स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण – प्राचीन भारत के निवासियों ने अपने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेष छोड़े है।
प्राचीन काल के पत्थर के मंदिर , दक्षिण भारत में और ईंटों के विहार पूर्वी भारत में आज भी देखने को मिलते हैं।
प्राचीन भवनों के अधिकांश अवशेष सारे देश में बिखरे अनेकानेक टिलों के नीचे दबे हुए हैं।
‘ टीला ‘ धरती की सतह के उस उभरे हुए भाग को कहते हैं जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष रहते हैं।
टीला कई प्रकार का हो सकता है, जैसे – एकल – संस्कृतिक , मुख्य – संस्कृतिक और बहु – संस्कृतिक।
एकल – संस्कृतिक टीलों में सर्वत्र एक ही संस्कृति दिखाई देती है।
मुख्य – संस्कृतिक टीलों में एक संस्कृति की प्रधानता रहती है और अन्य संस्कृतियां विशेष महत्त्व की नहीं होती।
बहु – संस्कृतिक टीलों में उत्तरोत्तर अनेक संस्कृतियाँ पायी जाती है जो कभी – कभी एक दूसरे के साथ – साथ चलती है।
टीले की खुदाई दो तरह से की जा सकती है – लंबवत और क्षैतिज रूप में।
अधिकांश स्थलों की खुदाई लंबवत होने के कारण उनसे हमें भौतिक संस्कृति का अच्छा खासा कालानुक्रमिक सिलसिला मिल जाता है।
क्षैतिज खुदाईयां खर्चीली होने के कारण बहुत काम की गई है। फलत: उत्खननों से प्राचीन भारतीय इतिहास की अनेक अवस्थाओं के भौतिक जीवन का पूर्ण और समग्र चित्र नहीं मिल पाता है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
सूखी जलवायु के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश , राजस्थान और पश्चिमोत्तर भारत के पुरावशेष अधिक सुरक्षित बने रहे। परंतु , मध्य गंगा घाटी और डेल्टाई क्षेत्रों की नम और आर्द्र जलवायु में लोहे के औजार भी संक्षारित हो जाते है और मिट्टी से बने भवनों के अवशषों का नजर आना कठिन हो गया।
नम और जलोढ़ क्षेत्रों में तो पक्की ईटों और पत्थर के भवनों के काल में आकर ही हमे उत्कृष्ट और प्रचुर अवशेष मिले है।
पश्चिमोत्तर भारत में हुए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चला है जिनकी स्थापना लगभग 2500 ईसा पूर्व में हुई थी।
उत्खननों से हमें गंगा की घाटी में विकसित भौतिक संस्कृति के बारे में जानकारी मिलती है। इससे बस्तियों के प्रकार और उनका विन्यास , मृदभांड के उपयोग , घरों के प्रकार , भोजन में प्रयुक्त अनाज , औजारों एवं हथियारों के उपयोग आदि का पता चलता है।
दक्षिण भारत में कुछ लोग मृत व्यक्तियों के शव के साथ औजार , हथियार , मिट्टी के बर्तन आदि चीजें कब्र में रखकर इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर देते थे। ऐसे स्मारकों को ‘ महापाषाण ‘ कहते हैं।
महापाषणों की खुदाई करने से हमें जानकारी मिलती है कि लौह युग की शुरुआत होने पर दक्कन के लोग किस प्रकार का जीवन व्यतीत करते थे। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत उत्खनन किया जाता है और प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है उसे ‘ पुरातत्व ‘ कहते हैं |
रेडियो कार्बन विधि से यह पता लगाया जाता है कि उत्खनन से प्राप्त भौतिक अवशेष किस काल के हैं।
काल – निर्धारण का आधार यह सिद्धांत है कि कार्बन सभी प्राणवान वस्तुओं में विद्यमान है। जब कोई वस्तु निस्प्राण हो जाती है तब वह C14 नामक एक खास प्रकार के कार्बन की नई खुराक लेना बंद कर देती है। लेकिन इसमें विद्यमान C14 के क्षय की प्रक्रिया समान गति से जारी रहती है। किसी प्राचीन वस्तु में विद्यमान C14 में आई कमी को माप कर उसके समय का निर्धारण किया जा सकता है।
पौधों के अवशेषों का प्रशिक्षण कर विशेषतः पराग कणों के विश्लेषण द्वारा जलवायु और वनस्पति का इतिहास जाना जाता है। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि राजस्थान और कश्मीर में कृषि का प्रचलन लगभग 7000 – 6000 ईसा पूर्व में भी था।
पशुओं की हड्डियों का परीक्षण कर हम यह पता लगते हैं कि क्या वे पशु पालतू थे और उनसे क्या-क्या काम लिए जाते थे। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
सिक्के
सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र ( न्यूमिस्मेटिक्स ) कहते है। पुराने समय में सिक्के तांबे , चांदी , सोने और सीसे के बनते थे।
पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के सांचे बड़ी संख्या में मिले हैं। इनमें से अधिकांश सांचे कुषाण काल के अर्थात ईसा की आरंभिक तीन सदियों के हैं। गुप्तोत्तर काल में ये सांचे लगभग लुप्त हो गए।
प्राचीन काल में लोग अपना पैसा मिट्टी और काँसे के बर्तन में जमा रखते थे। ऐसी अनेक निधियाँ देश के अनेक भागों में मिली है जिनमे न केवल भारतीय सिक्के हैं बल्कि रोमन साम्राज्य जैसे विदेशी टकसालों में ढाले गए सिक्के भी हैं।
ये निधियाँ अधिकतर कलकत्ता , पटना , लखनऊ , दिल्ली , जयपुर , मुंबई और मद्रास के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।
कलकत्ता के ‘ इंडियन म्यूजियम ‘ और लंदन के ‘ ब्रिटिश म्यूजियम ‘ में प्रमुख भारतीय राजवंशों के सिक्कों की सूचियां उपलब्ध हैं। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
प्रारंभिक सिक्कों पर कुछेक प्रतीक मिलते हैं , परंतु बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथियां भी उल्लेखित मिलती हैं।
प्राप्त सिक्कों के आधार पर कई राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव हुआ है , जिनमें प्रमुख है ‘ हिंद – यवन ‘ का राज्य।
‘ हिन्द – यवन ‘ उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान से भारत पहुंचे और जिन्होंने ईसा – पूर्व दूसरी और पहली सदियों में यहां शासन किया।
सिक्कों का काम खरीद – बिक्री , दान – दक्षिणा और वेतन – मजदूरी के भुगतान में पड़ता था , इसलिए सिक्कों से आर्थिक इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है।
राजाओं से अनुमति प्राप्त कर व्यापारियों और स्वर्णकारों की श्रेणियों ( व्यापारिक संघों ) ने भी अपने कुछ सिक्के चलाए थे। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
सिक्कों के सहारे बड़ी मात्रा में लेन – देन संभव हुआ और इससे व्यापार को बढ़ावा मिला।
सबसे अधिक सिक्के मोर्योत्तर कालों में मिले हैं जो विशेषत: सीसे , पोटिन , तांबे , काँसे , चांदी और सोने के हैं।
सबसे अधिक सोने के सिक्के गुप्त शासको ने जारी किए।
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि मोर्योत्तर और गुप्तकाल के अधिकांश काल में व्यापार – वाणिज्य काफी फला – फूला था। इसके विपरीत गुप्तोत्तर काल के बहुत कम सिक्के मिले हैं , इससे यह प्रकट होता है कि उन दिनों व्यापार वाणिज्य नीचे गिरा था।
सिक्के तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश डालते हैं क्योंकि सिक्कों पर राजवंशों और देवताओं के चित्र , धार्मिक प्रतीक और लेख अंकित रहते थे। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
अभिलेख
अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र ( एपिग्रफी ) कहते हैं।
अभिलेखों तथा दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र ( पेलिॲग्रेफी ) कहते हैं।
अभिलेख मुहरों , स्तूपों , चट्टानों , प्रस्तरस्तंभों ,ताम्रपत्रों , मंदिरों की दीवारों और ईंटों या मूर्तियों पर मिलते है।
संपूर्ण देश में आरंभिक अभिलेख पत्थरों पर खुदे मिलते हैं। किंतु ईशा के प्रारंभिक शतकों में इस काम में ताम्रपत्रों का प्रयोग शुरू हुआ।
सबसे अधिक अभिलेख मैसूर में मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय में संग्रहीत हैं।
आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में है और यह ईसा पूर्व तीसरी सदी के हैं। अभिलेखों में संस्कृत भाषा का उपयोग ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगता है।
चौथी – पांचवी सदी में संस्कृत का सर्वत्र व्यापक प्रयोग अभिलेखों में होने लगा। तब भी प्राकृत का प्रयोग समाप्त नहीं हुआ। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग नौवीं – दसवीं सदी से होने लगा।
मौर्य , मोर्योत्तर और गुप्त काल के अधिकांश अभिलेख ‘ कार्पस इन्सक्रिप्शनम इंडिकेरम ‘ नामक ग्रंथ माला में संकलित करके प्रकाशित किए गए है।
सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं। जो लगभग 2500 ईसा पूर्व के हैं तथा जिनके पढ़ना अब तक संभव नहीं हुआ हैं।
हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख ऐसी किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं जिसमे विचारों और वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता था।
