जैन और बौद्ध धर्म
जैन और बौद्ध धर्म :- ईसा – पूर्व छठी सदी के उत्तरार्ध में मध्य गंगा के मैदानों में अनेक धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ जिनमें 62 संप्रदाय ज्ञात है। इनमें जैन और बौद्ध संप्रदाय सबसे महत्वपूर्ण थे।
उद्धव के कारण
वैदिकोत्तर काल में समाज स्पष्टत: चार वर्णों में विभाजित था – ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र। इस बात पर जोर दिया जाता था कि वर्ण जन्ममूलक है।
ब्राह्मण , जिन्हें पुरोहितों और शिक्षकों का कर्तव्य सौंपा गया था, वे समाज में अपना स्थान सबसे ऊंचा होने का दावा करते थे। वे कई विशेषाधिकारों के दावेदार थे , जैसे दान लेना , करो से छुटकारा , दंडों से माफी आदि।
वर्णक्रम में क्षत्रियों को दूसरा स्थान प्राप्त था। वे युद्ध करते थे , शासन करते थे और किसानों से उगाहे गए करों पर जीते थे।
वैश्य खेती , पशुपालन और व्यापार करते थे , और ये ही मुख्य करदाता थे। उन्हें भी द्विज की श्रेणी में स्थान प्राप्त था।
द्विज को जनेऊ पहनने और वेद पढ़ने का अधिकार था , पर शूद्रों को इससे वंचित रखा गया था।
शूद्रों का कर्तव्य ऊपर के तीन वर्णों की सेवा करना था , और स्त्रियों की भांति उन्हें भी वेद पढ़ने की मनाही थी। जैन और बौद्ध धर्म
वैदिकोत्तर काल में शुद्र ग्रहदास , कृषिदास , शिल्पी और मजदूर के रूप में दिखाई देते हैं। वे स्वभाव से ही क्रूरकर्म , लोभी और चोर कहे गए हैं , और उनमें से कुछ को अस्पृश्य भी माना जाता था।
वर्णव्यवस्था में जो जितने ऊंचे वर्ण का होता था वह उतना ही शुद्ध और सुविधाधिकारी समझा जाता था। अपराधी जितने ही नीचे वर्ण का होता था उसके लिए सजा उतनी ही अधिक कठोर होती थी।
इस तरह की वर्ण विभाजन वाले समाज में तनाव पैदा होना स्वाभाविक था , परंतु वैश्य और शूद्रों में इसकी कैसी प्रतिक्रिया थी यह जानने का कोई साधन नहीं है।
क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के धर्म विषयक प्रभुत्व पर प्रबल आपत्ति की और उन्होंने वर्ण – व्यवस्था को जन्ममूलक मानने के विरुद्ध एक प्रकार का आंदोलन छेड़ दिया।
विविध विशेषाधिकारों का दावा करने वाले पुरोहितों या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना नयें धर्म के उदय का अन्यतम कारण हुआ। जैन और बौद्ध धर्म
जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर और बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुध दोनों क्षत्रिय वंश के थे और दोनों ने ब्राह्मणों की सत्ता को चुनौती दी।
इन धर्मों के उदय का यथार्थ कारण पूर्वोत्तर भारत में नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था का विस्तार था।
600 ईसा – पूर्व के आसपास लोहे के इस्तेमाल होने से मध्य – गंगा के मैदाने में लोग भारी संख्या में बसने लगे।
लोहे के औजारों के इस्तेमाल की बदौलत जंगलों की सफाई , खेती और बड़ी-बड़ी बस्तियां संभव हुई।
लोहे के फाल वाले हलों पर अधिकतर कृषि – मूलक अर्थव्यवस्था में बैल की आवश्यकता थी , परंतु वैदिक यज्ञों में बलि दिए जाने के कारण पशुधन क्षीण होने लगा जो खेती की प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ।
मगध के दक्षिणी और पूर्वी छोरों पर बसे कबायली लोग भी खाने के लिए पशुओं को मारते थे।
नई कृषि – आधारित अर्थव्यवस्था को टिकाऊ रखने के लिए पशुवध को रोकना आवश्यक था। जैन और बौद्ध धर्म
इस कल के पूर्वोत्तर भारत में अनेक नगरों का उदय हुआ जैसे कौशांबी ( प्रयाग के समीप ) , कुशीनगर ( जिला देवरिया उत्तर प्रदेश ) , वाराणसी , वैशाली ( उत्तर बिहार ) , चिरांद ( सारन जिला बिहार ) , राजगीर ( पटना के लगभग 100 किलोमीटर दक्षिण पूर्व ) आदि।
उपर्युक्त नगरों में बहुत – से शिल्पी और व्यापारी रहते थे , जिन्होंने सर्वप्रथम ईसा पूर्व पांचवी सदी में ‘ पंचमार्क ‘ या आहत सिक्के चलाए।
सिक्कों की प्रचलन से व्यापार – वाणिज्य में वृद्धि हुई और इससे वैश्यों का महत्व बड़ा। वे अब किसी ऐसे धर्म की खोज में थे जहां उनकी सामाजिक स्थिति सुधारे।
