बुद्धकाल में राज्य और वर्ण – समाज

बुद्धकाल में राज्य और वर्ण - समाज

बुद्धकाल में राज्य और वर्ण – समाज :- पुरातत्व के अनुसार ईसा – पूर्व छठी सदी ‘ उत्तरी काली पालिशदार मृदभांड ‘ अवस्था का आरंभ काल है। इस मृदभांड को अंग्रेजी संक्षेपाक्षर एन. बी. पी. डब्ल्यू. अर्थात ‘ नार्दर्न ब्लैक पालिशड वेयर ‘ कहते है।

उत्तरी काली पालिशदार मृदभांड बहुत ही चिकना और चमकीला होता था और संभवत: इसका उपयोग धनवान लोग भोजनपात्र के रूप में करते थे।

उत्तरी काली पालिशदार मृदभांड के साथ लोहे के उपकरण भी पाए जाते हैं , विशेषकर शिल्पकर्म और कृषि – कर्म में काम आने वाले उपकरण। इसी काल में धातु मुद्रा का प्रचलन भी आरंभ हुआ।

पक्की ईंटों और छल्लेदार कुओं का प्रयोग एन.बी.पी.डब्ल्यू. काल के मध्य में अर्थात ईसा – पूर्व तीसरी सदी में शुरू हुआ।

एन.बी.पी.डब्ल्यू. काल में ही भारत में ” द्वितीय नगरीकरण ” की शुरुआत हुई।

हड़प्पाई नगर ईसा – पूर्व 1900 के आसपास अंतिम रूप में लुप्त हो गए। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

ईसा – पूर्व लगभग पांचवी सदी में मध्य गंगा के मैदान में नगरों के प्रकट होने के साथ ही भारत में ” द्वितीय नगरीकरण ” की शुरुआत हुई।

पालि और संस्कृत में उल्लेखित अनेक नगरों को खोद निकाला गया , जैसे कौशांबी , श्रावस्ती , अयोध्या , कपिलवस्तु , वाराणसी , वैशाली , राजगीर , पाटलिपुत्र , चंपा आदि। इन सभी नगरों में एन.बी.पी.डब्ल्यू. युग या उसकी मध्य अवस्था की बस्तियां और मिट्टी की संरचनाएं मिली है।

पटना में लकड़ी के लकड़कोट ( पेलिसेड ) मिले हैं जो मौर्य – पूर्व काल के हो सकते हैं। मध्य गंगा के मैदान में लकड़ी के बाड़ाबंदी का यह पहला उदाहरण है।

यद्यपि पालि ग्रंथों में सात मंजिले प्रासादों का उल्लेख मिलता है , परंतु वे कहीं भी नहीं पाए गए हैं।

ताम्रपाषाणीय ” चित्रित धूसर मृदभांड ” ( पी. जी. डब्ल्यू. ) वाली बस्तियों की तुलना में ‘ उत्तरी काली पालिशदार मृदभांड ‘ ( एन.बी.पी.डब्ल्यू. ) वाली बस्तियों की आबादी में भारी वृद्धि हुई थी।

अनेक नगर शासन के मुख्यालय थे और अंतत: वे बाजार बन गए और वहां शिल्पी और वणिक , आ कर बसते गए। ‘ सददलपुत्त ‘ कुंभकार के पास वैशाली में 500 दुकानें थी। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

शिल्पी और वणिक दोनों अपने -अपने प्रमुखों के नेतृत्व में श्रेणियां बनाकर संगठित थे। हमें शिल्पियों की 18 श्रेणियां का उल्लेख मिलता है।

शिल्पी और वणिक दोनों नगरों में अपने-अपने नियत भागों में रहते थे। वाराणसी में ” वेस्स ” या वणिक लोगों की गली थी। इसी तरह हाथी दांत के शिल्पियों की गली की भी चर्चा है।

आम तौर से शिल्प और दस्तकारी वंशानुगत थी और पुत्र अपने कुल का व्यवसाय अपने पिता से सीखता था।

इस कल के सभी प्रमुख नगर नदी के किनारे और व्यापार मार्गों के पास बसे थे ,और एक – दूसरे से जुड़े थे।