सबसे पुराने अभिलेख जो पढ़े जा चुके हैं वे ईसा पूर्व तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख हैं।
फिरोजशाह तुगलक को अशोक के दो स्तंभलेख मिले थे। एक मेरठ से और दूसरा हरियाणा के टोपरा नामक स्थान से। उसने इन्हें दिल्ली मंगवाया। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 ईस्वी में जेम्स प्रिन्सेप को सफलता मिली , जो उस समय बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में थे।
अशोक के ज्यादातर शिलालेख ब्राह्मी लिपि में हैं लेकिन कुछ अभिलेखों में खरोष्ठी ,यूनानी और आरामाइका ( पाकिस्तान और अफगानिस्तान के शिलालेखों में ) लिपियों का भी प्रयोग हुआ हैं।
गुप्तकाल के अंत तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी ही रही।
अभिलेखों के अनेक प्रकार हैं –
कुछ अभिलेखों में अधिकारियों और जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक , धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों और निर्णयों की सूचनाएं रहती थी। अशोक के शिलालेख इसी कोटि के हैं।
दूसरी कोटि में वे अनुष्ठानिक अभिलेख आते हैं जिन्हें बौद्ध , जैन , वैष्णव , शैव आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों ने भक्तिभाव से स्थापित स्तंभों , प्रस्तरफलकों , मंदिरों और प्रतिमाओं पर उत्क्रीर्ण कराया है।
तीसरी कोटि में वे प्रशस्तियाँ आती हैं जिनमें राजाओं और विजेताओं के गुणों और कीर्तियों का बखान है। इनमें उनकी पराजयों और कमजोरियों का कोई जिक्र नहीं है। समुद्रगुप्त की प्रयाग – प्रशस्ति इसी कोटि का उदाहरण है।
बहुत सारे दान – पत्र भी मिलते हैं जिनमें न केवल राजाओं और राजपुत्रों द्वारा बल्कि शिल्पियों और व्यापारियों द्वारा मुख्यतः धर्मार्थ पैसा , मवेशी , भूमि आदि के विशिष्ट दान अभिलिखित हैं।
राजा और सामंतों द्वारा किए गए भूमिदान के अभिलेख विशेष महत्व के हैं , क्योंकि इनसे प्राचीन भारत की भू – व्यवस्था और प्रशासन के बारे में उपयोगी सूचनाएं मिलती हैं। ये अभिलेख अधिकतर ताम्रपत्रों पर उकेरे गए हैं।
ये अभिलेख विभिन्न भाषाओं में लिखे मिलते हैं , जैसे प्राकृत , संस्कृत , तमिल , तेलुगू आदि। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
साहित्यिक स्त्रोत
2500 ईसा पूर्व में भी प्राचीन भारत के लोगों की लिपि का ज्ञान था।
हमारे प्राचीनतम उपलब्ध हस्तलिपियां ईसा की चौथी सदी के पहले कि नहीं है और ये मध्य एशिया से प्राप्त हुई है।
भारत में पाण्डुलिपियाँ , ‘ भोजपत्रों ‘ और ‘ तालपत्रों ‘ पर लिखी मिलती हैं , परंतु मध्य एशिया में ये पाण्डुलिपियाँ ‘ मेषचर्म ‘ तथा ‘ काष्ठफलकों ‘ पर लिखी गई है।
समूचे भारत में संस्कृत की पुरानी पाण्डुलिपियाँ मिली हैं , परंतु इनमें से अधिकतर दक्षिण भारत , कश्मीर और नेपाल से प्राप्त हुई हैं।
अधिकांश प्राचीन ग्रंथ धार्मिक विषयों पर हैं।
हिन्दुओं के धार्मिक साहित्य में वेद , रामायण , महाभारत , पुराण आदि आते है। यह साहित्य प्राचीन भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति पर काफी प्रकाश डालता है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
ऋग्वेद को 1500 – 1000 ईसा पूर्व के लगभग का मान सकते हैं लेकिन अथर्ववेद , यजुर्वेद , सामवेद , ब्राह्मणों , आरण्यक और उपनिषदों को 1000 – 500 ईसा पूर्व के लगभग का माना जाएगा।
प्रायः अभी वैदिक ग्रंथों में क्षेपक मिलता है जो सामान्यतः आदि या अंत में रहता है। हालांकि , ग्रंथ के बीच में भी क्षेपक का पाया जाना कोई असाधारण बात नहीं है।
ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियां हैं , परंतु बाद के वैदिक साहित्य में स्तुतियों के साथ-साथ कर्मकांड , जादूटोना और पौराणिक आख्यान भी हैं।
उपनिषदों में हमें दार्शनिक चिंतन मिलते हैं।
वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आए इसके लिए वेदंगों अर्थात वेद के अंगभूत शास्त्रों की रचना की गई। वेदांगों की संख्या 6 है। ये वेदांग हैं शिक्षा ( उच्चारण – विधि ) , कल्प ( कर्मकांड ) , व्याकरण , निरुक्त ( भाषाविज्ञान ) , छन्द और ज्योतिष।
