आर्यों का आगमन और ऋग्वैदिक युग
ऋग्वैदिक युग – यह कहना कठिन है कि सभी प्रारंभिक आर्य एक ही नस्ल के थे , परंतु उनकी संस्कृति करीब – करीब एक जैसी ही थी।
आर्य लोग हिन्द – यूरोपीय परिवार की भाषाएं बोलते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों का मूल निवास दक्षिण – पूर्वी रूस और मध्य एशिया के बीच में कहीं था।
कुछ पशुओं जैसे कुत्ता , बकरी , घोड़ा आदि तथा कुछ वनस्पतियों जैसे – भूर्ज , मैपिल आदि के नाम हिन्द – यूरोपीय भाषाओं में समान रूप से पाए जाते हैं।
आर्यजन नदियों और वनों से परिचित थे।
आर्यों का प्रारंभिक जीवन मुख्यतः पशुचारी था , कृषि का स्थान गौण था।
आर्यों के समाज में पुरुष की प्रधानता थी। ऋग्वैदिक युग
आर्यो ने कई प्रकार के पशुओं का इस्तेमाल किया लेकिन उनके जीवन में घोड़े का महत्व सर्वाधिक था।
पालतू घोड़े पहली बार ईसा पूर्व छठी सहस्त्राब्दि में काला सागर और यूराल पर्वत के क्षेत्र में प्रयोग किये गए। इसकी तेज रफ्तार ने लगभग 2000 ईसा पूर्व के बाद लोगो को अलग – अलग दिशाओं में जाने में सहायता दी।
भारत आगमन के क्रम में आर्य लोग सर्वप्रथम मध्य एशिया और ईरान पहुंचे।
भारत में आर्यों की जानकारी ऋग्वेद से मिलती है , जो हिन्द – यूरोपीय भाषाओं का सबसे प्राचीन ग्रंथ है।
ऋग्वेद में ‘ आर्य ‘ शब्द का उल्लेख 36 बार हुआ है जो सामान्यतः एक सांस्कृतिक समुदाय को इंगित करता है।
ऋग्वेद में अग्नि , इंद्र , वरुण , मित्र आदि देवताओं की स्तुतियां संगृहीत हैं जिनकी रचना विभिन्न गोत्रों के ऋषियों एवं कवियों ने की है। इसमें 10 मंडल या भाग हैं , जिनमें 2 से 7 मंडल प्राचीनतम है। प्रथम और दशम मंडल सबसे बाद में जोड़े गए मालूम होते हैं। ऋग्वैदिक युग
ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ ‘ अवेस्ता ‘ और ऋग्वेद में बहुत सी चीजें समान है। दोनों ग्रंथ अनेक देवताओं एवं सामाजिक वर्गों के लिए समान नाम का प्रयोग करते हैं।
हिन्द – यूरोपीय भाषा का प्राचीनतम नमूना 2200 ईसा पूर्व में इराक से प्राप्त एक अभिलेख में मिलता है। आगे चलकर इस प्रकार के नमूने 19वीं से 17वीं शताब्दी ईसा – पूर्व में तुर्की के अनातोलिया से प्राप्त ‘ हिट्टाइट अभिलेखों ‘ में मिलते हैं।
इराक में मिले लगभग 1600 ईसा – पूर्व के ‘ कसाइट अभिलेखों ‘ तथा 1400 ईसा – पूर्व सिरिया से प्राप्त ‘ मितन्नी अभिलेखों ‘ में आर्यों के नाम का उल्लेख है। इस प्रकार का कोई अभिलेख भारत में नहीं मिलता।
भारत में आर्य भाषाभाषियों का आगमन 1500 ईसा – पूर्व से कुछ पहले हुआ।
शायद वे लोग छेदवाली कुल्हाड़ियों , कांसे के कटारों और खड्गों का प्रयोग करते थे। ये हथियार पश्चिमोत्तर भारत से मिले हैं।
आरंभिक आयोग का निवास स्थान पूर्वी अफगानिस्तान , पाकिस्तान और भारत के पंजाब तथा हरियाणा में था। ऋग्वैदिक युग
ऋग्वेद में अफगानिस्तान की ‘ कुभा ‘ आदि कुछ नदियों तथा सिंधु और उसकी सहायक पांच नदियों का उल्लेख है।
सिंधु आर्यों की सबसे प्रमुख नदी थी जिसका उन्होंने बार-बार उल्लेख किया गया है।