श्रावस्ती नगरी कौशांबी और वाराणसी दोनों से जुड़ी थी। ‘ वाराणसी ‘ बुद्ध के जमाने में एक प्रसिद्ध व्यापार केंद्र था। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

जातक – कथाओं के अनुसार कोसल और मगध के वणिक मथुरा होते हुए उत्तर की ओर तक्षशिला तक पहुंच जाते थे। इसी तरह वे मथुरा से दक्षिण और पश्चिम की ओर बढ़ते हुए उज्जैन और गुजरात के समुद्रतटीय प्रदेश तक पहुंच जाते थे।

वैदिक ग्रंथों में आए ‘ निष्क ‘ और ‘ शतमान ‘ शब्द मुद्रा के नाम माने जाते हैं। लेकिन प्रतीत होता है कि वे धातु के बने अलंकरण रहे होंगे।

अभी तक प्राप्त सिक्के वस्तुत: ईसा – पूर्व छठी – पांचवी सदी से पहले के नहीं है।

वैदिक काल में लेन – देन का काम वस्तु – विनियमन प्रणाली से होता था , और कभी-कभी पशु का मुद्रा की तरह व्यवहार किया जाता था।

धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मिलते हैं।

आरंभ में सिक्के अधिकतर चांदी के होते थे , हालांकि कुछ तांबे के भी मिले हैं। ये सिक्के पंचमार्क ( आहत ) कहलाते थे। क्योंकि ये धातु के टुकड़ों पर पेड़ , मछली , सांड , हाथी , अर्द्धचंद्र आदि किसी वस्तु की आकृतियों का ठप्पा मार कर बनाए जाते थे बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

पंचमार्क मुद्राओं की सबसे पुरानी निधियाँ ( होर्ड्स ) पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध में मिली है। हालांकि आरंभिक काल के कुछ सिक्के तक्षशिला में भी मिले हैं।

पालि ग्रंथों से मुद्रा के प्रचुर प्रचलन के संकेत मिलता है और पता चलता है कि वेतन और मूल्य का भुगतान सिक्कों में किया जाता था। मारे चूहे का मूल्य भी सिक्के में आँका गया है।

हड़प्पा सभ्यता के बाद संभव है कि लिखने की कला अशोक से करीब दो सौ साल पहले शुरू हुई हो।

इसी काल में सूक्ष्म मापन विषयक ग्रंथ भी रचे गए , जो ‘ शुल्वसूत्र ‘ कहलाते हैं। ये ग्रंथ प्रमाणित करते हैं कि इससे पूर्व लेखन – कला प्रचलित हो चली थी।

यद्यपि उत्तरी काली चित्रित मृदभांड अवस्था की कोई ग्रामीण बस्ती नहीं मिली है , परंतु इस मृदभांड के ठीकरे बिहार के मैदानों में और पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश के मैदाने में 400 से भी अधिक स्थानों में पाए गए हैं।

नगरवासी कृषकेतर लोगों का पेट ग्रामवासी कृषक भरते थे। इसके बदले ग्रामवासियों को औजार , कपड़ा आदि वस्तुएं नगरवासी शिल्पियों और व्यापारियों से मिलती थी। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

कौशांबी में एन.बी.पी.डब्ल्यू. अवस्था के लोहे की कई औजार पाए गए हैं , जैसे कुल्हाड़ी , छुरी , उस्तरा , बसूला , कील , हँसिया आदि। इनमें से कई तो लगभग ईसा – पूर्व छठी – चौथी सदियों के स्तरों में मिले हैं।

पालि ग्रंथों में गांव के तीन भेद किए गए हैं। प्रथम कोटि में वे सामान्य गांव थे जिनमें विविध वर्णों और जातियों का निवास था। ऐसे गांव की संख्या सबसे अधिक मालूम पड़ती है , और इनका मुखिया ‘ भोजक ‘ कहलाता था।

द्वितीय कोटि में ऐसे उपनगरीय गांव थे जिन्हें शिल्प – ग्राम कह सकते हैं, जैसे वाराणसी के निकट एक बढ़ई का गाँव या रथकार ग्राम था।

