ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ – नवपाषाण युग का अंत होते-होते धातुओं का इस्तेमाल शुरू हो गया। सबसे पहले तांबे का प्रयोग हुआ।
कई संस्कृतियों का उद्भव पत्थर और तांबे के उपकरणों का साथ – साथ प्रयोग करने के कारण हुआ। इन संस्कृतियों को ताम्रपाषाणिक ( कैल्कोलिथिक ) कहते हैं , जिसका अर्थ है पत्थर और तांबे के उपयोग की अवस्था।
तकनीकी दृष्टि से ताम्रपाषाण अवस्था का प्रयोग हड़प्पा से पहले की संस्कृतियों के लिए होता है। परंतु देश के कई भागों में ताम्रपाषाण सभ्यता का उदय हड़प्पा सभ्यता ( जो कांसे का प्रयोग करते थे ) के अंत के बाद हुआ।
ताम्रपाषाण युग के लोग अधिकांशत: पत्थर और तांबे की वस्तुओं का प्रयोग करते थे , किंतु कभी-कभी वह निम्न किस्म के कांसे का प्रयोग भी करते थे।
ये लोग मुख्यतः ग्रामीण समुदाय बना कर रहते थे और देश के ऐसे विशाल भागों में फैले थे जहां पहाड़ी जमीन और नदियां थी। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
भारत में ताम्रपाषाण अवस्था की बस्तियां दक्षिण – पूर्वी राजस्थान , मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग , पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण – पूर्वी भारत में पाई गई है।
दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान में दो स्थलों की खुदाई हुई – एक ‘ अहर ‘ और दूसरा ‘ गिलुंद ‘ में। ये स्थल बनारस घाटी के सूखे अंचलों में है।
पश्चिम मध्य प्रदेश में मालवा , कयथा और एरण स्थलों की खुदाई हुई है। मध्य और पश्चिम भारत की मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति की एक विलक्षणता है- ‘ मालवा मृदभांड ‘ जो ताम्रपाषाणिक मृदभांडों में उत्कृष्टतम माना गया है।
सबसे विस्तृत उत्खनन पश्चिमी महाराष्ट्र में हुआ है जिनमें प्रमुख है अहमदनगर जिले में जोरवे , नेवासा और दैमाबाद , पुणे जिले में चंदौली , सोनगाँव और इनामगाँव , प्रकाश और नासिक। ये सभी स्थल जोरवे संस्कृति के हैं। जोरवे गोदावरी नदी की सहायक ‘ प्रवरा ‘ के बाएं तट पर अवस्थित हैं।
ईसा – पूर्व 1400 – 700 के आसपास की जोरवे संस्कृति विदर्भ के कुछ भाग को तथा कोंकण के तट – प्रदेश को छोड़ सारे महाराष्ट्र में फैली थी।
यद्यपि जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी , फिर भी इसकी कई बस्तियां जैसे दैमाबाद और इनामगाँव नगरीकरण के स्तर तक पहुंच – सी गई थी।
नवादाटोली नर्मदा के तट पर है। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
कई ताम्रपाषाण स्थल इलाहाबाद जिले के विंध्य क्षेत्र में पाए गए हैं। पूर्वी भारत में, गंगातटवर्ती चिरांद के अलावा , वर्धमान जिले के पांडु राजार , ढ़िबी और पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में महिशाल उल्लेखनीय है।
कुछ और पुरास्थलों की खुदाई हुई है , जिनमें प्रमुख है – सोनपुर , सेनोर और ताराडीह ( सभी बिहार में है ) एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘ खेडाडीह ‘ और ‘ नरहान ‘।
इस संस्कृति के लोग पत्थर के छोटे-छोटे औजारों और हथियारों का इस्तेमाल करते थे , जिनमें पत्थर के फलकों और फलकियों का महत्वपूर्ण स्थान था।
खासकर दक्षिण भारत में , प्रस्तर – फलक उद्योग का विकास हुआ और पत्थर की कुल्हाड़ी का भी प्रयोग होता रहा।