ऋग्वेद में दूसरी नदी ‘ सरस्वती ‘ को ‘ नदीतम ‘ अर्थात सर्वश्रेष्ट नदी कहा गया है। इसकी पहचान हरियाणा और राजस्थान में घग्घर तथा हाकरा के सूखे स्रोतों से की जाती है। परंतु ऋग्वेद में इस नदी के वर्णन से पता चलता है कि यह अवेस्ता में उल्लेखित दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में बहने वाली आधुनिक हेलमंद नदी है।
आर्य लोग जहां पहली बार बसे वह सारा प्रदेश सप्तसिंधु ( सात नदियों का देश ) कहलाया। इसमें अफगानिस्तान का भाग भी पड़ता था।
भारत में आर्य कई खेपों में आए। सबसे पहले की खेप में ऋग्वैदिक आर्य 1500 ईसा – पूर्व के आसपास इस उपमहाद्वीप में आए। उनका दास , दस्यु आदि स्थानीय लोगों से संघर्ष हुआ।
चूँकि दास जनों का उल्लेख प्राचीन ईरानी साहित्य में भी मिलता है अतः प्रतीत होता है कि वह पूर्ववर्ती आर्यों की ही एक शाखा थी। ऋग्वैदिक युग
ऋग्वेद में वर्णन है कि भरत वंश के एक राजा ‘ दिवोदास ‘ ने ‘ शंबर ‘ को हराया।
ऋग्वेद में जो दस्यु कहे गए हैं वे संभवत: इस देश के मूल निवासी थे और आर्यो के जिस राजा ने उन्हें पराजित किया वह त्रसदस्यु कहलाया।
आर्यों का राजा दासों के प्रति तो कोमल था , परंतु दस्युओं का परम शत्रु था।
ऋग्वेद में दस्युहत्या शब्द का उल्लेख बार-बार मिलता है , पर दासहत्या का नहीं।
दस्यु लोग शायद ‘ लिंगपूजक ‘ थे और दुग्ध उत्पादन के लिए पशुपालन नहीं करते थे। ऋग्वैदिक युग
जनजातीय संघर्ष
इंद्र ने आर्यों के शत्रुओं को बार-बार पराजित किया। ऋग्वेद में इंद्र को ‘ पुरंदर ‘ कहा गया है जिसका अर्थ है दुर्गों को तोड़ने वाला।
आर्य लोग हर जगह जीतते गए क्योंकि उनके पास अश्वचालित रथ थे और उन्होंने ही पश्चिम एशिया और भारत में पहले – पहल इन रथों को प्रचलित किया।
आर्य – सैनिकों के पास शायद कवच और उत्कृष्ट अस्त्र भी थे।
आर्यों को दो तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ा : एक ओर उनकी आर्य – पूर्व जनों से लड़ाई हुई तो दूसरी ओर अपने ही लोगों के बीच। आंतरिक जातीय संघर्षो से आर्य समुदाय दीर्घ काल तक जर्जर रहा।
आर्यों के 5 कबीले , अर्थात जन थे , जिनका समुदाय पांचजन कहलाता था , लेकिन और भी काबिले रहे होंगे।
आर्य लोग आपसी लड़ाई में आर्योत्तर जनों का भी सहारा लेते थे। ऋग्वैदिक युग
भरत और त्रित्सु दोनों आर्यों के शासक – वंश थे। पुरोहित वशिष्ठ इन दोनों वंशों के समर्थक थे।
इस देश का नाम भारतवर्ष भरत कबीले के आधार पर पड़ा। भरत कबीले का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है।
भरत राजवंश का 10 राजाओं के साथ विरोध था जिनमें पांच आर्य -जनों के प्रधान थे और शेष आर्योत्तर जनों के।
भरत और 10 राजाओं के बीच जो लड़ाई हुई वह ‘ दशराज्ञ युद्ध ‘ कहलाता है। यह युद्ध ‘ परुष्णी नदी ‘ के तट पर हुआ , जिसकी पहचान आज की रावी नदी से की जाती है।
दशराज्ञ युद्ध में सुदास की जीत हुई और इस प्रकार भरत कबीले की प्रभुता कायम हुई। पराजित जनों में पुरूजन सबसे महान थे।
कालांतर में भरतों और पुरूओं के बीच मैत्री हो गई और दोनों ने मिलकर एक नया शासक कुल बनाया जो कुरु के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कुरु जनों ने पांचालों के साथ मिलकर उच्च गंगा घाटी में अपना संयुक्त राज्य स्थापित किया। ऋग्वैदिक युग