तृतीय कोटि में सीमांत ग्राम आते थे , जो जंगल से संलग्न देहातों की सीमा पर बसे होते थे। इन गांवों के निवासी मुख्यतः बहेलिये और शिकारी होते थे।

किसान अपनी उपज का छठा भाग कर या राजांश के रूप में चुकाते थे। कर की वसूली सीधे राजा के कर्मचारी करते थे।

धनी किसान को ‘ गहपति ‘ ( पालि शब्द ) कहा जाता था। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

इस काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में पैदा होने वाला मुख्य अनाज चावल था। पालि ग्रंथों में अनेक प्रकार के धानों और धान्य खेतों का वर्णन है।

धान की रोपाई की प्रणाली बुद्ध के युग में व्यापक रूप से प्रचलित हो गई थी। इसके अतिरिक्त किसान दलहन , जौ , ज्वार , कपास और गन्ने की भी खेती करते थे।

लोहे के फाल के प्रचलन के फलस्वरूप तथा इलाहाबाद और राजमहल के बीच जलोढ़ मिट्टी की उर्वरता के फलस्वरुप खेती में भारी उन्नति हुई।

मध्य गंगा घाटी के वर्षापोषित जंगलों और कड़ी मिट्टी वाले प्रदेशों की सफाई , खेती और बस्ती के उपयुक्त बनाने में लोहे की भूमिका महत्वपूर्ण रही। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

लोहार , लोहे के औजारों को कड़ा बनाना जानते थे। राजघाट ( वाराणसी ) से मिले कई औजारों से प्रकट होता है कि वे सिंहभूम और मयूरभंज में मिलने वाले लौह अयस्क से बनाए गए थे।

सर्वप्रथम हमें समुन्नत खाद्य – उत्पादक अर्थव्यवस्था मध्य गंगा के मैदानों की जलोढ़ मिट्टी पर फैलती हुई दिखाई देती है। यह ऐसी अर्थव्यवस्था थी जिसने न केवल सीधे उत्पादकों का भरणपोषण होता था , बल्कि ऐसे बहुत – सारे अन्य लोगों का भी होता था जो न किसान थे , न शिल्पी।

इस अर्थव्यवस्था से करों की नियमित वसूली और लंबे समय के लिए सेना का रख रखाव संभव हुआ और इसी से ऐसी स्थिति का निर्माण हुआ जिसमें बड़े-बड़े जनपद राज्य बन और टिक सकते थे। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

प्रशासनिक पद्धति

इस काल में कोसल और मगध शक्तिशाली राज्य थे।

‘ जातकों ‘ अर्थात बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं से , ज्ञात होता है की जनता अत्याचारी राजाओं और उनके प्रधान पुरोहितों को गद्दी से उतार देती थी और उनकी जगह नए राजाओं को बैठा देती थी।

राजा मुख्य रूप से एक योद्धा था जो अपने राज्य को विजयश्री प्राप्त कराता था।

राजा अनेक अधिकारियों की सहायता से शासन करता था , जो ऊपर से लेकर नीचे गांव के प्रधान तक क्रमबद्ध रहते थे।

उच्च कोटि के अधिकारी ‘ महामात्र ‘ कहलाते थे जो कई तरह के कार्य करते थे जैसे – सचिव , सेनानायक , न्यायाधिकारी , महालेखाकार , अंत:पुरा प्रधान के कार्य। शायद ‘ आयुक्त ‘ नाम से विदित अधिकारियों का एक वर्ग कुछ राज्यों में इसी तरह का कार्य करता था।

मगध का ‘ वर्षकार ‘ और कोसल का ‘ दीर्घचारायण ‘ सफल और प्रभावशाली मंत्री हुए। प्रथम ने वैशाली के लिच्छवियों के बीच फूट डालकर लिच्छवि गणराज्य पर अजातशत्रु को प्रभुत्व दिलाया और द्वितीय ने कोसल के राजा की भारी सहायता की। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

मालूम होता है कि उच्च अधिकारी और मंत्री अधिकतर ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग से चुने जाते थे। सामान्यतः वे राजा के अपने गोत्र के लोगों से नहीं लिए जाते थे।