क्षत्रियों के अतिरिक्त वैश्यों और वणिकों ( जो ‘ सेटठि ‘ कहलाते थे ) ने महावीर और गौतम बुद्ध दोनों की उदारता पूर्वक सहायता की। दोनों धर्मों को उन्होंने प्रचुर दान दिए जिसके निम्न कारण थे –
जैन और बौद्ध धर्म की आरंभिक अवस्था में तत्कालीन वर्ण – व्यवस्था को कोई महत्व नहीं दिया गया।
वे अहिंसा का उपदेश देते थे जिससे युद्धों का अंत हो सकता था और उसके परिणाम स्वरुप व्यापार – वाणिज्य में उन्नति हो सकती थी। जैन और बौद्ध धर्म
ब्राह्मणों की कानून संबंधी पुस्तकों में , जो धर्मसूत्र कहलाती थी , सूद पर धन देने को निंदनीय माना जाता था। तथा ब्याज पर जीने वालों को अधम कहा जाता था। अतः जो वैश्य व्यापार – वाणिज्य में वृद्धि के कारण महाजनी करते थे वे आदर नहीं पाते थे और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उत्सुक थे।
दूसरी ओर तरह-तरह की निजी संपत्ति के संचय के विरुद्ध भी कड़ी प्रतिक्रिया हुई। संपत्ति के नए-नए प्रकारों से समाज में असमानता पनपी। इस असमानता के कारण आम लोगों का जीवन दुख – दर्द से भर गया।
अब, सामान्य जन आदिम – जीवन पद्धति की कामना करने लगा तथा संन्यास के आदर्श की ओर लौटना चाहता था जिसमें संपत्ति के नए प्रकारों और नई जीवन पद्धति के लिए कोई जगह नहीं थी।
बौद्ध और जैन दोनों संप्रदाय सरल , शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे। भिक्षुओं को आदेश था कि वह जीवन में विलास की वस्तुओं का उपभोग नहीं करें।
ईसा पूर्व छठी – पांचवी सदी में मध्य गंगा के मैदान में हम भौतिक जीवन में हुए परिवर्तनों के विरुद्ध प्रतिक्रिया देखते हैं।
औद्योगिक क्रांति ने जिस प्रकार बहुत से लोगों के मन में यंत्र – पूर्व युग के जीवन में लौट जाने की चाह पैदा की , उसी प्रकार अतीत में लोग भी लौह – युग के पूर्व की जिंदगी में लौट जाना चाहते थे। जैन और बौद्ध धर्म
वर्धमान महावीर और जैन संप्रदाय
जैन धर्मवलम्बियों का विश्वास है कि उनके सबसे महान धर्मोपदेष्टा महावीर के पहले 23 और आचार्य हुए हैं जो ‘ तीर्थंकर ‘ कहलाते थे।
यदि महावीर को अंतिम या चौबीसवां तीर्थंकर माने तो जैन धर्म का उद्भव – काल ईसा – पूर्व नवी सदी ठहरता है।
आरंभ की अधिकतम तीर्थंकर , अर्थात 15वें तीर्थंकर तक , पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में उत्पन्न बताए गए हैं , इसलिए उनकी ऐतिहासिकता नितांत संदिग्ध है। मध्य गंगा के मैदान का कोई भी भाग ईसा पूर्व छठी सदी से पहले ठीक से आबाद नहीं हुआ था।
जैन धर्म की प्राचीनतम सिद्धांतों के प्रतिपादक 23वें तीर्थंकर ‘ पार्श्वनाथ ‘ माने जाते हैं जो वाराणसी के निवासी थे।
यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना पार्श्वनाथ के आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान ने की।
महान सुधारक वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध के जन्म और मृत्यु का ठीक-ठीक समय निश्चित करना कठिन है। जैन और बौद्ध धर्म
एक परंपरा के अनुसार वर्धमान महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व में वैशाली के पास किसी गांव में हुआ था। उनके पिता ‘ सिद्धार्थ ‘ क्षत्रिय कुल के प्रधान थे , जबकि माता ‘ त्रिशला ‘ बिंबिसार के ससुर लिच्छवि नरेश ‘ चेतक ‘ की बहन थी।
वैशाली की पहचान उत्तर बिहार में इसी नाम से नवस्थापित जिले में अवस्थित बसाढ़ से की गई है।
महावीर के परिवार का संबंध मगध के राज परिवार से था।
महावीर 30 वर्ष की अवस्था में गृहस्थ जीवन का त्याग कर सत्य की खोज में सन्यासी हो गए। 12 वर्षों तक वे में भटकते रहे। वे एक गांव में एक दिन से अधिक और एक शहर में 5 दिन से अधिक नहीं टिकते थे।
कहा जाता है कि अपने 12 साल की लंबी यात्रा के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले किंतु जब 42 वर्ष की अवस्था में उन्हें ‘ कैवल्य ‘ प्राप्त हो गया तो उन्होंने वस्त्र का एकदम ही त्याग कर दिया।