भौतिक जीवन
भारत में आर्यों की सफलता के कारण थे घोड़े , रथ और संभवत: कांसे के कुछ बेहतर हथियार।
संभवत: आर्यों ने ‘ आरवाला पहिया ‘ भी चलाया जिसका सबसे पहले 2300 ईसा पूर्व में कौकेसस क्षेत्र में प्रयोग हुआ था।
आर्य जब इस उपमहाद्वीप के पश्चिमी भाग में बसे तब उन्हें राजस्थान की खेत्री खानों से तांबा मिलता रहा होगा।
ऋग्वेदिक लोगों को खेती की बेहतर जानकारी थी। ऋग्वेद के प्राचीनतम भाग में फाल का उल्लेख मिलता है , संभवत: यह फाल लकड़ी का रहा होगा।
उन्हें बुआई , कटाई और दावनी का ज्ञान था। विभिन्न ऋतुओं के बारे में भी उन्हें जानकारी थी।
पूर्व – आर्य जनों को भी खेती का अच्छा ज्ञान था। ऋग्वैदिक युग
ऋग्वेद में गाय और सांड कि इतनी चर्चा है कि ऋग्वैदिक आर्यों को मुख्य रूप से पशुचारक कहा जा सकता है।
आर्यों की अधिकांश लड़ाइयां गायों को लेकर हुई। ऋग्वेद में युद्ध को पर्याय ‘ गविष्टि ‘ ( गाय का अन्वेषण ) है। गाय सबसे उत्तम धन मानी जाती थी
पुरोहितों को दी जाने वाली दक्षिणा में आमतौर से गायें और दासियाँ होती थी और भूमि कभी न होती।
ऋग्वैदिक लोग शायद कभी-कभी गायों को चराने , खेती करने और बसने के लिए जमीन पर कब्जा करते होंगे , परंतु भूमि निजी संपत्ति के रूप में स्थापित परंपरा नहीं थी।
ऋग्वेद में बढ़ई , रथकार , बुनकर , चर्मकार , कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं।
तांबे या काँसे के अर्थ में ‘ अयस ‘ शब्द के प्रयोग से प्रकट होता है कि उन्हें धातुकर्म की जानकारी थी।
नियमित व्यापार के अस्तित्व का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। ऋग्वैदिक युग
आर्यजन या वैदिक जन भूमि मार्ग से ज्यादा परिचित थे क्योंकि ऋग्वेद में उल्लेखित समुद्र शब्द मुख्यतः जलराशि का वाचक है।
आर्य लोग शहर में नहीं रहते थे , संभवत: वे किसी – न – किसी तरह के गढ़ बनाकर मिट्टी के घरों वाली बस्तियों में रहते थे।
वे लोग पहाड़ों में स्थित गुफाओं से परिचित थे।
हाल ही में हरियाणा के भगवानपुर और पंजाब के तीन स्थलों की खुदाई हुई है और इन जगहों से उत्तर कालीन हड़प्पाई मृदभांडों के साथ-साथ चित्रित धूसर मृदभांड ( पी जी डब्ल्यू ) पाए गए हैं।
भगवानपुर से प्राप्त वस्तुओं की तिथि 1600 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक रखी गई है और यही मोटे तौर पर ऋग्वेद का भी काल है।
उपयुक्त सभी स्थलों से चित्रित धूसर मृदभांड मिले हैं परंतु लोहे की वस्तु और अनाज का पता नहीं चला है।
भगवानपुर से तेरह कमरों वाला एक मिट्टी का घर प्रकाश में आया है।
भगवानपुर से घोड़े की हड्डियां खुदाई में मिली है। ऋग्वैदिक युग
जनजातीय राज्यव्यवस्था
ऋग्वैदिक काल में आर्यों का प्रशासन – तंत्र कबीले के प्रधान के हाथों में था , क्योंकि वही युद्ध का सफल नेतृत्व करता था। वह ‘ राजन ‘ कहलाता था।
ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वैदिक काल में राजा का पद अनुवांशिक हो चुका था। फिर भी राजन या राजा के हाथ में असीमित अधिकार नहीं था क्योंकि उसे कबायली संगठनों से सलाह लेना पड़ती थी।
