर पर स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देता था। 12वीं सदी के दौरान चोल साम्राज्य फलता – फूलता रहा।

लेकिन तेरहवीं सदी के अंतिम चरण में उसका पतन आरंभ हो गया। महाराष्ट्र क्षेत्र में उत्तर चालुक्य साम्राज्य भी 12वीं सदी में मिट गया था।

दक्षिण में चोलों का स्थान पांडयोन और होयसलों ने ले लिया और चालुक्यों की जगह यादव और काकतीय राजवंश प्रतिष्ठित हुए। चोल राजवंश 

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