‘ कैवल्य ‘ के द्वारा महावीर ने सुख – दुख पर विजय प्राप्त की। इसी विजय के कारण वे महावीर अर्थात महान शूर , या जिन अर्थात विजेता कहलाए और उनके अनुयाई जैन कहलाते हैं। जैन और बौद्ध धर्म
महावीर 30 वर्षों तक कौशल , मगध , मिथिला , चंपा आदि प्रदेशों में घूम – घूम कर अपने धर्म का प्रचार करते रहे।
महावीर का निर्वाण 468 ईसा – पूर्व में 72 वर्ष की उम्र में आज के राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ।
दूसरी परंपरा के अनुसार उनका देहांत 527 ईसा पूर्व में हुआ। परंतु पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर उन्हें निश्चित रूप से छठी शताब्दी ईसा पूर्व में नहीं रखा जा सकता।
क्योंकि जिन नगरों और अन्य वासस्थानों से उनका संबंध था उनका उदय 500 ईसा पूर्व तक नहीं हुआ था। जैन और बौद्ध धर्म
जैन धर्म के सिद्धांत
जैन धर्म के पांच व्रत हैं :- ( 1 ) अहिंसा या हिंसा नहीं करना , ( 2 ) अमृषा या झूठ ना बोलना , ( 3 ) अचौर्य या चोरी ना करना , ( 4 ) अपरिग्रह या संपत्ति अर्जित नहीं करना , और ( 5 ) ब्रह्मचर्य यानी इंद्रिय निग्रह करना।
कहा जाता है कि इनमें चार व्रत पहले से ही चले आ रहे थे , महावीर ने केवल पांचवा व्रत जोड़ा।
जैन धर्म में अहिंसा को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।
महावीर के पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने तो अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगों को वस्त्र से ढकने की अनुमति दी थी , परंतु महावीर ने वस्त्र का सार्थक त्याग करने का आदेश दे दिया।
आगे चलकर जैन धर्म दो संप्रदायों में विभक्त हो गया – श्वेतांबर अर्थात सफेद वस्त्र धारण करने वाले , और दिगंबर अर्थात नग्न रहने वाले।
जैन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है , पर उनका स्थान ‘ जिन ‘ से नीचे रखा गया है।
बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म ने वर्ण व्यवस्था की आलोचना नहीं की। महावीर के अनुसार , पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी का जन्म उच्च या निम्न कुल में होता है। जैन और बौद्ध धर्म
महावीर ने चाण्डालों में भी मानवीय गुणों का होना संभव बताया है। उनके मत से शुद्ध और अच्छे आचरण वाले निम्न जाति के लोग भी मोक्ष पा सकते हैं।
जैन धर्म का मुख्य उद्देश्य सांसारिक बंधनों से छुटकारा पाना है। इसके लिए किसी कर्मकांडीय अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। यह ‘ त्रिरत्न ‘ अर्थात सम्यक ज्ञान , सम्यक विश्वास और सम्यक आचरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित है क्योंकि दोनों में जीवों की हत्या होती है। फलत: जैनियों ने अपने आप को व्यापार और वाणिज्य तक सीमित रखा। जैन और बौद्ध धर्म
जैन धर्म का प्रसार
जैन धर्म के उपदेशों के प्रचार – प्रसार के लिए महावीर ने अपने अनुयायियों का एक संघ बनाया जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को स्थान मिला।
जैन धर्म ने अपने को ब्राह्मण धर्म से स्पष्टत: पृथक नहीं किया , इसलिए वह लोगों को अधिक संख्या में आकर्षित करने में असफल रहा। महावीर के अनुयायियों की संख्या 14 हजार बताई जाती है, जो कोई बड़ी संख्या नही है।
जैन धर्म दक्षिण और पश्चिम भारत में फैला जहां ब्राह्मणीय धर्म कमजोर था।
एक परवर्ती परंपरा के अनुसार , कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने किया। उन्होंने जैन धर्म अपना लिया तथा जीवन के अंतिम वर्षों में जैन साधु होकर कर्नाटक में बिताए। लेकिन इसकी पुष्टि किसी अन्य स्रोत से नहीं होती।
दक्षिण भारत में जैन धर्म के फैलने का दूसरा कारण यह बताया जाता है कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष बाद मगध में भारी अकाल पड़ा; अकाल 12 वर्षों तक रहा; अतः बहुत से जैन ‘ भद्रबाहु ‘ के नेतृत्व में प्राण बचाने के लिए दक्षिण चले गए , शेष जैनी ‘ स्थलबाहू ‘ के नेतृत्व में मगध में ही रह गए। प्रवासी जैनों ने दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार किया। जैन और बौद्ध धर्म