कबीले की आम सभा , जो ‘ समिति ‘ कहलाती थी , अपने राजा का चुनाव करती थी।
राजा अपने कबीले का रक्षक था। वह मवेशियों की रक्षा करता था , युद्ध में लड़ता था , और उसकी ओर से देवताओं की प्रार्थना करता था।
ऋग्वेद में कबीलो या कुलों के आधार पर बने बहुत – से संगठनों के उल्लेख मिलते हैं , जैसे सभा , समिति , विदथ , गण। ये संगठन विचार – विमर्श करते थे , तथा सैनिक और धार्मिक कार्य देखते थे।
ऋग्वैदिक काल में महिलाएं भी ‘ सभा ‘ और ‘ विदथ ‘ में भाग लेती थी। ऋग्वैदिक युग
सभा और समिति यह दोनों संगठन इतने महत्वपूर्ण थे कि प्रधान या राजा भी इनका समर्थन प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।
राजा का सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी ‘ पुरोहित ‘ होता था।
ऋग्वेद काल में ‘ वशिष्ठ ‘ और ‘ विश्वामित्र ‘ दो महान पुरोहित थे। वशिष्ठ जहां कट्टर थे वहीं विश्वामित्र उदार थे।
विश्वामित्र ने प्रसिद्ध ‘ गायत्री – मंत्र ‘ की रचना की।
पुरोहित राजा को कर्तव्य का उपदेश देते थे , उनका गुणगान करते थे , और बदले में गायों और दासियों के रूप में प्रचुर दान – दक्षिण पाते थे।
पुरोहित के बाद ‘ सेनानी ‘ का स्थान था जो भाला , कुठार , तलवार आदि शस्त्र चलना जानता था।
हमें कर – संग्रह अधिकारी का पता नहीं चलता। संभवत: प्रजा स्वयं राजा को उसका अंश स्वेच्छा से देती थी उसका नाम ‘ बलि ‘ था। ऋग्वैदिक युग
युद्ध में प्राप्त भेट और लूट की वस्तुएं वैदिक सभा में बाँट दी जाती थी।
ऋग्वेद में किसी तरह के न्याय अधिकारी का उल्लेख नहीं है।
वैदिक समाज कोई आदर्श समाज नहीं था। इसमें चोरी और सेंधमारी होती थी , और गायों की चोरी तो विशेष रूप से होती थी।
समाजविरोधी हरकतों को रोकने के लिए गुप्तचर रखे जाते थे।
अधिकारियों के पदनामों से नहीं लगता कि वे भूभाग पर शासन करते थे। फिर भी लगता है कि कुछ अधिकारी क्षेत्र से जुड़े थे।
चरागाह का अधिकारी ‘ व्रजपति ‘ कहलाता था। वही परिवारों के प्रधानों को, जो ‘ कुलपा ‘ कहलाते थे , अथवा लड़ाकू दलों के प्रधानों को जो ‘ ग्रामणी ‘ कहलाते थे , युद्ध में नेतृत्व प्रदान करता था। ऋग्वैदिक युग
आरंभ में ‘ ग्रामणी ‘ एक छोटी – सी कबायली लड़ाकू टोली का मुखिया होता था। परंतु टोली के स्थानीय हो जाने पर ग्रामणी सारे गांव का मुखिया हो गया और कालांतर में वही ‘ व्रजपति ‘ बन गया।
राजा कोई नियमित या स्थायी सेना नहीं रखता था , लेकिन युद्ध के समय वह एक नागरिक सेना संगठित कर लेता था।
व्रात , गण , ग्राम और सर्ध नाम से विदित विभिन्न कबायली टोलियाँ लड़ाई लड़ती थी।
कुल मिलाकर यह कबायली ढंग का शासन था जिसमें सैनिक तत्व प्रबल था।
इस समय नागरिक शासन या प्रादेशिक प्रशासन जम नहीं पा रहा था क्योंकि लोग निरंतर स्थान बदलते और फैलते जाते थे। ऋग्वैदिक युग
कबीला और परिवार
सामाजिक संगठन का आधार गोत्र या जन्ममूलक था।
व्यक्ति की पहचान उसके कुल से होती थी।
लोगों की प्राथमिक निष्ठा अपने-अपने कबीलों के प्रति थी , जिसे ‘ जन ‘ कहा जाता था।