कोसल और मगध राज्य में प्रभावशाली ब्राह्मणों और सेट्टीयों को पारितोषिक के तौर पर राजस्व ग्राम दिए जाते थे। ऐसे दान में दानग्राही को केवल राजस्व वसूलने का हक दिया जाता था , शासन करने का नहीं।

ग्रामंचल का प्रशासन गाँव के मुखिया के हाथ में रहता था। गांव का मुखिया विभिन्न नाम से पुकारा जाता था , जैसे – ग्रामभोजक , ग्रामीण या ग्रामिक। ग्रामणी पदनाम श्रीलंका में आज भी चलता है।

कहां जाता है कि बिंबिसार ने 86000 ग्रामीको को बुलाया था। इससे स्पष्ट होता है कि ग्रामप्रधान का बड़ा महत्व था और उसका राजा के साथ सीधा संबंध रहता था। वह ग्राम के राजस्व का निर्धारण करता था तथा वसूलत भी था। वह अपने इलाके में शांति व्यवस्था भी बनाए रखता था बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

सेना और कराधान

सिकंदर के आक्रमण के समय मगध के नंदवंशी राजा के पास 20000 घुड़सवार सैनिक, 2 लाख पैदल सैनिक , 2000 घोड़े तथा रथ और लगभग 6000 हाथी थे।

भारी संख्या में हाथी रहने से ही मगध के राजा अधिक शक्तिशाली माने जाते हैं।

योद्धा और पुरोहित अर्थात क्षत्रिय और ब्राह्मण करों से मुक्त थे , और कर का सारा बोझ किसानों के सिर पर था , जिनमें अधिकतर वैश्य या गृहपति थे।

वैदिक काल में लोगों द्वारा स्वेच्छापूर्वक दिए जाने वाला ‘ बलि ‘ अब अनिवार्य हो गया और उसकी वसूली के लिए अधिकारी नियुक्त थे जो ‘ बलिसाधक ‘ कहलाते थे।

ऐसा जान पड़ता है कि राजा किसानों से उनकी उपज का छठा भाग कर के रूप में लेता था।

करो का निर्धारण और वसूली गांव के मुखिया की सहायता से राजा के कर्मचारी करते थे। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

आहत मुद्राओं की अनेकानेक निधियों के मिलने से यह प्रकट होता है कि भुगतान नगद और जिंस ( वस्तुएँ ) दोनों के रूप में होता था।

पूर्वोत्तर भारत में कर धान के रूप में चुकाया जाता था।

किसानों को राजा के कार्यों के लिए बेगार भी करना पड़ता था।

जातक कथाओं के अनुसार कर के भार से बचने के लिए किसान राज छोड़ देते थे।

शिल्पियों से महीने में एक दिन राजा के लिए काम कराया जाता था और व्यापारियों से उनके माल की बिक्री कर चुंगी वसूली जाती थी। चुंगी वसूलने वाला अधिकारी ‘ शौल्किक या शुक्लाध्यक्ष ‘ कहलाता था।

प्रादेशिक राजाओं ने सभा और समिति को त्याग दिया। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

इस समय कबीलों का स्थान वर्णमूलक और जातिमूलक समुदायों ने ले लिया , इसलिए धर्मशास्त्रकारों ने जातीय नियमों और कुलाचारों को समुचित महत्व दिया। फिर भी ये नियम सामाजिक विषयों तक ही सीमित रहे।

पुरानी जनसभाओं की जगह अब ‘ परिषद ‘ नाम की एक छोटी – सी समिति बनी जिसमें केवल ब्राह्मण होते थे।

शाक्यों , लिच्छवियों आदि छोटे-छोटे गणतांत्रिक राज्यों में सभाओं का अस्तित्व अब भी बना रहा परंतु एकतांत्रिक राज्यों में वे समाप्त हो गई। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

गणतांत्रिक प्रयोग

गणतांत्रिक शासन – पद्धति या तो सिंधु घाटी में रही या पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अंतर्गत हिमालय के तराइयों में।

गणराज्यों में वास्तविक सत्ता कबायली अल्पतंत्रों के हाथ में होती थी।

शाक्यों और लिच्छवियों के गणराज्यों में शासक वर्ग एक की गोत्र और एक ही वर्ण का होता था।