राजस्थान की बनारस घाटी के शुष्क इलाके में स्थित ‘ अहार ‘ और ‘ गिलुंड ‘ में तांबे की वस्तुएं बहुतायत में मिली है। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
अन्यान्य समकालिक ताम्रपाषाणिक कृषक संस्कृतियों के विपरीत , अहार में सूक्ष्म – पाषाण औजारों का इस्तेमाल नहीं होता था। यहां पत्थर की कुल्हाड़ियों या फलकों का लगभग अभाव ही है।
‘ अहार ‘ की खुदाई में कई सपाट कुल्हाड़ियाँ , चूड़ियां और कई चादरें मिली है जो सभी तांबे की हैं हालांकि एक चादर कांसे की भी पाई गई है।
‘ अहार ‘ के लोग शुरू से ही धातुकर्म जानते थे। ‘ अहार ‘ का प्राचीन नाम ‘ तांबवती ‘ अर्थात तांबा वाली जगह है। अहार संस्कृति का काल 2100 ईसा पूर्व और 1500 ईसा पूर्व के बीच रखा जा सकता है।
‘ गिलुंद ‘ अहार संस्कृति का स्थानीय केंद्र माना जाता है। गिलुंद में तांबे के टुकड़े ही मिलते है। यहां एक प्रस्तर – फलक उद्योग पाया गया है।
महाराष्ट्र के जोरवे और चंदौली में सपाट आयताकार ताम्र – कुठार पाए गए हैं और चंदौली में तांबे की छेनी भी मिली है।
ताम्रपाषाण काल के लोग ‘ काले व लाल रंग ‘ के मृदभांडों का प्रयोग करते थे। इनका प्रयोग लगभग 2000 ईसा पूर्व से व्यापक तौर पर होता आया है। ये चाकों पर बनते थे और कभी-कभी इन पर सफेद रैखिक आकृतियां बनी रहती थी। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
महाराष्ट्र , मध्य प्रदेश और बिहार में रहने वाले लोग ‘ टोंटी वाले जलपात्र ‘ , ‘ गोड़ीदार तश्तरियाँ ‘ और ‘ गोड़ीदार कटोरे ‘ बनाते थे।
ऐसा समझना गलत होगा कि काले व लाल मृदभांड का उपयोग करने वाले सभी लोग एक ही संस्कृति के हैं।
ताम्रपाषाण युग के लोग मवेशी पालते और खेती करते थे। वे गाय , भेड़ , बकरी , सूअर और भैंस रखते थे , और हिरण का शिकार करते थे।
ऊंट के भी अवशेष मिले हैं। परंतु , वे लोग घोड़े से परिचित नहीं थे। कुछ अवशेषों की पहचान घोड़े या गधे या जंगली गधे के अंग के रूप में की गई है।
लोग गोमांस तो अवश्य खाते थे , किंतु सुअर का मांस अधिक नहीं खाते थे।
ये लोग गेहूं , बाजरा ,चावल , मसूर , मूंग ,उड़द , मटर और कई दलहन पैदा करते थे। लगभग ये सभी अनाज महाराष्ट्र में नर्मदा नदी के तट पर स्थित नवदाटोली में भी पाए गए हैं। भारत के अन्य किसी भी स्थान में खुदाई के परिणाम स्वरूप इतने सारे अनाज नहीं मिले हैं।
नवदाटोली के लोग बेर और आलसी भी उपजाते थे। दकन की काली मिटटी में कपास की पैदावार होती थी। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
पूर्वी भारत में , बिहार और पश्चिम बंगाल में मछली पकड़ने के कांटे मिले हैं , जहां हम चावल भी पाते है। इससे मालूम होता है कि पूर्वी भाग में ताम्र – पाषाणिक लोगों का आहार मछली और चावल था।
ताम्रपाषाण युग के लोग प्राय: पकी ईटों से परिचित नहीं थे , जिनका इस्तेमाल कभी-कभी ही होता था , जैसे गिलुंद में 1500 ईसा पूर्व के आसपास।
अहार के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे। अब तक पता चले 200 जोरवे स्थलों में गोदावरी का दैमाबाद सबसे बड़ा है।
दैमाबाद की किलेबंदी कच्ची दीवार से की गई थी। इसकी ख्याति भारी संख्या में कांसे की वस्तुओं की प्राप्ति के लिए है। इनमें से कुछ वस्तुओं पर हड़प्पा संस्कृति का प्रभाव लक्षित होता है।