एक पुरानी रचना में दो जनों की संयुक्त युद्ध क्षमता 21 बताई गई है। इससे पता चलता है कि किसी जन में सदस्यों की कुल संख्या 100 से अधिक नहीं रहती होगी।
ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख लगभग 275 बार हुआ है , परंतु जनपद शब्द का एक बार भी नहीं आया है।
ऋग्वेद में कबीले के अर्थ में दूसरा महत्वपूर्ण शब्द ‘ विश ‘ मिलता है। ऋग्वेद में इसका 170 बार उल्लेख हुआ है।
संभवत: ‘ विश ‘ को लड़ाई के उद्देश्य से ‘ ग्राम ‘ नामक टोलियों में बांटा गया था। ऋग्वैदिक युग
‘ वैश्य ‘ नमक बहुसंख्यक वर्ण का उदय इसी ‘ विश ‘ या कबायली जनसमूह से हुआ है।
ऋग्वेद में परिवार वाचक शब्द ‘ कुल ‘ का प्रयोग विरल है। इसमें केवल माता-पिता , पुत्र , दास आदि ही नहीं आते थे बल्कि और भी बहुत से लोग आते थे।
प्रतीत होता है कि आरंभिक वैदिक अवस्था में परिवार के अर्थ में ‘ गृह ‘ शब्द था , जो ऋग्वेद में बार-बार आया है।
प्राचीनतम हिंद – यूरोपीय भाषाओं में पोते , नाती , भांजे , भतीजे आदि सब के लिए एक ही शब्द था। इसका अर्थ है कि पृथक कुटुंबों की स्थापना की दिशा में पारिवारिक संबंधों का विभेदीकरण बहुत अधिक नहीं हुआ था और कुटुंब एक बड़ी सम्मिलित इकाई था।
रोमन समाज की तरह ऋग्वैदिक समाज भी पितृसत्तात्मक परिवार था जिसमें पिता मुखिया होता था।
परिवार की अनेक पीढियां एक घर में साथ-साथ रहती थी। ऋग्वैदिक युग
निरंतर युद्ध में लगे पितृप्रधान समाज में लोग वीर पुत्रों की प्राप्ति के लिए देवता से प्रार्थना करते थे।
ऋग्वेद में बेटी के लिए कामना व्यक्त नहीं की गई है जबकि प्रजा ( संतान ) और पशु की कामना सूक्तों में बार-बार आई है।
स्त्रियाँ सभा – समितियों में भाग ले सकती थी और पतियों के साथ यज्ञों में आहुतियां दे सकती थी।
सूक्तों की रचना करने वाली पांच महिलाओं के उदाहरण हमे प्राप्त होते हैं हालाँकि बाद के ग्रंथों में ऐसी स्त्रियों की संख्या 20 बताई गई है।
नि:संदेह , सूक्तों की रचना मौखिक होती थी , और उस काल की कोई लेख नहीं मिला है। ऋग्वैदिक युग
विवाह संस्था कायम हो चुकी थी , यद्यपि कुछ आदिम प्रथाओं के अवशेष का भी आभास मिलता है। ‘ यमी ‘ ने अपने जुड़वा भाई ‘ यम ‘ से विवाह का प्रस्ताव रखा था जिसे यम ने अस्वीकार कर दिया था।
बहुपति – प्रथा के भी कुछ संकेत मिलते हैं। उदाहरणार्थ , मरुतों ने रोदसी को मिलाकर भोगा और सूर्य की पुत्री ‘ सूर्या ‘ दो अश्वनी भाइयों के साथ रहती थी। लेकिन , ऐसे उदाहरण अधिक नहीं है।
उस समय हम माता के नाम पर कुछ पुत्रों के नामकरण का उदाहरण भी पाते हैं , जैसे मामतेय।
ऋग्वेद में नियोग – प्रथा और विधवा – विवाह के प्रचलन का भी आभास मिलता है।
बाल – विवाह का कोई उदाहरण प्राप्त नहीं होता। ऋग्वेद काल में 16 – 17 वर्ष की आयु में विवाह होता था। ऋग्वैदिक युग
सामाजिक वर्गीकरण
‘ वर्ण ‘ शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में होता था , और प्रतीत होता है कि आर्य भाषाभाषी गौर वर्ण के थे और मूलवासी काले रंग के।
समाज में वर्गों के सृजन का सबसे मुख्य कारण हुआ प्राचीन वासियों पर आर्यों का आधिपत्य। आर्यों द्वारा जीते गए ‘ दास ‘ और ‘ दस्यु ‘ क्रमश : ‘ गुलाम ‘ और ‘ शूद्र ‘ हो गए।