वेदांग गद्य में सूत्र रूप में लिखे गए हैं। संक्षिप्त होने के कारण ये सूत्र कहलाते हैं। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
सूत्रलेखन का सबसे विख्यात उदाहरण है पाणिनि का व्याकरण जो 400 ईसा पूर्व के आस – पास लिखा गया था।
व्याकरण के नियमों का उदाहरण देने के क्रम में पाणिनि ने अपने समय के समाज , अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर अमूल्य प्रकाश डाला है।
महाभारत , रामायण और प्रमुख पुराणों का अंतिम रूप से संकलन 400 ई के आसपास हुआ प्रतीत होता है।
व्यास रचित ‘ महाभारत ‘ संभवत: दसवीं सदी ईसा पूर्व से चौथी सदी ईस्वी तक की स्थिति का आभास देता है। पहले इसमें केवल 8800 श्लोक थे और इसका नाम जय था जिसका अर्थ है विजय संबंधी संग्रह ग्रंथ। ‘ जय – संहिता ‘ जिसमें श्लोकों की संख्या बाद में बढ़कर 24000 श्लोक हो गए ‘ भरत ‘ नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इसमें प्राचीनतम वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा है। अंतत: इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तदनुसार यह ‘ शतसहस्री संहिता ‘ या ‘ महाभारत ‘ कहलाने लगा।
महाभारत की मूल कथा कौरवों और पांडवों के युद्ध की है जो उत्तर वैदिक काल की हो सकती है।
वाल्मीकि रामायण में मूलत: 6000 श्लोक थे , जो बढ़कर 12000 और अंततः 24000 श्लोक हो गए।
रामायण , महाभारत की अपेक्षा अधिक ठोस है , यद्यपि इसमें भी कुछ ऐसे उपदेशात्मक भाग है जो बाद में जोड़ दिए गए हैं। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
रामायण की रचना संभवतः ईसा पूर्व पांचवी सदी में शुरू हुई , तब से यह पांच अवस्थाओं से गुजर चुकी है और इसकी पांचवी अवस्था तो ईसा की 12वीं सदी में आई है। कुल मिलाकर इसकी रचना महाभारत के बाद हुई प्रतीत होती है।
वैदिक काल के बाद कर्मकांड – साहित्य की भरमार मिलती है।
श्रौतसूत्र में अनुष्ठेय सार्वजनिक यज्ञों के विधि – विधान, राज्याभिषेक के अनुष्ठान आदि वर्णित हैं।
गृहसूत्र में जातकर्म ( जन्मानुष्ठान ) , नामकरण , उपनयन , विवाह , श्राद्ध आदि घरेलू या , पारिवारिक अनुष्ठानों का विधि विधान पाया जाता है।
शल्व सूत्र में यज्ञवेदी के निर्माण के लिए विविध प्रकार के मापों का विधान है। ज्यामिति और गणित का अध्ययन इसी से आरंभ होता है।
श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र दोनों ईसा पूर्व 600 – 300 के आसपास के हैं।
प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ ‘ पालि ‘ भाषा में है। यह भाषा मगध यानी दक्षिण बिहार में बोली जाती थी। इन ग्रंथो को अंततः ईसा पूर्व दूसरी सदी में श्रीलंका में संकलित किया गया। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
बौद्धों के धार्मिकेतर साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण और रोचक है गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएं जो ‘ जातक ‘ कहलाती हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि गौतम के रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध 550 से भी अधिक पूर्व जन्मों से गुजरे थे और इनमें से कई जन्मों में उन्होंने पशु के जीवन पाए थे।
‘ जातक ‘ कथाएं एक प्रकार की लोक – कथा है जो ईसा पूर्व पांचवी सदी से दूसरी सदी तक सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर बहुमूल्य प्रकाश डालते हैं। ये कथाएं बुद्धकालीन राजनीतिक घटनाओं की भी जानकारी देती है।
जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। ईसा की छठी सदी में गुजरात के वल्लभी नगर में इन्हें अंतिम रूप से संकलित किया गया है।
जैन ग्रंथों से हमें महावीर कालीन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है।
जैन ग्रंथों में व्यापार और व्यापारियों के उल्लेख बार – बार मिलते हैं। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
‘ धर्मसूत्र ‘ और ‘ स्मृतियों ‘ को सम्मिलित रूप से ‘ धर्मशास्त्र ‘ कहा जाता है।
धर्मसूत्रों का संकलन 500 – 200 ईसा पूर्व में हुआ था। ‘ श्रौतसूत्रों ‘ और ‘ गृह्यसूत्रों ‘ के साथ ये ‘ कल्पसूत्र ‘ कहलाते हैं।