पश्चिम महाराष्ट्र में आरंभिक ताम्र-पाषाण अवस्था के इनामगांव स्थल से चूल्हों सहित बड़े-बड़े कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गढ्डों वाले मकान मिले हैं। बाद की अवस्था (1300 -1000 ईसा पूर्व ) में पांच कमरों वाला एक मकान मिला है जिसमें चार कमरे आयताकार और एक वृत्ताकार।
इनामगांव के कोठार भी मिले हैं। यहां पर 100 से भी अधिक घर और कई कब्रें पाई गई हैं। यह बस्ती किलाबंद है और खाई से घिरी हुई है। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
ताम्रपाषाण युग के लोग तांबे के शिल्प – कर्म में दक्ष थे और पत्थर का काम भी अच्छा करते थे।
वे लोग कताई और बनाई जानते थे क्योंकि मालवा में चरखे और तकलियां मिली हैं। महाराष्ट्र में कपास , सन और सेमल की रुई से बने धागे भी मिले हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वे लोग वस्त्र – निर्माण से सुपरिचित थे।
इनामगांव से कुंभकार , धातुकार , हाथी दांत के शिल्पी , चूना बनाने वाले , मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्ति बनाने वाले आदि के प्रमाण मिले हैं।
तिथिक्रम से देखे तो मालवा और मध्य भारत की कई बस्तियां , जैसे कयथा व एरण पहले की प्रतीत होती है , जबकि पश्चिमी महाराष्ट्र और पूर्वी भारत की बस्तियां बहुत बाद की।
महाराष्ट्र के लोग मृतक को कलश में रख कर अपने घर के फर्श के अंदर उत्तर – दक्षिण स्थिति में गाड़ते थे।
मिटटी की स्त्री मूर्तियों से प्रतीत होता है कि ताम्रपाषाण युग के लोग मातृ – देवी की पूजा करते थे। कई कच्ची मिट्टी की नग्न मूर्तियां भी पूजी जाती थी। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
इनामगांव में मातृदेवी की एक प्रतिमा मिली है जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली प्रतिमा से मिलती है।
मालवा और राजस्थान में मिली रूढ़ शैली की वृषभ – मूर्तिकाएं ( मिटटी की ) यह सूचित करती है कि वृषभ ( सांड ) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
बस्ती के ढांचों और शव – संस्कार – विधि दोनों से पता चलता है कि ताम्रपाषण समाज में असमानता आरंभ हो चुकी थी।
इनामगांव में शिल्पी या पंसारी लोग पश्चिमी छोर पर रहते थे जबकि सरदार प्रायः केंद्रीय स्थल में रहता था।
पश्चिम महाराष्ट्र की चंदौली और नेवासा बस्तियों में पाया गया है कि कुछ बच्चों को उनके गालों में तांबे के मनको का हार पहनाकर दफनाया गया है , जबकि कुछ बच्चों की कब्रों में कुछ बर्तन मात्र ही हैं।
इनामगांव में एक वयस्क व्यक्ति मृदभांडों और कुछ तांबे के साथ दफनाया गया है। कयथा के एक घर में तांबे के 29 कंगन और दो अद्वितीय ढंग की कुल्हाड़ियाँ पाई गई हैं। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
तिथि क्रम की दृष्टि से राजस्थान में खेत्री ताम्र – पट्टी के निकट गणेश्वर स्थल विशेष उल्लेखनीय है। इस क्षेत्र में खुदाई में निकली तांबे की वस्तुएं हैं – तीर के नोक , बरछे के फल , सेल्ट , बंसियाँ , कंगन , छेनी आदि। इनमें से कुछ की आकृतियां सिंधु स्थलों में मिली इन वस्तुओं की आकृतियों से मिलती है। पकी मिटटी की एक पिंडिका मिली है जो सिंधु – टाइप से मिलती-जुलती है।
यहां गैरिक मृदभांड भी पाया गया है। यह एक लाल रंग से अनुलेपित भांड है जो अक्सर काले रंग से रंगा गया है और मुख्यतः कलश की शक्लों में होता है।
