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चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

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चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन – चोल साम्राज्य के विस्तार और उसके विशाल संसाधनों के फलस्वरूप चोल शासको को तंजावूर , गंगई , कोंडचोलपुरम , कांची आदि महानगरों का निर्माण करने की सामर्थ प्राप्त हुई।

शासको की गृहस्थियाँ बड़ी – बड़ी होती थी और उनके प्रसाद विशाल तथा भव्य , जिनमे खूब लंबे – चौड़े भोज – कक्ष , विस्तृत उपवन और चबूतरे बने होते थे।

चोल शासनकाल में दक्षिण भारत का मंदिर- स्थापत्य चरमोत्कृर्ष पर था। इस कल में स्थापत्य कि जो शैली लोकप्रिय हुई उसे द्रविड़ शैली कहते हैं। क्योंकि वह मुख्यतः दक्षिण भारत तक सीमित थी।

इस शैली की मुख्य विशेषता थी गर्भगृह के ऊपर एक – के – बाद – एक कई मंजिलों का निर्माण। मंजिले पांच से सात तक होती थी और वह एक खास शैली में बनी होती थी जिसे विमान शैली कहते हैं। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

मंदिर के मुख्य भवन सामने सामान्यतः स्तंभो पर बना हुआ एक विशाल कक्ष होता था , जिसकी छत सपाट होती थी। स्तंभों को खूब अलंकृत किया जाता था। इस कक्ष को मंडपम कहते थे।

मंदिर के चारों ओर एक विशाल परिक्रमा पथ होता था जो ऊंची चारदीवारी से घिरा रहता था। चारदीवारियों में जगह – जगह ऊंचे सिंहद्वार बने होते थे जिन्हे गोपुरम कहा जाता था। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

मंदिर का खर्च चलाने के लिए आमतौर पर उन्हें राजस्व – मुक्त भूमिदान दिया जाता था। संपन्न व्यापारी भी उन्हें भूमि दान और नकद अनुदान देते थे। कुछ मंदिर इतने समृद्ध हो गए कि वे महाजनी करने लगे और व्यवसायों में भाग लेने लगे।

उन्होंने कृषि सुधार , कुँए , तालाब खोदने आदि और नहरे खुदवाने पर भी व्यय किया जिससे कृषि का विस्तार हो सके। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

द्रविड़ शैली के मंदिरों का आरंभिक उदाहरण कांचीपुरम का कैलाशनाथ मंदिर है। लेकिन इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रथम राजराज द्वारा तंजौर में बनवाया गया बृहदीश्वर मंदिर है।

इसे राजराज मंदिर भी कहा जाता है , क्योंकि चोलों के बीच मंदिर में देवी – देवताओं के अलावा राजा और रानी की प्रतिमाएं में प्रतिष्ठित करने का चलन था।

होयसलों की राजधानी हलेविड में काफी संख्या में मंदिर बनवाए गए। इनमें सबसे भव्य होयसलेश्वर मंदिर है यह चालुक्य शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है।

देवी – देवताओं तथा उनके यक्ष – यक्षिणी सेवक – सेविकाओं की प्रतिमाओं के अलावा इस मंदिर की दीवारों पर उम्दा उत्कीर्ण किया गया है।

इन उत्कीर्णनों में जीवन के विविध पहलुओं के जैसे नृत्य , संगीत , युद्ध और प्रेम के दृश्य दर्शाये गए हैं। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

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इस काल में दक्षिण भारत में मूर्तिकला ने एक ऊंचाई का स्पर्श किया। इसका एक उदाहरण श्रवणबेलगोल की गोमतेश्वर की विशालकाय मूर्ति है।

इसका दूसरा पहलू प्रतिमा निर्माण था जिसका सबसे अधिक निखार नटराज की प्रतिमा में हुआ।

इस काल की नटराज की प्रतिमाएं , खास तौर से उसकी कांस्य प्रतिमाएं , इस कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने मानी जाती है।

इस काल में विभिन्न राजवंशों के शासको ने कलाओं और साहित्य को भी आश्रय दिया। संस्कृत को उच्च संस्कृति की भाषा माना जाता था और कई राजाओं , विद्वानों तथा दरबारी कवियों ने इस भाषा में रचना की। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

इस काल की एक उल्लेखनीय विशेषता क्षेत्रीय भाषाओं का विकास था। छठी से लेकर नौवीं सदी तक तमिल देश में अनेक लोकप्रिय संतों का प्रादुर्भाव हुआ। अलवार और नयनार कहे जाने वाले ये संत विष्णु और शिव के भक्त थे।

उन्होंने तमिल तथा संबंधित क्षेत्र में अन्यान्य भाषाओं में गीतों और भजनों की रचना की। इन संतो की रचनाओं को 12वीं सदी के आरंभ में तिरुमुराई नाम से 11 जिल्दों में संकलित किया गया। इन रचनाओं को पवित्र माना जाता है और पांचवें वेद का दर्जा दिया जाता है। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

कंबन का काल जो विद्वानों की राय में ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्ध और 12वीं सदी का प्रारंभिक चरण था , तमिल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है।

कंबन की रामायण को तमिल साहित्य की उच्चतम कोटि की रचना माना जाता है। समझा जाता है कि कंबल एक चोल राजा के दरबार में रहता था। 

इस काल में कन्नड़ भी साहित्य की भाषा के रूप में निखरी , हालाँकि वह तमिल की अपेक्षा एक नई भाषा थी। राष्टकूट , चालुक्य और होयसल राजाओं ने कन्नड़ और तेलुगु दोनों को संरक्षण दिया।

राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर एक पुस्तक लिखी। कई जैन विद्वानों ने भी कन्नड़ के विकास में योगदान दिया। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

पंपा , पोन्ना और रन्ना कन्नड़ काव्य के रतन माने जाते है। यद्यपि ये विद्वान जैन धर्म से प्रभावित थे , तथापि उन्होंने रामायण और महाभारत से लिए गए विषयों पर खूब लिखा।

चालुक्य राजा के दरबार में रहने वाले नन्नेया ने महाभारत का तेलुगु पाठ तैयार करना आरंभ किया। उसके आरंभ किए कार्य को तेरहवीं सदी में तिक्कन्ना ने पूरा किया।

दक्षिण भारत में आठवीं से 12वीं सदी का काल न केवल राजनीतिक एकीकरण की दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। चोल साम्राज्य में सांस्कृतिक जीवन

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