मुख्य स्मृतियां ईसा की आरंभिक 6 सदियों में संहिताबद्ध की गई। इनमें विभिन्न वर्णों , राजाओं और पदाधिकारियों के कर्तव्यों का विधान किया गया है। इनमें संपत्ति के अर्जन , विक्रय और उत्तराधिकार के नियम सहित विवाह के विधान भी दिए गए हैं , तथा चोरी , हमला , हत्या , व्यभिचार आदि के लिए दंड विधान किया गया है।
कौटिल्य का ‘ अर्थशास्त्र ‘ एक महत्वपूर्ण विधिग्रंथ है। यह 15 अधिकरणों या खंडों में विभक्त है जिनमें दूसरा और तीसरा अधिक पुराने है।
अर्थशास्त्र को वर्तमान स्वरूप शासन ईसा सन के आरंभ में दिया गया परंतु इसके प्राचीनतम अंश मौर्यकालीन समाज और अर्थतंत्र की झलक देते हैं। इसमें प्राचीन भारतीय राज्यतंत्र तथा अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
कालिदास ने काव्य और नाटक लिखे , जिनमें सबसे प्रसिद्ध है ‘ अभिज्ञानशाकुंतलम ‘। कालिदास की महान सर्जनात्मक कृतियों में गुप्तकालीन उत्तरी और मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की भी झलक मिलती है।
प्राचीनतम तमिल ग्रंथ ‘ संगम – साहित्य ‘ में संकलित है। राजाओं द्वारा संरक्षित विद्या – केंद्रों में एकत्र होकर कवियों और भाटो ने तीन-चार सदियों में इस साहित्य का सृजन किया था। ऐसी साहित्यिक सभा को ‘ संगम ‘ कहते थे , इसलिए समूचा साहित्य संगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
संगम साहित्य की कृतियों का संकलन ईसा की आरंभिक चार सदियों में हुआ , हालाँकि इनका अंतिम संकलन छठी सदी में हुआ प्रतीत होता है।
संगम साहित्य में पद्य 30000 पंक्तियों में है , जो 8 एट्टात्तोकै अर्थात संकलनों में विभक्त है।
पद्य सौ – सौ के समूहों में संगृहीत है , जैसे पुरनानूरु ( बाहर के चार शतक ) आदि।
मुख्य समूह दो है – ‘ पटिनेडिकल पट्टिनेनकील कणक्कु ‘ ( 18 निम्न संग्रह ) और ‘ पत्त पाट्ट ‘ ( 10 गीत )। पहला दूसरे से पुराना माना जाता है , इसलिए लौकिक ऐतिहासिक के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
संगम ग्रंथ बहुतस्तरीय हैं , परन्तु संप्रति शैली और विषय – वस्तु के आधार पर उनका स्तर – निर्धारण नहीं किया जा सकता है।
संगम ग्रंथ वैदिक ग्रंथों से , खासकर ऋग्वेद से , भिन्न प्रकार के हैं। ये धार्मिक ग्रंथ नहीं है। इनके मुक्तकों और प्रबंधकाव्यों की रचना बहुत -सारे कवियों ने की है , जिनमे बहुत से नायकों और नायिकाओं की प्रशंसा है। इस प्रकार , ये धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के हैं।
संगम – साहित्य आदिम कालीन गीत नहीं है , बल्कि इनमें परिष्कृत साहित्य का दर्शन होता है। अनेक काव्यों में योद्धा , सामंत या राजा के नाम का उल्लेख करके उनके वीरतापूर्ण कार्यों का से सविस्तार वर्णन किया गया है।
संगम – काव्य की तुलना होमर – युग के वीरगाथा काव्यों से की जा सकती है , क्योंकि इनमें भी युद्धों और योद्धाओं के युग का चित्रण है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
संगम ग्रंथों का उपयोग ऐतिहासिक प्रयोजन के लिए करना आसान नहीं है क्योंकि इनमें उल्लिखित व्यक्तिवाचक नाम , उपाधि , वंश , क्षेत्र , युद्ध आदि आंशिक रूप से ही यथार्थ है।
संगम – ग्रंथों में उल्लेखित चेर राजाओं के नाम दानकर्ता के रूप में ईसा की पहली और दूसरी सदी के दानपत्रों में भी आए हैं।
संगम ग्रंथों में उल्लेखित ‘ कावेरीपटट्नम ‘ का समृद्धिपूर्ण अस्तित्व पुरातात्विक साक्ष्य से समर्थित हुआ है। इनमें यह भी बताया गया है कि यमन लोग अपने -अपने पोतों पर आते , सोना देकर गोल मिर्च खरीदते और स्थानीय लोगों को सुरा और दासियाँ पहुंचाते थे।
ईसा की आरंभिक सदियों में प्रायद्वीपीय तमिलनाडु के लोगों के सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक जीवन के अध्ययन के लिए संगम साहित्य हमारा एकमात्र प्रमुख स्रोत है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
विदेशी विवरण
विदेशी विवरणों को देशी साहित्य का अनुपूरक बनाया जा सकता है।
भारतीय स्रोतों में सिकंदर के हमले की कोई जानकारी नहीं मिलती। उसके भारतीय कारनामों के इतिहास का पुनर्निर्माण के लिए हमें पूर्णत: यूनानी स्रोतों पर आश्रित रहना पड़ता है।
यूनानी लेखकों ने 326 ईसा पूर्व में भारत पर हमला करने वाले सिकंदर महान के एक समकालीन ‘ सन्द्रोकोत्तस ‘ के नाम का उल्लेख किया है।
यह सिद्ध हो चुका है की यूनानी विवरणों का यह है ‘ सन्द्रोकोत्तस ‘ और चंद्रगुप्त मौर्य जिनके राज्यरोहण की तिथि 322 ईसा पूर्व निर्धारित की गई है , एक ही व्यक्ति थे।
चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत बनकर आए मेगस्थनीज की ‘ इंडिका ‘ उन उद्धरणों के रूप में ही सुरक्षित है जो अनेक प्रख्यात लेखकों की रचनाओं में आए हैं।
लेखकों के उद्धरणों को एक साथ मिलकर पढ़ने पर न केवल मौर्य शासन व्यवस्था के बारे में ही बल्कि मौर्य कालीन सामाजिक वर्गों और आर्थिक क्रियाकलापों के बारे में भी मूल्यवान जानकारी मिलती है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
ईसा की पहली और दूसरी सदियों में यूनानी और रोमन विवरणों में भारतीय बंदरगाहों के उल्लेख मिलते हैं। इसमें भारत और रोमन साम्राज्य के बीच होने वाले व्यापार की वस्तुओं के बारे में भी जानकारी है।
यूनानी भाषा में लिखी ‘ टोलमी की भूगोल ‘ और ‘ पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथ्रियन सी ‘ नमक पुस्तकों में भी प्राचीन भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
‘ पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथ्रियन सी ‘ 80 ईस्वी से 115 ईस्वी के बीच एक अज्ञात लेखक ने लिखी जिसमें लाल सागर , फारस की खाड़ी और हिंद महासागर में होने वाले रोम व्यापार का वृतांत है। ‘ टोलेमी की भूगोल ‘ 150 ई के आस – पास की है।
प्लिनी की ‘ नेचुरलिस हिस्टोरिका ‘ ईसा की पहली सदी की है। यह लैटिन भाषा में है और हमें भारत और इटली के बीच होने वाले व्यापार की जानकारी देती है।
चीनी पर्यटकों में प्रमुख है – फा- हियान और ह्वेनसांग। दोनों बौद्ध थे और बौद्ध तीर्थ का दर्शन करने व बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत आए थे।
फा – हियान ईसा की पांचवी सदी के प्रारंभ में आया था जबकि ह्वेनसांग सातवीं सदी के दूसरे चतुर्थांश में।
फा – हियान ने गुप्तकालीन भारत की सामाजिक , धार्मिक और आर्थिक स्थितियों की जानकारी दी है , तो ह्वेन सांग ने हर्ष कालीन भारत की। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
ऐतिहासिक दृष्टि
प्राचीन भारतीयों पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनमें ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव था।
हमें पुराणों में एक प्रकार का इतिहास मिलता है। पुराणों की संख्या 18 है।
विषय वस्तु की दृष्टि से पुराण विश्वकोश जैसे हैं , इनमें गुप्त काल के आरंभ तक का राजवंशी इतिहास आया है।
पुराणों में चार युग बताए गए हैं – कृत , त्रेता , द्वापर और काली।
इनमें हर युग अपने पिछले युग से अधम बताया गया है और कहा गया है कि एक युग के बाद जब दूसरा युग आरंभ होता है तब नैतिक मूल्यों और सामाजिक मानदंडों का अध:पतन होता है।
विक्रम संवत का आरंभ 57 ईसा पूर्व में हुआ , शक संवत का 78 ईसा में और गुप्त संवत का 319 ईसा में।
तीसरी सदी ईसा पूर्व के दौरान अशोक के शिलालेखों में काफी ऐतिहासिक दृष्टि लक्षित होती है।
अशोक ने 37 वर्ष राज किया। उसके शिलालेखों में उसके राज्य काल के आठवे से लेकर 27वें वर्ष तक की घटनाएं वर्णित है।
अभी तक अशोक के जो शिलालेख मिले हैं उनसे उनके राज्यकाल के केवल नौ वर्षों की घटनाओं का पता चलता है।
ईशा की पहली सदी में कलिंग के खारवेल ने हाथी गुफा अभिलेख में अपने जीवन की बहुत सी घटनाओं का जिक्र वर्षवार किया है।
बाणभट्ट ने ‘ हर्षचरित्र ‘ की रचना ईसा की सातवीं सदी में की। इसमें हर्षवर्धन के आरंभिक जीवन का वृतांत है। अत्युक्तियों की भरमार होते हुए भी यह हर्ष के दरबार की चहल-पहल और अपने युग के सामाजिक और धार्मिक जीवन का विलक्षण आभास देता है।
12वीं सदी के संध्याकर नंदी ने ‘ रामचरित ‘ लिखा जिसमें कैवर्त्त जाति के किसानों और पाल वंश के राजा रामपाल के संघर्ष का वर्णन है। इसमें रामपाल विजयी हुआ।
विल्हण के ‘ विक्रमांकदेवचरित्र ‘ में कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य पंचम के पराक्रमों का वृतांत है।
11वीं सदी में अतुल ने ‘ मूषिकवंश ‘ की रचना की जिसमें मूषिक राजवंश का वृतांत है। जिसका शासन उत्तरी केरल में था।
आरंभिक ऐतिहासिक लेखन का सबसे अच्छा उदाहरण है राजतरंगिणी। इसकी रचना कल्हण ने 12वीं शताब्दी में की। यह कश्मीर के राजाओं के चरित्र का संग्रह है। दरअसल यह पहली कृति है जिसमें आज के अर्थ में इतिहास के बहुत कुछ लक्षण विद्यमान है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