गणेश्वर के जमाव को 2800 – 2200 ईसा पूर्व का माना जाता है , इसलिए इसकी बहुत – सी वस्तुएं परिपक्व हड़प्पा संस्कृति से पूर्व की है।
गणेश्वर मुख्यतः हड़प्पा को तांबे की वस्तुओं की आपूर्ति करता था परंतु बदले में कुछ खास तत्व प्राप्त नहीं किया।
गणेश्वर के लोग अंशतः कृषि – जीवी और मुख्यतः शिकार – जीवी थे। यद्यपि उनका मुख्य शिल्प तांबे की वस्तुएं बनाना था तथापि वैसे नगरीय तत्वों को विकसित नहीं कर पाए जो हड़प्पा – अर्थव्यवस्था में दिखाई देते हैं।
गणेश्वर को वास्तविक गैरिक मृदभांड ताम्र – निधि – संस्कृति नहीं माना जा सकता। इसकी सूक्ष्म पाषाण वस्तुओं तथा अन्य पाषाण उपकरणों को देखते हुए गणेश्वर को प्राक हड़प्पाई ताम्रपाषाण संस्कृति कहा जा सकता है , जिसकी भित्ति पर हड़प्पा संस्कृति का विकास हुआ है। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
राजस्थान के कालीबंगा और हरियाणा की बनावाली की प्राक – हड़प्पीय अवस्था स्पष्टत: ताम्रपाषाणिक है। यही बात पाकिस्तान के सिंध प्रांत के कोटदीजी स्थल के बारे में भी है।
कयथा संस्कृति ( लगभग 2000 -1800 ईसा पूर्व ) हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन है। इसके मृदभांडों में कुछ प्राक – हड़प्पीय लक्षण है , पर साथ ही इस पर हड़प्पाई प्रभाव भी दिखाई देता है।
नवदाटोली , एरण और नगदा में पाई गई मालवा संस्कृति ( 1700 -1200 ईसा पूर्व ) हड़प्पा संस्कृति से पृथक मानी जाती है।
जोरवे संस्कृति ( 1400 -700 ईसा पूर्व ) जो अंशत: विदर्भ और कोकण को छोड़ सारे महाराष्ट्र में फैली हुई थी वह भी हड़प्पा संस्कृति से पृथक है।
देश के दक्षिणी और पूर्वी भागों में ताम्रपाषाण बस्तियां हड़प्पा संस्कृति से स्वतंत्र रही है।
कई प्रकार की प्राक – हड़प्पीय ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ सिंध , बलूचिस्तान , राजस्थान आदि प्रदेशों में कृषक समुदायों के प्रसार में प्रेरक हुई और हड़प्पा नगर – सभ्यता के उदय के लिए अनुकूल अवसर बनाया। इस प्रसंग में सिंध के उमरी और कोटदीजी तथा राजस्थान के कालीबंगा और गणेश्वर का नाम लिया जा सकता है।
भारत के मध्य और पश्चिमी भागों में ताम्रपाषण संस्कृतियाँ 1200 ईसा पूर्व में लुप्त हो गई। केवल जोरवे संस्कृति 700 ईसा पूर्व तक जीवित रही। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
देश के कई भागों में ताम्रपाषाण युगीन काले – व – लाल मृदभांड बनाना ऐतिहासिक काल में भी ईसा पूर्व दूसरी सदी तक जारी रहा।
पश्चिमी भारत और पश्चिम मध्य प्रदेश में ताम्रपाषाण बस्तियों के लुप्त होने का कारण लगभग 1200 ईसा पूर्व के बाद से वर्षा की मात्रा का घटना माना जाता है। परंतु , पश्चिम बंगाल और मध्य गंगा क्षेत्र में ये बस्तियाँ लंबे समय तक चलती रही।
लाल मिट्टी वाले क्षेत्रों में , खासकर पूर्वी भारत में ताम्रपाषाण अवस्था के तुरंत बाद, बिना किसी अंतराल के, लौह -अवस्था का आगमन हो गया और उसने धीरे-धीरे लोगों को पूरा कृषिजीवी बना दिया।
दक्षिणी भारत की कई स्थलों पर ताम्रपाषाण संस्कृति ने लोहे का इस्तेमाल करने वाली महापाषाण संस्कृति का रूप ले लिया ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
ताम्रपाषाण अवस्था का महत्व