ऋग्वेद में ‘ आर्य वर्ण ‘ और ‘ दास वर्ण ‘ का उल्लेख है।
धीरे-धीरे कबायली समाज तीन वर्गों में बंट गया – योद्धा , पुरोहित और सामान्य लोग। चौथा वर्ग जो शूद्र कहलाया , ऋग्वेद काल के अंत में प्रकट हुआ , क्योंकि इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दशम मंडल में है , जो सबसे बाद में जोड़ा गया।
पुरोहितों को दक्षिण में मुख्य रूप से ‘ स्त्री दसों ‘ को दिया जाता था जो घरेलू कार्य करती थी। ऋग्वैदिक युग
ऋग्वेद काल में दास प्रत्यक्ष खेती के काम में या अन्य उत्पादनात्मक कार्य में नहीं लगाए जाते थे।
ऋग्वेद के युग में ही व्यवसाय के आधार पर समाज में विभेदीकरण आरंभ हुआ। किंतु उन दिनों यह विभाजन ज्यादा सख्त नहीं था।
ऋग्वेद में किसी परिवार का एक सदस्य कहता है – ” मैं कवि हूं , मेरे पिता वैद्य है और मेरी माता चक्की चलाने वाली है भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं “।
युद्ध में प्राप्त संपत्ति का असमान वितरण होने के कारण समाज में असमानताएं आई और राजाओं तथा पुरोहितों को आगे बढ़ाने में सहायता मिली। ऋग्वैदिक युग
ऋग्वेदी काल में मुख्य आर्थिक आधार पशुचारण था इसलिए प्रजा से नियमपूर्वक कर वसूलने की गुंजाइश बहुत कम थी।
हमें दान में भूमि मिलने का उल्लेख नहीं मिलता , और अन्नदान का भी विरल वर्णन ही मिलता है।
घरेलू दास – दसियों के उल्लेख मिलते हैं लेकिन ‘ मजदूर ‘ का वर्णन नहीं है।
समाज में कबायली तत्व प्रबल थे , तथा कर – संग्रह और भूमि – संपदा के स्वामित्व पर आश्रित सामाजिक वर्गीकरण नहीं हुआ था।
समाज अभी कबायली और बहुत कुछ समतानिष्ठ था। ऋग्वैदिक युग
ऋग्वैदिक देवता
वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों को अपने मन में देहित रूप देकर उन्हें प्राणियों के रूप में देखा और इनमें मानव और पशु के गुण आरोपित किए।
ऋग्वेद में देवताओं की स्तुति में विभिन्न ऋषियों के रचे सूक्त हैं।
ऋग्वेद में सबसे अधिक प्रतापी देवता ‘ इंद्र है ‘ जिन्हें पुरंदर अर्थात किले को तोड़ने वाला कहा गया है।
इंद्र आर्यों के युद्ध नेता के रूप में चित्रित हैं, जिसने असुरों से लड़ने में आर्य – सैनिकों का नेतृत्व किया और उन्हें विजय दिलाई।
इंद्र को 250 सूक्त समर्पित हैं। वह बादल का देवता माना गया है जो वर्षा करता है। ऋग्वैदिक युग
देवताओं में ‘ अग्नि ‘ को दूसरा स्थान प्राप्त है जिसे 200 सूक्त समर्पित है।
वैदिक काल में अग्नि ने देवताओं और मानवों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाई।
देवताओं में तीसरा स्थान ‘ वरुण ‘ का था जो जल का देवता माना गया है। उसे ऋतु अर्थात प्राकृतिक संतुलन का रक्षक कहा गया है और समझा जाता था कि जगत में जो भी घटित होता है वह उसी की इच्छा का परिणाम है।
सोम वनस्पतियों का अधिपति माना गया है और एक मादक रस का नाम उसी के नाम पर पड़ा है।
ऋग्वेद में सोमरस बनाने की विधि बताई गई है। ‘ मरुत ‘ आंधी के देवता थे।
उसे समय कुछ देवियां भी थी , जैसे अदिति और उषा आदि किन्तु ऋग्वेद – काल में देवियों की प्रमुखता नहीं थी। ऋग्वैदिक युग