इतिहास का निर्माण
प्राचीन इतिहास के काल के 150 से भी अधिक स्थलों की खुदाई हो चुकी है।
प्राचीन इतिहास अभी तक मुख्यतः देसी या विदेशी साहित्यिक स्रोतों के आधार पर ही रचा गया है। सिक्कों और अभिलेखों की कुछ भूमिका अवश्य रही है , किंतु अधिक महत्व ग्रंथों को ही दिया गया है।
हमें एक ओर वैदिक युग और दूसरी ओर ‘ चित्रित धूसर मृदभांड ‘ पुरातत्व के बीच परस्परिक संबंध स्थापित करना है। इसी तरह आरंभिक पालि ग्रंथों का संबंध ‘ उत्तरी काला पालिशदार मृदभांड ‘ पुरातत्व के साथ जोड़ना होगा।
पुराणों में दी गयी लंबी – लंबी वंशावलियों की अपेक्षा पुरातात्विक साक्ष्य को कहीं अधिक मूल्य दिया जाना चाहिए।
पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार, अयोध्या के राम का कल 2000 ईसा पूर्व के आस – पास भले ही मान लें , पर अयोध्या में की गई खुदाई और व्यापक छानबीन से तो यही सिद्ध होता है कि उस काल के आस-पास वहां कोई बस्ती नहीं थी।
पौराणिक अनुश्रुतियों की अपेक्षा अभिलेख निश्चय ही अधिक विश्वसनीय है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
पूरालेखीय आधार पर सातवाहनों का आरंभ कल ईसा पूर्व पहली सदी है।
अभिलेखीय अनुदान पत्रों का महत्व – वंशावलियों और विजयों की जानकारी, नए राज्यों के उदय की जानकारी ,सामाजिक और कृषि भूमि व्यवस्था में परिवर्तन की जानकारी , विशेषत: गुप्त उत्तर काल में।
सिक्कों के आधार पर हिंद – यवनों , शकों , सातवाहनों और कुषाणों के इतिहास का पुनर्निर्माण हुआ है। साथ ही, इससे व्यापार और नगर जीवन की जानकारी मिलती है। स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
MCQ
प्रश्न 1 – धरती की सतह का उभरा हुए भाग , जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष रहते हैं –
उत्तर – टीला
प्रश्न 2 – टीला कई प्रकार का हो सकता है जैसे –
उत्तर – एकल – संस्कृतिक , मुख्य – संस्कृतिक और बहु – संस्कृतिक
प्रश्न 3 – जिस टीले में सर्वत्र एक ही संस्कृति दिखाई देती है , उसे कहते है –
उत्तर – एकल – संस्कृतिक टीला
प्रश्न 4 – जिस टीले में एक संस्कृति की प्रधानता रहती है और अन्य संस्कृतियां विशेष महत्त्व की नहीं होती, उसे कहते है –
उत्तर – मुख्य – संस्कृतिक टीला
प्रश्न 5 – टीले की खुदाई दो तरह से की जा सकती है –
उत्तर – लंबवत और क्षैतिज रूप में
प्रश्न 6 – दक्षिण भारत में कुछ लोग मृत व्यक्तियों के शव के साथ औजार , हथियार , मिट्टी के बर्तन आदि चीजें कब्र में रखकर इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर देते थे। ऐसे स्मारकों को कहते हैं –
उत्तर – महापाषाण
प्रश्न 7 – जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत उत्खनन किया जाता है और प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है उसे कहते हैं –
उत्तर – पुरातत्व
प्रश्न 8 – किस विधि से यह पता लगाया जाता है कि उत्खनन से प्राप्त भौतिक अवशेष किस काल के हैं ?
उत्तर – रेडियो कार्बन विधि
प्रश्न 9 – सिक्कों के अध्ययन को कहते है –
उत्तर – मुद्राशास्त्र ( न्यूमिस्मेटिक्स )
प्रश्न 10 – सबसे अधिक सिक्के मिले हैं –
उत्तर – मोर्योत्तर कालों में
प्रश्न 11 – सबसे अधिक सोने के सिक्के जारी किए –
उत्तर – गुप्त शासको ने
प्रश्न 12 – अभिलेखों के अध्ययन को कहते हैं –
उत्तर – पुरालेखशास्त्र ( एपिग्रफी )
प्रश्न 13 – अभिलेखों तथा दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को कहते हैं –
उत्तर – पुरालिपिशास्त्र ( पेलिॲग्रेफी )
प्रश्न 14 – सबसे अधिक अभिलेख संग्रहीत हैं –
उत्तर – मैसूर में मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय में
प्रश्न 15 – आरंभिक अभिलेख किस भाषा में पाए जाते है ?
उत्तर – प्राकृत
प्रश्न 16 – अभिलेखों में संस्कृत भाषा का उपयोग किस सदी से मिलने लगता है ?
उत्तर – ईसा की दूसरी सदी से
प्रश्न 17 – अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग होने लगा –
उत्तर – नौवीं – दसवीं सदी से
प्रश्न 18 – ‘ कार्पस इन्सक्रिप्शनम इंडिकेरम ‘ नामक ग्रंथ माला में किसका संकलन प्रकाशित किया गया है ?