जलोढ़ मिट्टी वाले मैदाने और घने जंगल वाले क्षेत्रों को छोड़ प्राय: देश भर में ताम्रपाषाण संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं।
सामान्यतः ताम्रपाषाणिक लोगों ने अधिकतर नदी – तटों पर पहाड़ियों से कम दूरी पर गाँव बसाए।
इस अवस्था के अधिकतर लोग तांबे को पिघलाने की कला जानते थे। पर मध्य – गंगा क्षेत्र में तांबे के औजार बहुत कम मिले है।
लगभग सभी ताम्रपाषाण समुदाय चाकों पर बने काले – व – लाल मृदभांडों का प्रयोग करते थे।
चित्रित मृदभांडों का सबसे पहले इस्तेमाल करने वाले ताम्रपाषाण अवस्था के ही लोग थे। ये लोग लोटा और थाली दोनों का प्रयोग करते थे।
दक्षिण भारत में नवपाषाण अवस्था अलक्षित रूप से ही ताम्रपाषाण अवस्था में परिणत हो गई ,अतः इन संस्कृतियों को नवपाषणीय ताम्रपाषाण संस्कृति कहते हैं। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
पश्चिम महाराष्ट्र और राजस्थान में ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग बाहर से आकर बसे प्रतीत होते हैं। उनकी सबसे पुरानी बस्तियाँ मालवा और मध्य भारत में थी जैसे ‘ कयथा ‘ और ‘ एरण ‘ की बस्तियाँ। पश्चिम महाराष्ट्र की बस्तियाँ बाद की मालूम प्रतीत होती है। पश्चिम बंगाल की बस्तियाँ तो और भी बहुत बाद में बसी हैं।
सर्वप्रथम ताम्रपाषण लोगों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में बड़े-बड़े गाँव बसाए और नवपाषाण लोगों से कहीं अधिक अनाज उपजाया।
पश्चिमी भारत में वे जौ , गेहूँ और मूंग तथा दक्षिणी और पूर्वी भारत में चावल पैदा करते थे।
पश्चिम भारत में पशुओं का मांस अधिक चलता था , पर पूर्वी भारत के भोजन में मछली और चावल का प्रमुख स्थान था।
मध्य प्रदेश में ‘ कायथा ‘ और ‘ एरण ‘ की और पश्चिमी महाराष्ट्र में ‘ इनामगाँव ‘ की बस्तियां किलाबंद हैं।
महाराष्ट्र में मृतक उत्तर – दक्षिण की दिशा में गाड़े जाते थे जबकि दक्षिण भारत में ‘ पूर्व – पश्चिम ‘ दिशा में।
पश्चिमी भारत में लगभग ‘ संपूर्ण शवाधान ‘ ( एक्सटेंडेड बरिअल ) प्रचलित था , जबकि पूर्वी भारत में ‘ आंशिक शवाधान ‘ ( फ्रेक्शनल बरिअल ) समाधान चलता था। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
ताम्रपाषाण संस्कृतियों की दुर्बलताएँ
ताम्र पाषाण युग के लोग मवेशी ( भेड़ / बकरी ) पालते थे और उन्हें अपने आंगन में ही बांधकर रखते थे। शायद वे पशुपालन मांस के लिए करते थे , दूध पीने और अन्य दुग्ध उत्पादों के लिए नहीं।
कई जनजातियों के लोग जैसे बस्तर के गोंड मानते है कि पशुओं का दूध केवल पशुओं के बच्चों के लिए है अतः वे इसे दुहते नहीं हैं। इस कारण ताम्रपाषण युग के लोग पशुओं से पूरा फायदा नहीं उठा सके।
ताम्रपाषाण युग के जो लोग मध्य और पश्चिमी भारत के काली कपास – मिट्टी वाले क्षेत्र में रहते थे , मुख्यतः झूम की खेती करते थे।
पश्चिम महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में दफनाए गए बच्चों के शवाधानों से ताम्रपाषाण संस्कृतियों की आम दुर्बलता प्रकट होती है। बच्चों के मरने की दर बहुत ऊंची थी , पोषाहार की कमी , चिकित्सा के ज्ञान का अभाव या महामारी का प्रकोप इसका कारण हो सकता है।
ताम्रपाषाण संस्कृति मुख्यतः ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खड़ी थी।
लोग तांबे में टिन को मिश्रित करके काँसा बनाना नहीं जानते थे जो तांबे से अधिक मजबूत और उपयोगी होता है।