अकाल समाप्त होने पर जब दक्षिण गए जैन मगध लौट आए तो स्थानीय जैनों से उनका मतभेद हो गया। दक्षिण से लौटे जैनों का दावा था कि अकाल की अवधि में भी उन लोगों ने अपने धार्मिक नियमों का पालन किया है , जबकि मगध के जैनियों ने नियमों का पालन नहीं किया और वे शिथिल हो गए।
उपरोक्त मतभेद को दूर करने के लिए और जैन धर्म के मुख्य उपदेशों को संकलित करने के लिए पाटलिपुत्र में एक परिषद का आयोजन किया गया। लेकिन दक्षिणी जैनों ने इस परिषद का बहिष्कार किया और इसके निर्णयों को मानना अस्वीकार कर दिया। तब से दक्षिणी जैन ‘ दिगंबर ‘ कहलाए और मगध के जैन ‘ श्वेतांबर ‘।
कर्नाटक में जैन धर्म के फैलने का पुरातात्विक साक्ष्य ईसा की तीसरी सदी से पहले का नहीं मिलता। जैन और बौद्ध धर्म
पांचवी सदी में कर्नाटक में बहुत सारे जैन मठ स्थापित हुए जो ‘ बसदि ‘ कहलाते थे।
उड़ीसा या कालिंग में जैन धर्म का प्रचार ईसा – पूर्व चौथी सदी में हुआ; और ईसा – पूर्व पहली सदी में कलिंग नरेश ‘ खारवेल ‘ का इसे संरक्षण मिला जिसने आंध्र और मगध के राजाओं को पराजित किया था।
ईसा – पूर्व दूसरी और पहली सदी में जैन धर्म तमिलनाडु के दक्षिणी भागों में पहुंचा।
यद्यपि जैन धर्म को उतना राजाश्रय नहीं मिला जितना बौद्ध धर्म को , फिर भी यह जहां कहीं भी पहुंचा अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। जैन और बौद्ध धर्म
जैन धर्म का योगदान
जैन धर्म ने ही सबसे पहले वर्ण व्यवस्था और वैदिक कर्मकांड की बुराइयों को रोकने के लिए गंभीर प्रयास किया।
जैनों ने संस्कृत भाषा का परित्याग कर धर्मोपदेश के लिए आम लोगों की बोलचाल की भाषा ‘ प्राकृत ‘ को अपनाया। उनके धार्मिक ग्रंथ अर्धमागधी भाषा में लिखे गए और ये ग्रंथ ईसा की छठी सदी में गुजरात के ‘ वल्लभी ‘ नामक स्थान में अंतिम रूप से संकलित किए गए।
जैनों ने प्राकृत को अपनाया , इससे प्राकृत भाषा और साहित्य की समृद्धि हुई।
प्राकृत भाषा से कई क्षेत्रीय भाषाएं विकसित हुई। इनमें विशेष उल्लेखनीय है – शौरसेनी , जिससे मराठी भाषा निकली है।
जैनों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे और इसका पहला व्याकरण तैयार किया। जैन और बौद्ध धर्म
जैनों ने मध्यकाल के आरंभ में संस्कृत का भी खूब प्रयोग किया और इससे बहुत – से ग्रंथ लिखे।
जैनों ने ‘ कन्नड़ ‘ के विकास में भी यथेष्ट योगदान दिया और इस भाषा में उन्होंने प्रचुर लेखन किया।
बौद्धों की तरह जैन लोग भी आरंभ में मूर्तिपूजक नहीं थे। बाद में वे महावीर और 23 तीर्थंकरों की भी पूजा करने लगे। इसके लिए सुंदर और कभी-कभी विशाल प्रस्तर – प्रतिमाएं विशेषकर कर्नाटक , गुजरात , राजस्थान और मध्य प्रदेश में निर्मित हुई।
प्राचीन काल की जैन कला उतनी उत्कृष्ट नहीं है जितनी बोधन बौद्ध कला। जैन और बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध या सिद्धार्थ का जन्म 563 ईसा – पूर्व में नेपाल की तराई के निकट कपिलवस्तु के लुंबिनी में शाक्य नमक क्षत्रिय कुल में हुआ था।
कपिलवस्तु की पहचान बस्ती जिले में ‘ पिपरहवा ‘ से की गई है।
गौतम के पिता कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे। उनकी माता कोसल – राजवंश की कन्या थी।
29 वर्ष की उम्र में गौतम घर से निकल पड़े। 7 वर्षों तक भटकते रहने के बाद 35 वर्ष की आयु में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तब से वे बुद्ध अर्थात प्रज्ञावान कहलन लगे। जैन और बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश वाराणसी के सारनाथ नामक स्थान में दिया।
बुद्ध लगातार 40 साल तक उपदेश देते रहे। वे केवल बरसात में ही एक स्थान पर टिके रहते थे। शास्त्रार्थ में उन्होंने ब्राह्मणों और कट्टरपंथियों को परास्त किया।