देवताओं की उपासना की मुख्य रीति थी प्रार्थना करना और यज्ञ – बलि अर्पित करना।
वैदिक काल में स्तुतिपाठ पर अधिक जोर था। स्तुतिपाठ सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों रूप से होता था।
सामान्यतः हर कबीले या गोत्र का अपना अलग देवता होता था।
इंद्र और अग्नि समस्त जन द्वारा दी गई बलि ग्रहण करने के लिए आहूत होते थे। बलि या यज्ञाहुति में शाक , जौ आदि वस्तुएं दी जाती थी।
ऋग्वैदिक काल के लोग आध्यात्मिक उत्थान या जन्म – मृत्यु के कष्टों से मुक्ति के लिए देवताओं की पूजा नहीं करते थे। वे देवताओं से बच्चे , पशु , धन , अन्न , आरोग्य आदि की कामना करते थे। ऋग्वैदिक युग
MCQ
प्रश्न 1 – आर्य लोग किस परिवार की भाषाएं बोलते थे ?
उत्तर – हिन्द – यूरोपीय
प्रश्न 2 – आर्यों का प्रारंभिक जीवन मुख्यतः था –
उत्तर – पशुचारी
प्रश्न 3 – आर्यों का प्रारंभिक जीवन में कृषि का स्थान था –
उत्तर – गौण
प्रश्न 4 – भारत में आर्यों की जानकारी मिलती है –
उत्तर – ऋग्वेद से
प्रश्न 5 – हिन्द – यूरोपीय भाषाओं का सबसे प्राचीन ग्रंथ है –
उत्तर – ऋग्वेद
प्रश्न 6 – ऋग्वेद में ‘ आर्य ‘ शब्द का उल्लेख हुआ है –
उत्तर – 36 बार
प्रश्न 7 – ‘ आर्य ‘ शब्द सामान्यतः इंगित करता है –
उत्तर – एक सांस्कृतिक समुदाय को
प्रश्न 8 – ऋग्वेद में कितने मंडल है ?
उत्तर – दस
प्रश्न 10 – ऋग्वेद में मंडल सबसे बाद में जोड़े गए मालूम होते हैं –
उत्तर – प्रथम और दशम
प्रश्न 11 – ऋग्वेद की अनेक बातें ‘ अवेस्ता ‘ नामक ग्रंथ से मिलती है। ‘ अवेस्ता ‘ किस भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ है ?
उत्तर – ईरानी
प्रश्न 12 – इराक में मिले लगभग 1600 ईसा – पूर्व के ‘ कसाइट अभिलेखों ‘ तथा 1400 ईसा – पूर्व सिरिया से प्राप्त ‘ मितन्नी अभिलेखों ‘ में नाम का उल्लेख है –
उत्तर – आर्यों के
प्रश्न 13 – आर्यों की सबसे प्रमुख नदी, जिसका उन्होंने बार-बार उल्लेख किया गया है –
उत्तर – सिंधु
प्रश्न 14 – ऋग्वेद में किस नदी को ‘ नदीतम ‘ अर्थात सर्वश्रेष्ट नदी कहा गया है –
उत्तर – सरस्वती
प्रश्न 15 – आर्य लोग जहां पहली बार बसे वह सारा प्रदेश कहलाया –
उत्तर – सप्तसिंधु ( सात नदियों का देश )
प्रश्न 16 – ऋग्वेद में वर्णित भरत वंश का राजा जिसने ‘ शंबर ‘ को हराया –
उत्तर – दिवोदास
प्रश्न 17 – आर्यों का राजा दासों के प्रति तो कोमल था , परंतु वह परम शत्रु था –
उत्तर – दस्युओं का
प्रश्न 18 – ऋग्वेद में इंद्र को कहा गया है –
उत्तर – पुरंदर
प्रश्न 19 – आर्य लोग हर जगह जीतते गए क्योंकि उनके पास थे –
उत्तर – अश्वचालित रथ
प्रश्न 20 – आर्यों के 5 कबीले , अर्थात जन थे , जिनका समुदाय कहलाता था –
उत्तर – पांचजन
प्रश्न 21 – इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा –
उत्तर – भरत कबीले के आधार पर
प्रश्न 22 – भरत कबीले का उल्लेख सबसे पहले मिलता है –
उत्तर – ऋग्वेद में
प्रश्न 23 – भरत और 10 राजाओं के बीच जो लड़ाई हुई वह कहलाता है –
उत्तर – दशराज्ञ युद्ध
प्रश्न 24 – दशराज्ञ युद्ध किस नदी के तट पर हुआ ?