ताम्रपाषाण युग के लोग लिखने की कला नहीं जानते थे और न ही वे नगरों में रहते थे , जबकि कांस्य युग के लोग नगरवासी हो गए थे।
अधिकांश ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ उम्र में सिंधु घाटी सभ्यता के बाद की है। फिर भी ये संस्कृतियाँ सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के उन्नत तकनीकी ज्ञान से कोई ठोस फायदा नहीं उठा पाई। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
ताम्र – निधियाँ और गैरिक मृदभांड अवस्था
अभी तक 40 से भी अधिक ताम्र – निधियां ( ताम्र उपकरणों के जखीरे ) प्राप्त हुई है। सबसे बड़ी निधि मध्य प्रदेश में ‘ गुंगेरिया ‘ से प्राप्त हुई है। इसमें 424 तांबे के औजार और हथियार तथा 102 चांदी के पतले पत्तर हैं।
ताम्र – निधियों में से लगभग आधी गंगा – यमुना दोआब में केंद्रित है।
अधिकांश गैरिक मृदभांड स्थल दोआब के ऊपरी हिस्से में पड़ते हैं , लेकिन छिटपुट ताम्र – निधियाँ बिहार और अन्य प्रदेशों के पठार क्षेत्रों में मिली है।
गैरिक मृदभांड संस्कृति का काल आठ वैज्ञानिक तिथि निर्धारणों के आधार पर मोटे तौर पर 2000 ईसा पूर्व और 1500 ईसा पूर्व के बीच रखा जा सकता है।
जब गैरिक मृदभांड बस्तियां समाप्त हुई उस समय से लगभग 1000 ईसा पूर्व तक दोआब में कोई खास बस्तियां नहीं दिखाई देती। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
दोआब के ऊपरी भाग में गैरिक मृदभांड वाले लोगों के उदय के साथ ही बस्तियां आरंभ होती हैं।
हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर अवस्थित जोधपुर में गैरिक मृदभांड का सबसे मोटा जमाव देखा गया है जो 1.1 मीटर है।
ताम्र – पाषाण बस्तियों की समाप्ति के लिए यह सुझाव दिया जाता है कि बाढ़ आने और उसके बाद जल – जमाव हो जाने के कारण वह इलाका निवास के लिए अनुपयुक्त हो गया।
गैरिक मृदभांड वाले लोग हड़प्पाई लोगों के कनिष्ठ समकालीन थे और वे जिस गैरिक मृदभांड वाले क्षेत्रों में रहते थे वह हड़प्पाई के क्षेत्र से बहुत दूर नहीं है। अतः इनके बीच कुछ आदान-प्रदान का अनुमान सहज ही कर सकते हैं। ताम्रपाषण कृषक संस्कृतियाँ
MCQ
प्रश्न 1 – सबसे पहले किस धातु का प्रयोग हुआ ?
उत्तर – तांबा
प्रश्न 2 – कई संस्कृतियों का उद्भव पत्थर और तांबे के उपकरणों का साथ – साथ प्रयोग करने के कारण हुआ। इन संस्कृतियों को कहते हैं –
उत्तर – ताम्रपाषाणिक ( कैल्कोलिथिक )
प्रश्न 3 – नवादाटोली स्थित है –
उत्तर – नर्मदा के तट पर
प्रश्न 4 – अहार का प्राचीन नाम है –
उत्तर – तांबवती
प्रश्न 5 – अहार संस्कृति का स्थानीय केंद्र माना जाता है –
उत्तर – गिलुंद
प्रश्न 6 – ताम्रपाषाण काल के लोग मृदभांडों का प्रयोग करते थे –
उत्तर – काले व लाल रंग के
प्रश्न 7 – पूर्वी भाग में ताम्र – पाषाणिक लोगों का आहार था –
उत्तर – मछली और चावल
प्रश्न 8 – ताम्रपाषाण युग के लोग दक्ष थे –
उत्तर – तांबे के शिल्प – कर्म में
प्रश्न 9 – महाराष्ट्र के लोग मृतक को कलश में रख कर अपने घर के फर्श के अंदर गाड़ते थे –
उत्तर – उत्तर – दक्षिण स्थिति में
प्रश्न 10 – किस ताम्रपाषाणिक स्थान से मातृदेवी की एक प्रतिमा मिली है जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली प्रतिमा से मिलती है ?