बुद्ध के धर्म – प्रचार के कार्यों में ऊंच – नीच , अमीर – गरीब और स्त्री – पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं था।
एक परंपरा के अनुसार गौतम बुद्ध की मृत्यु 80 वर्ष की उम्र में 483 ईसा पूर्व में ‘ कुशीनगर ‘ में हुई। इस स्थान की पहचान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के ‘ कसिया ‘ नामक गांव से की जाती है। जैन और बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म के सिद्धांत
बुद्ध ने ‘आत्मा ‘ ‘ परमात्मा ‘ के निरर्थक वाद – विवादों में अपने को नहीं उलझाया। उन्होंने अपने को सांसारिक समस्याओं में लगाया।
बुद्ध ने कहा संसार दुःखमय है और लोग अपनी इच्छाओं के कारण दु:ख पाते हैं यदि इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली जाए तो ‘ निर्वाण ‘ प्राप्त हो जाएगा, जिसका अर्थ है कि जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी।
बुद्ध ने दु:ख की निवृत्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग बताया। यह मार्ग ईसा – पूर्व तीसरी सदी के आसपास के एक ग्रंथ में बुद्ध द्वारा बताया हुआ कहा गया है। यह मार्ग निम्न प्रकार से हैं :- सम्यक दृष्टि , सम्यक संकल्प , सम्यक वाक , सम्यक कर्म , सम्यक आजीव , सम्यक प्रयास , सम्यक् स्मृति और सम्यक समाधि।
यदि कोई व्यक्ति उपरोक्त 8 मार्गो का अनुसरण करें तो वह अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा।
बुद्ध की शिक्षा है कि व्यक्ति को न है तो अत्यधिक विलासी होना चाहिए और नहीं अत्यधिक संयमी ही ,बल्कि उसे ‘ मध्य मार्ग ‘ अपनाना चाहिए। जैन और बौद्ध धर्म
जैन तीर्थंकरों की तरह बुद्ध ने भी अपने अनुयायियों के लिए आचार – नियम निर्धारित किए , जो इस प्रकार –
( 1 ) पराये धन का लोभ नहीं करना ,
( 2 ) हिंसा नहीं करना ,
( 3 ) नशे का सेवन न करना ,
( 4 ) झूठ नहीं बोलना और
( 5 ) दुराचार से दूर रहना। जैन और बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म की विलक्षणताएँ और इसके प्रसार के कारण
बौद्ध धर्म ईश्वर और आत्मा को नहीं मानता है।
बौद्ध धर्म शुरू से दार्शनिक वाद – विवादों के जंजाल में नहीं फंसा था , इसलिए यह सामान्य लोगों को भाया।
यह विशेष रूप से निम्न वर्णों का समर्थन पा सका , क्योंकि इसमें वर्ण व्यवस्था की निंदा की गई है।
बौद्ध संघ का दरवाजा हर किसी के लिए खुला था चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। संघ में स्त्रियों को भी प्रवेश का अधिकार था।
ब्राह्मण धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म अधिक उदार और जनतांत्रिक था।
बौद्ध धर्म वैदिक क्षेत्र के बाहर के लोगों को अधिक भाया। मगध के निवासी इस धर्म की और तुरंत उन्मुख हुए , क्योंकि कट्टर ब्राह्मण उन्हें नीच मानते थे और मगध आर्यों की पुण्य भूमि आर्यावर्त्त अर्थात आधुनिक उत्तर प्रदेश की सीमा से बाहर पड़ता था। जैन और बौद्ध धर्म
बुद्ध ने बुराई को अच्छाई से और घृणा को प्रेम से दूर करने का प्रयास किया।
जनसाधारण की भाषा पालि को अपनाने से भी बौद्ध धर्म के प्रचार को बल मिला।
गौतम बुद्ध ने संघ की स्थापना की , जिसमें हर व्यक्ति जाति या लिंग के भेद के बिना प्रवेश कर सकता था। भिक्षुओं के लिए एक ही शर्त थी कि उन्हें संघ के नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करना होगा।
बौद्ध संघ में शामिल होने के बाद इसके सदस्यों को इंद्रियनिग्रह , अपरिग्रह ( धनहीनता ) और श्रद्धा का संकल्प लेना पड़ता था।
बौद्ध धर्म में तीन प्रमुख अंग थे – बुद्ध , संघ और धम्म। जैन और बौद्ध धर्म
मगध , कोसल और कौशांबी के राजाओं , अनेक गणराज्यों और उनकी जनता ने बौद्ध धर्म को अपना लिया।
बुद्ध के निर्वाण के 200 साल बाद मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म धारण किया। अशोक ने अपने धर्मदूतों के द्वारा इस धर्म को मध्य एशिया , पश्चिमी एशिया और श्रीलंका में फैलाया और इसे विश्व धर्म बनाया।
