काका कालेलकर
काका कालेलकर का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में सन 1885 ईस्वी में हुआ था। इनका पूरा नाम दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर था। इनके पिता का नाम श्री बालकृष्ण कालेलकर था , जो कोषाधिकारी के पद पर कार्यरत थे। काका कालेकर प्रारंभ से ही अत्यधिक कुशल बुद्धि वाले थे ; अतः इन्होने अपनी मातृ-भाषा मराठी के साथ-साथ हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, गुजराती आदि भाषाओं का भी अध्ययन करके उन पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया।
बंबई विश्वविद्यालय से इन्होंने सन 1907 ईस्वी में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इन्होंने तिलक द्वारा स्थापित मराठी पत्र ‘राष्ट्रीयमत’ का संपादन किया। ‘बड़ौदा गंगानाथ भारतीय सर्वजनिक विद्यालय’ के आचार्य के पद पर कार्य करते हुए इन्हें ‘काका’ का विशेषण प्राप्त हुआ। सन 1914 ईस्वी में ‘शांतिनिकेतन’ के अध्यापक और फिर ‘साबरमती आश्रम विद्यालय’ के प्रधानाध्यापक बने। काका कालेलकर ‘गुजरात विश्वविद्यालय’ में कुलपति भी रहे।
गांधी जी के संपर्क में आने के बाद काका साहब राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ गए महात्मा गांधी से प्रेरित होकर इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्रीय सेवा तथा मानव उधार के कार्यों में लगा दिया। ये संविधान सभा के भी सदस्य रहे। सन 1952 से 1957 तक ये राज्यसभा के सदस्य तथा उनके आयोग के अध्यक्ष भी रहे। भारत सरकार ने इन्हें ‘पदमभूषण’ तथा राष्ट्रीयभाषा प्रचार समिति ने ‘गांधी पुरस्कार’ से सम्मानित किया। निरंतर देश और साहित्य सेवा करते हुए राष्ट्रभाषा का यह प्रचारक सन 1981 को इस संसार से विदा हो गया।
साहित्यिक परिचय
काका कालेलकर ने हिंदी और गुजराती भाषा में मौलिक रचनाएं की। विचारात्मक निबंधों के अतिरिक्त सरल और ओजस्वी भाषा में काका कालेकर ने पर्याप्त हिंदी साहित्य लिखा। संस्मरण, जीवन-चरित, यात्रावृत्त लेखक के रूप में इनका साहित्यकार व्यक्तित्व उभरकर सामने आया। भारतीय संस्कृति पर काका कालेलकर ने गंभीर अध्ययन किया था, इस कारण इनकी कृतियों में प्राचीन भारत की झलक दिखाई देती है।
काका कालेलकर जी की रचनाएँ
निबंध-संग्रह – ‘जीवन-साहित्य’ एवं ‘जीवन-काव्य’ आदि।
यात्रावृत्त – ‘हिमालय प्रवास’ , ‘यात्रा’ , ‘लोकमाता’ , ‘उस पार के पड़ोसी’ आदि।
आत्मचरित् – ‘जीवनलीला’ , ‘सर्वोदया’।
संस्मरण – ‘बापू की झाँकियाँ’।
भाषा
काका कालेलकर हिंदी भाषी न होते हुए भी हिंदी के समर्थ गद्यकार थे। भावों को पूर्ण रूप से प्रदर्शित करना काका कालेकर की भाषा की प्रमुख विशेषता है। ये अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। अंग्रेजी, अरबी-फारसी, गुजराती, मराठी भाषाओं के शब्द भी काका कालेकर की रचनाओं में आसानी से मिल जाते हैं। तत्सम, तद्भव तथा देशज और मुहावरों-कहावतों के प्रयोग से भाषा में सजीवता का समावेश हो गया है। भावों को सहजता एवं स्पष्टता से उद्घाटित करने में काका कालेकर को कुशलता प्राप्त है।
शैली
काका कालेलकर साहब के गद्य-साहित्य में सूक्ष्म रूप से निम्नलिखित शैलियों के दर्शन होते हैं –
परिचयात्मक शैली – इस शैली का प्रयोग काका कालेलकर साहब ने किसी घटना, वस्तु अथवा व्यक्ति का परिचय देते समय किया है। इस शैली में वाक्य छोटे-छोटे तथा सरलता और सुबोधता लिए हुए हैं।
आत्मकथात्मक शैली – इस शैली का प्रयोग काका कालेकर साहब ने संस्मरण तथा आत्मचरित् लिखने में किया है।
विवरणात्मक शैली – इस शैली का प्रयोग लेखक ने मूलतः यात्राओं, स्वप्नों, घटनाओं आदि का सुगम विश्लेषण करते समय किया है। इस शैली में स्वाभाविक प्रवाह, चित्रोपमता और सजीवता दृष्टिगोचर होती है।
काव्यात्मक शैली – काका कालेलकर साहब मँजे हुए लेखक थे; अतः किसी भी सुंदर दृश्य का वर्णन करते हुए कल्पना की उड़ान भरना इनका स्वभाव था। इनकी रचनाओं के ऐसे वर्णनों में काव्यात्मक प्रसंग देखने को मिलते हैं।
हास्य-व्यंग्य शैली – इस शैली का भी लेखक ने यत्र-तत्र प्रयोग किया है।
हिंदी साहित्य में स्थान
काका कालेलकर महान देशभक्त, विचारक, उच्च कोटि के विद्वान, राष्ट्र-भाषा के प्रचारक तथा उत्कृष्ट निबंधकार व यात्रा-वृत्तांत के एक समर्थ लेखक थे। अपनी साहित्य साधना व हिंदी भाषी प्रेमी होने की वजह से काका कालेलकर ने दक्षिण भारत में उसके प्रचार एवं प्रसार में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। घटना को चित्रात्मक व सचिवता प्रदान करना इनके भाषायी कौशल का महत्वपूर्ण गुण था।
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