उत्तर – इनामगांव
प्रश्न 11 – मुख्यतः हड़प्पा को तांबे की वस्तुओं की आपूर्ति करता था –
उत्तर – गणेश्वर
प्रश्न 12 – भारत के मध्य और पश्चिमी भागों में ताम्रपाषण संस्कृतियाँ लुप्त हो गई –
उत्तर – 1200 ईसा पूर्व में
प्रश्न 13 – चित्रित मृदभांडों का सबसे पहले इस्तेमाल करने वाले लोग थे –
उत्तर – ताम्रपाषाण अवस्था के
प्रश्न 14 – सर्वप्रथम प्रायद्वीपीय भारत में बड़े-बड़े गाँव बसाए और नवपाषाण लोगों से कहीं अधिक अनाज उपजाया –
उत्तर – ताम्रपाषण लोगों ने
प्रश्न 15 – दक्षिण भारत में मृतक गाड़े जाते थे –
उत्तर – ‘ पूर्व – पश्चिम ‘ दिशा में
प्रश्न 16 – पश्चिमी भारत में शवाधान प्रचलित था –
उत्तर – संपूर्ण
प्रश्न 17 – पूर्वी भारत में शवाधान प्रचलित था –
उत्तर – आंशिक
प्रश्न 18 – ताम्रपाषाण युग के जो लोग मध्य और पश्चिमी भारत के काली कपास – मिट्टी वाले क्षेत्र में रहते थे , मुख्यतः खेती करते थे –
उत्तर – झूम
प्रश्न 19 – ताम्रपाषाण संस्कृति मुख्यतः खड़ी थी –
उत्तर – ग्रामीण पृष्ठभूमि पर
प्रश्न 20 – ताम्रपाषाण युग के लोग नहीं जानते थे –
उत्तर – लिखने की कला
प्रश्न 21 – ताम्र – निधियों में से लगभग आधी केंद्रित है –
उत्तर – गंगा – यमुना दोआब में
प्रश्न 22 – गैरिक मृदभांड संस्कृति का काल आठ वैज्ञानिक तिथि निर्धारणों के आधार पर मोटे तौर पर रखा जा सकता है –
उत्तर – 2000 ईसा पूर्व और 1500 ईसा पूर्व के बीच
प्रश्न 23 – अहार और गिलुंड नमक ताम्रपाषाणिक स्थल किस राज्य में स्थित है ?
उत्तर – राजस्थान
प्रश्न 24 – महाराष्ट्र का वह स्थल जहां से पांच कमरों वाला एक मकान मिला है जिसमे चार कमरे आयताकार तथा एक कमरा वृताकार था ?
उत्तर – इनामगांव
प्रश्न 25 – ताम्रपाषाण युग के लोग अधिकांशत: वस्तुओं का प्रयोग करते थे –
उत्तर – पत्थर और तांबे की
प्रश्न 26 – गोदावरी नदी की सहायक ‘ प्रवरा ‘ के बाएं तट पर अवस्थित हैं –
उत्तर – जोरवे
प्रश्न 27 – ताम्रपाषाणिक मृदभांडों में उत्कृष्टतम माना गया है –
उत्तर – मालवा मृदभांड
प्रश्न 28 – अन्यान्य समकालिक ताम्रपाषाणिक कृषक संस्कृतियों के विपरीत , सूक्ष्म – पाषाण औजारों का इस्तेमाल नहीं होता था –
उत्तर – अहार में