बौद्ध धर्म आज भी श्रीलंका , बर्मा , और तिब्बत में तथा चीन और जापान के कुछ भागों में प्रचलित है। अपनी जन्मभूमि से तो यह धर्म लुप्त हो गया , परंतु दक्षिण एशिया , दक्षिण – पूर्वी एशिया और पूर्वी एशिया के देशों में जीता – जागता है। जैन और बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म के हास के कारण
ईसा की 12वीं सदी आते-आते बौद्ध धर्म भारत से लुप्त – सा हो गया। कुछ परिवर्तित रूप में यह बंगाल और बिहार में 11वीं सदी तक रहा , किंतु उसके बाद यह धर्म सारे देश में पूर्णत: समाप्त हो गया।
बौद्ध धर्म उन्हीं ब्राह्मणीय कर्मकांडों और अनुष्ठानों के जाल में फंस गया जिनके विरुद्ध उसने आरंभ में लड़ाई छेड़ी थी।
बौद्ध धर्म की चुनौती का मुकाबला करने के लिए ब्राह्मणों ने अपने धर्म को सुधारा और गोधन की रक्षा पर बल दिया साथ ही स्त्रियों और शूद्रों के लिए धर्म का मार्ग प्रशस्त किया।
कालांतर में बौद्ध धर्म में विकृतियां आ गई और बौद्ध भिक्षुओं ने जनसामान्य की भाषा पालि को छोड़कर संस्कृत को अपना लिया जो केवल विद्वानों की भाषा थी।
ईसा की पहली सदी से वे बड़ी मात्रा में मूर्ति पूजा करने लगे और उपासकों से खूब चढ़ावा भी लेने लगे। जैन और बौद्ध धर्म
सातवीं सदी की आते-आते बौद्ध विहार विलासी लोगों के प्रभुत्व में आ गए और उन कुकर्मों का केंद्र बन गए जिनका बुद्ध ने कड़ाई के साथ निषेध किया था। बौद्ध धर्म का यह नया रूप ‘ वज्रयान ‘ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
विहारों में अपार संपत्ति और स्त्रियों के होने से उनकी स्थिति और भी बिगड़ी। बौद्ध भिक्षु नारी को भोग की वस्तु समझने लगे।
ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों को दंडित किया। ईसा की छठी – सातवीं सदियों में बौद्धों को दंडित किए जाने के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
शैव संप्रदाय के हूण राजा मिहिरकुल ने सैकड़ो बौद्धों को मौत के घाट उतारा।
गौड देश के राजा शिवभक्त शशांक ने बोधगया के उस बोधिवृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। जैन और बौद्ध धर्म
हुआन सांग ने लिखा है कि 1600 स्तूप और विहार तोड़ डाले गए और हजारों भिक्षओं और उपासकों को मार डाला गया।
इस पर बौद्धों की प्रतिक्रिया कई देवमालाओं में देखी जा सकती है जहां बोधिसत्वों को हिंदू देवताओं के ऊपर खड़ा दिखाया गया है।
मध्यकाल के आरंभ में दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के लोगों ने जैनों और बौद्धों का कड़ा विरोध किया।
बौद्ध विहारों की अपार संपत्ति ने तुर्की हमलावरों को आकर्षित किया। तुर्कों ने अनेक बौद्ध भिक्षओं का संहार किया यद्यपि कुछ भिक्षु जान बचाकर नेपाल और तिब्बत भाग गए। जैन और बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म का महत्व और प्रभाव
ईसा – पूर्व छठी सदी में पूर्वोत्तर भारत की जनता के सामने जो समस्याएं खड़ी थी उनकी ओर बौद्धों ने प्रबल जागरूकता दिखाई।
धन के संचय से उत्पन्न सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए बौद्ध धर्म में घोषणा की कि धन – संचय नहीं करना चाहिए।
बौद्ध धर्म के अनुसार दरिद्रता घृणा , क्रूरता और हिंसा की जननी है। इन बुराइयों को दूर करने के लिए बुद्ध ने उपदेश दिया कि किसानों को बीज और अन्य सुविधाएं मिलनी चाहिए , व्यापारियों को धन मिलना चाहिए और श्रमिकों को मजदूरी मिलनी चाहिए।
बौद्ध धर्म उपदेश देता है कि जो दरिद्र व्यक्ति भिक्षुओं को भीख देगा वह अगले जन्म में धनवान होगा।
भिक्षुओं के आचरण के लिए बनाई गई नियम – संहिता ईसा – पूर्व छठी और पांचवी सदी वाले पूर्वोत्तर भारत कि भौतिक स्थिति के प्रति हो रही प्रतिक्रियाओं की झलक देती है।
बौद्ध धर्म में छठी शताब्दी ईसा-पूर्व में भौतिक जीवन से उत्पन्न बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया गया और साथ ही लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हुए परिवर्तन को स्थायी बनाने की ओर भी कदम उठाया गया। जैन और बौद्ध धर्म