उत्तर – परुष्णी ( रावी )
प्रश्न 25 – दशराज्ञ युद्ध में जीत हुई –
उत्तर – सुदास की
प्रश्न 26 – ऋग्वेद में युद्ध को पर्याय है –
उत्तर – गविष्टि
प्रश्न 27 – तांबे या काँसे के अर्थ में किस शब्द का प्रयोग हुआ है ?
उत्तर – अयस
प्रश्न 28 – ऋग्वेद में उल्लेखित समुद्र शब्द मुख्यतः वाचक है –
उत्तर – जलराशि का
प्रश्न 29 – कबीले की आमसभा क्या कहलाती थी ?
उत्तर – समिति
प्रश्न 30 – कौन – से संगठन इतने महत्वपूर्ण थे कि प्रधान या राजा भी इनका समर्थन प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे –
उत्तर – सभा और समिति
प्रश्न 31 – राजा का सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होता था –
उत्तर – पुरोहित
प्रश्न 32 – प्रसिद्ध ‘ गायत्री – मंत्र ‘ की रचना की –
उत्तर – विश्वामित्र ने
प्रश्न 33 – प्रजा स्वयं राजा को उसका अंश स्वेच्छा से देती थी उसका नाम था –
उत्तर – बलि
प्रश्न 34 – चरागाह का अधिकारी कहलाता था –
उत्तर – व्राजपति
प्रश्न 35 – लड़ाकू दलों के प्रधान कहलाते थे –
उत्तर – ग्रामणी
प्रश्न 36 – सामाजिक संगठन का आधार था –
उत्तर – गोत्र या जन्ममूलक
प्रश्न 37 – लोगों की प्राथमिक निष्ठा अपने-अपने कबीलों के प्रति थी , जिसे कहा जाता था –
उत्तर – जन
प्रश्न 38 – ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख हुआ है –
उत्तर – लगभग 275 बार
प्रश्न 39 – ऋग्वेद में विश शब्द का उल्लेख हुआ है –
उत्तर – 170 बार
प्रश्न 40 – आरंभिक वैदिक अवस्था में परिवार के अर्थ में शब्द था –
उत्तर – गृह
प्रश्न 41 – ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग किस अर्थ में होता था
उत्तर – रंग के
प्रश्न 42 – ऋग्वेद के किस मंडल में सर्वप्रथम शूद्र का उल्लेख मिलता है ?
उत्तर – दशम मंडल
प्रश्न 43 – ऋग्वेद में सबसे अधिक प्रतापी देवता है –
उत्तर – इंद्र
प्रश्न 44 – ऋग्वेद में इंद्र को कितने सूक्त समर्पित हैं ?
उत्तर – 250 सूक्त
प्रश्न 45 – ऋग्वेद के देवताओं में दूसरा स्थान प्राप्त है जिसे 200 सूक्त समर्पित है –
उत्तर – अग्नि
प्रश्न 46 – वैदिक काल में देवताओं और मानवों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाई –
उत्तर – अग्नि ने
प्रश्न 47 – वैदिक काल में जल का देवता माना गया है –
उत्तर – वरुण
प्रश्न 48 – वैदिक काल में आंधी के देवता थे –
उत्तर – मरुत
प्रश्न 49 – देवताओं की उपासना की मुख्य रीति थी –
उत्तर – प्रार्थना करना और यज्ञ – बलि अर्पित करना