उत्तर – अधिकांश अभिलेखों का
प्रश्न 19 – अशोक के शिलालेख की लिपि है –
उत्तर – ब्राह्मी लिपि
प्रश्न 20 – सबसे पुराने अभिलेख मिलते हैं –
उत्तर – हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर
प्रश्न 21 – अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम सफलता मिली –
उत्तर – 1837 ईस्वी में जेम्स प्रिन्सेप को
प्रश्न 22 – गुप्तकाल के अंत तक देश की प्रमुख लिपि रही –
उत्तर – ब्राह्मी
प्रश्न 23 – अधिकांश प्राचीन ग्रंथ हैं –
उत्तर – धार्मिक विषयों पर
प्रश्न 24 – उपनिषदों में हमें मिलते हैं –
उत्तर – दार्शनिक चिंतन
प्रश्न 25 – वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आए इसके लिए रचना की गई –
उत्तर – वेदंगों अर्थात वेद के अंगभूत शास्त्रों की
प्रश्न 26 – वेदांगों की संख्या है –
उत्तर – 6
प्रश्न 27 – प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ किस भाषा में है ?
उत्तर – पालि
प्रश्न 28 – गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएं कहलाती हैं –
उत्तर – जातक
प्रश्न 29 – जैन ग्रंथों की रचना किस भाषा में हुई थी ?
उत्तर – प्राकृत
प्रश्न 30 – ‘ धर्मसूत्र ‘ और ‘ स्मृतियों ‘ को सम्मिलित रूप से कहा जाता है –
उत्तर – धर्मशास्त्र
प्रश्न 31 – धर्मसूत्रों का संकलन हुआ था –
उत्तर – 500 – 200 ईसा पूर्व में
प्रश्न 32 – अर्थशास्त्र नामक विधिग्रंथ के रचनाकार है –
उत्तर – कौटिल्य
प्रश्न 33 – अभिज्ञानशाकुंतलम नामक नाटक के लेखक कौन है ?
उत्तर – कालिदास
प्रश्न 34 – प्राचीनतम तमिल ग्रंथ संकलित है –
उत्तर – संगम – साहित्य में
प्रश्न 35 – संगम – काव्य की तुलना की जा सकती है –
उत्तर – होमर – युग के वीरगाथा काव्यों से
प्रश्न 36 – संगम ग्रंथों में उल्लेखित किस नगर का समृद्धिपूर्ण अस्तित्व पुरातात्विक साक्ष्य से समर्थित हुआ है ?
उत्तर – कावेरीपटट्नम
प्रश्न 37 – सिकंदर का भारत पर हमला हुआ था –
उत्तर – 326 ईसा पूर्व में
प्रश्न 38 – सिकंदर के समकालीन के रूप में सन्द्रोकोत्तस के नाम का उल्लेख क्या है। किस भारतीय सम्राट से सन्द्रोकोत्तस की साम्यता स्थापित की जाती है ?
उत्तर – चंद्रगुप्त मौर्य
प्रश्न 39 – मेगास्थनीज किस सम्राट के दरबार में दूत बनकर आया था ?
उत्तर – चंद्रगुप्त मौर्य
प्रश्न 40 – ईसा की प्रथम सदी की पुस्तक नेचुरलिस हिस्टोरिका के लेखक कौन है ?
उत्तर – प्लिनी
प्रश्न 41 – फा – हियान भारत में आया था –
उत्तर – ईसा की पांचवी सदी के प्रारंभ में
प्रश्न 42 – पुराणों की संख्या है –
उत्तर – 18
प्रश्न 43 – पुराणों में चार युग बताए गए हैं –
उत्तर – कृत , त्रेता , द्वापर और काली
प्रश्न 44 – विक्रम संवत का आरंभ माना जाता है –
उत्तर – 57 ईसा पूर्व
प्रश्न 45 – शक संवत का प्रारंभ माना जाता है –
उत्तर – 78 ईस्वी से
प्रश्न 46 – गुप्त संवत का प्रारंभ माना जाता है –
उत्तर – 319 ईस्वी से
प्रश्न 47 – हाथी गुफा अभिलेख में अपने जीवन की बहुत सी घटनाओं का जिक्र वर्षवार किया है –
उत्तर – कलिंग के खारवेल ने
प्रश्न 48 – ‘ हर्षचरित्र ‘ की रचना ईसा की सातवीं सदी में की –
उत्तर – बाणभट्ट ने
प्रश्न 49 – हर्षवर्धन के आरंभिक जीवन का वृतांत मिलता है –
उत्तर – हर्षचरित्र में
प्रश्न 50 – कैवर्त्त जाति के किसानों और पाल वंश के राजा रामपाल के संघर्ष का वर्णन रामचरित में मिलता है। रामचरित के रचनाकार कौन है ?
उत्तर – संध्याकर नंदी
प्रश्न 51 – विक्रमांकदेवचरित्र के रचनाकार कौन है ?
उत्तर – विल्हण
प्रश्न 52 – ‘ मूषिकवंश ‘ नामक कृति की रचना किसने की ?
उत्तर – अतुल ने
प्रश्न 53 – ‘ राजतरंगिणी ‘ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के रचयिता कौन है ?
उत्तर – कल्हण