संघ में कर्जदारों का प्रवेश वर्जित कर स्पष्टत: महाजनों और धनवानों को लाभ पहुंचाया गया। इसी प्रकार , संघ में दासों के प्रवेश – निषेध का नियम बनाया।
गौतम बुद्ध के उपदेशों और नियमों में भौतिक जीवन में आए परिवर्तनों को पूरी ध्यान से रखा गया और सैद्धान्तिक रूप से उसे दृढ़ बनाया गया।
यद्यपि बौद्ध भिक्षु संसार से विरक्त रहे और बार-बार लोभी ब्राह्मणों की निंदा की फिर भी कई मामलों में दोनों में समानता थी –
दोनों उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेते थे , और समाज से मिली भीख या दान पर जीते थे।
दोनों ही बताते थे कि परिवार का पालन करना , निजी संपत्ति की रक्षा करना और राजसत्ता का आदर करना अच्छा है।
दोनों वर्गमूलक सामाजिक व्यवस्था के समर्थक थे। भेद इतना ही था कि भिक्षु वर्ण को गुण और कर्म के अनुसार मानते थे , परंतु ब्राह्मण जन्म के अनुसार। जैन और बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म का उद्देश्य था मानव को मुक्ति या निर्वाण का मार्ग दिखाना।
बौद्ध धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों के लिए अपने द्वार खोलकर समाज पर गहरा प्रभाव जमाया।
बौद्ध धर्म ने अहिंसा और जीवमात्र के प्रति दया की भावना जगाकर देश में पशुधन की वृद्धि की।
प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ ‘ सुत्तनिपात ‘ में गाय को भोजन , रूप और सुख देने वाली कहा गया है और इस कारण उसकी रक्षा का उपदेश दिया गया है।
ब्राह्मण धर्म में गाय की पवित्रता और अहिंसा पर जोर देने का कारण स्पष्टत: बौद्ध धर्म के उपदेश का प्रभाव था।
बौद्ध धर्म ने बताया है कि किसी वस्तु को यों ही नहीं , बल्कि भली – भांति गुणदोष का विवेचन करके ग्रहण करें। इससे लोगों में बुद्धिवाद पनपा और अंधविश्वास का स्थान तर्क ने ले लिया।
बोद्धों ने अपने लेखन से पालि को समृद्ध किया। जैन और बौद्ध धर्म
आरंभिक पालि साहित्य तीन कोटियों में बांटा जा सकता है। प्रथम कोटि में बुद्ध के वचन और उपदेश हैं , दूसरे में संघ के सदस्यों द्वारा पालन किए जाने वाले नियम आते हैं , और तीसरे में धम्म का दार्शनिक विवेचन है।
ईसा की प्रथम तीन सदियों में पालि और संस्कृति को मिलाकर बौद्धों ने एक नई भाषा चलायी जिसे ‘ मिश्रित संस्कृत ‘ कहते हैं।
पूर्वी भारत की कुछ प्रख्यात अपभ्रंश कृतियां बौद्धों की देन है।
बौद्ध विहार महान विद्याकेन्द्र हो गए , जिन्हें आवासीय विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जा सकती है। बिहार में नालंदा और विक्रमशिला तथा गुजरात में वल्लभी विश्वविद्यालय उल्लेखनीय है।
प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव है। भारत में पूजित पहली मानव प्रतिमा संभवत: बुद्ध की है। जैन और बौद्ध धर्म
बिहार के गया और मध्य प्रदेश के सांची और भरहुत में जो चित्रफलक मिले हैं वे बौद्ध कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
ईसा की पहली ही सदी से गौतम बुद्ध की फलक – प्रतिमाएं बनने लगी।
भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत में यूनान और भारत के मूर्तिकारों ने नए ढंग की कला की सृष्टि करने के लिए सम्मिलित रूप से प्रयास किया जिसका परिणाम ‘ गांधार कला ‘ के नाम से विख्यात है। इस प्रदेश में बनी प्रतिमाओं में देसी और विदेशी दोनों प्रभाव स्पष्ट है।
गया की बराबर पहाड़ियों में और पश्चिम भारत में नासिक के आसपास की पहाड़ियों में गुहा – वास्तुशिल्प का आरंभ हुआ।
बौद्ध कला दक्षिण में कृष्णा डेल्टा में और उत्तर में मथुरा में फूली – फली। जैन और बौद्ध धर्म
MCQ
प्रश्न 1 – वर्णक्रम में क्षत्रियों को स्थान प्राप्त था –
उत्तर – दूसरा
प्रश्न 2 – ब्राह्मणों की कानून संबंधी पुस्तकों कहलाती थी –
उत्तर – धर्मसूत्र
प्रश्न 3 – वर्धमान महावीर जैनों के कौन – से तीर्थंकर थे ?
उत्तर – चौबीसवें ( 24 )
प्रश्न 4 – जैन धर्म की प्राचीनतम सिद्धांतों के प्रतिपादक 23वें तीर्थंकर माने जाते हैं –
उत्तर – पार्श्वनाथ
प्रश्न 5 – पार्श्वनाथ कहाँ के निवासी थे ?
उत्तर – वाराणसी
प्रश्न 6 – महान सुधारक वर्धमान महावीर का जन्म हुआ था –
उत्तर – 540 ईसा पूर्व
प्रश्न 7 – वर्धमान महावीर के पिता का क्या नाम था ?
उत्तर – सिद्धार्थ
प्रश्न 8 – वर्धमान महावीर की माता का क्या नाम था ?
उत्तर – त्रिशला
प्रश्न 9 – महावीर का निर्वाण 468 ईसा – पूर्व में 72 वर्ष की उम्र में हुआ –
उत्तर – पावापुरी में
प्रश्न 10 – जैन धर्म के कितने व्रत हैं ?
उत्तर – पांच
प्रश्न 11 – जैन धर्म में सबसे अधिक महत्व दिया गया है –
उत्तर – अहिंसा को
प्रश्न 12 – जैन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है , पर उनका स्थान रखा गया है –
उत्तर – जिन से नीचे
प्रश्न 13 – जैन धर्म में सम्यक ज्ञान , सम्यक विश्वास और सम्यक आचरण कहलाते है –
उत्तर – त्रिरत्न
प्रश्न 14 – महावीर के अनुयायियों की संख्या बताई जाती है –
उत्तर – 14 हजार
प्रश्न 15 – पांचवी सदी में कर्नाटक में बहुत सारे जैन मठ स्थापित हुए जो कहलाते थे –
उत्तर – बसदि
प्रश्न 16 – ईसा – पूर्व पहली सदी में किस कलिंग नरेश ने जैन धर्म को संरक्षण दिया ?
उत्तर – खारवेल
प्रश्न 17 – जैनियों के धार्मिक ग्रंथ किस भाषा में लिखे गए ?
उत्तर – अर्धमागधी
प्रश्न 18 – जैनों के धार्मिक ग्रंथ किस स्थान में अंतिम रूप से संकलित किए गए ?
उत्तर – वल्लभी
प्रश्न 19 – प्राकृत भाषा से कई क्षेत्रीय भाषाएं विकसित हुई। इनमें विशेष उल्लेखनीय है – शौरसेनी , जिससे निकली है –
उत्तर – मराठी भाषा
प्रश्न 20 – जैनों ने किस भाषा में पहली बार कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे ?
उत्तर – अपभ्रंश
प्रश्न 21 – 563 ईसा – पूर्व में गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था –
उत्तर – लुम्बिनी में
प्रश्न 22 – गौतम बुद्ध का किस कुल से संबंध था ?
उत्तर – शाक्य कुल
प्रश्न 23 – गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई ?
उत्तर – बोधगया
प्रश्न 24 – ज्ञान प्राप्ति के बाद से गौतम कहलाने लगे –
उत्तर – बुद्ध अर्थात प्रज्ञावान
प्रश्न 25 – गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश दिया –
उत्तर – सारनाथ
प्रश्न 26 – गौतम बुद्ध की मृत्यु 80 वर्ष की उम्र में 483 ईसा पूर्व में हुई –
उत्तर – कुशीनगर में
प्रश्न 27 – पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के ‘ कसिया ‘ नामक गांव से किस जगह की पहचान की जाती है ?
उत्तर – कुशीनगर
प्रश्न 28 – बुद्ध ने दु:ख की निवृत्ति के लिए बताया –
उत्तर – अष्टांगिक मार्ग
प्रश्न 29 – बौद्ध धर्म में तीन प्रमुख अंग थे –
उत्तर – बुद्ध , संघ और धम्म
प्रश्न 30 – किस राजा ने बोधगया के उस बोधिवृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था ?
उत्तर – शशांक
प्रश्न 31 – बोद्धों ने अपने लेखन से समृद्ध किया –
उत्तर – पालि को
प्रश्न 32 – आरंभिक पालि साहित्य बांटा जा सकता है –
उत्तर – तीन कोटियों में
प्रश्न 33 – ईसा की प्रथम तीन सदियों में पालि और संस्कृति को मिलाकर बौद्धों ने एक नई भाषा चलायी जिसे कहते हैं –
उत्तर – मिश्रित संस्कृत
प्रश्न 34 – किस प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ में गाय को भोजन , रूप और सुख देने वाली कहा गया है ?
उत्तर – सुत्तनिपात
प्रश्न 35 – भारत में पूजित पहली मानव प्रतिमा संभवत: है –
उत्तर – बुद्ध की