वैशाली के लिच्छवियों के सभागार में 7707 राजा ( प्रतिनिधि ) बैठते थे , लेकिन ब्राह्मण इनमें शामिल नहीं थे।

मौर्योत्तर काल में मालवों और क्षुद्रकों के गणराज्य में क्षत्रियों और ब्राह्मणों तक ही नागरिकता सीमित थी दासों और मजदूरों को इससे बाहर रखा गया था। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

पंजाब में व्यास नदी के तटवर्ती एक राज्य के ऐसे ही लोग सदस्य हो सकते थे जो राजा को कम से कम एक हाथी दे सके।

शाक्यों और लिच्छवियों के प्रशासन – तंत्र में राजा , उपराजा , सेनापति और भांडागारिक ( राजकोषाध्यक्ष ) होते थे।

कहा जाता है कि लिच्छवियों के गणराज्यों में एक के ऊपर एक सात न्यायाधीश होते थे जो एक ही मामले की सुनवाई बारी-बारी से सात बार करते थे।

भारत में गणतंत्र की परम्परा की प्राचीनता बुद्ध के युग तक पाते है।

राजतंत्र में प्रजा से राजस्व पाने का दावेदार एकमात्र राजा होता था , जबकि गणतंत्र में इसका दावेदार गण या गोत्र का प्रत्येक प्रधान होता था जो राजन कहलाता था।

7707 लिच्छवि राजाओं में हर – एक का अलग-अलग कोषागार और प्रशासन तंत्र था। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

प्रत्येक राजतंत्र की नियमित स्थाई सेना होती थी और राज्य – सीमा के भीतर प्रजा के समूह या समूहों को शस्त्र – अस्त्र रखने की अनुमति नहीं थी।

राजतंत्र में ब्राह्मणों का बड़ा प्रभाव था , परन्तु आरंभिक गणराज्यों में उनका कोई स्थान नहीं था , और न उन्होंने अपने धर्मशास्त्रों में इस तरह के राज्यों को मान्यता दी थी।

गणतंत्र का संचालन अल्पतांत्रिक सभाएँ करती थी , न की कोई एक व्यक्ति , लेकिन राजतंत्र में यह काम एक व्यक्ति करता था।

गणतंत्र की परंपरा मौर्य काल से कमजोर होने लगी।

प्राचीन बौद्ध पालिग्रंथ ‘ दीघनिकाय ‘ में राज्य और राजा के उद्भव का वर्णन है। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज image

सामाजिक वर्गीकरण और विधिव्यवस्था

भारतीय विधि और न्याय – व्यवस्था का उद्भव इसी काल में हुआ।

इस काल में आकर कबायली समुदाय स्पष्टत: चार वर्गों में बँट गया – ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र।

धर्मसूत्रों में प्रत्येक वर्ण के लिए अपने-अपने कर्तव्य तय कर दिए गए , और वर्णभेद के आधार पर ही व्यवहार – विधि और दंडविधि तय हुई।

जो वर्ण जितना ऊंचा था वह उतना ही पवित्र माना गया , और व्यवहार एवं दंड – विधि में उससे उतनी ही उच्च कोटि के नैतिक आचरण की अपेक्षा की गई।

शूद्रों पर हर प्रकार की अपात्रता लाद दी गई। वे धार्मिक और कानूनी अधिकारों से वंचित कर दिए गए , और समाज में सबसे निचले दर्जे में रखे गए। उन्हें उपनयन – संस्कार का अधिकार नहीं था।

धर्मशास्त्रकारों ने यह प्रचार किया कि शूद्रों का जन्म सृष्टिकर्ता के चरण से हुआ है , इसलिए उच्चवर्ण वाले , विशेषत: ब्राह्मण , शूद्रों के संपर्क से परहेज करते , उनका छुआ खाना नहीं खाते और उनके साथ वैवाहिक संबंध नहीं करते थे। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

शूद्रों को दास , शिल्पी और कृषि मजदूर के रूप में द्विजों की सेवा करने को कहा गया।

जैन और बौद्ध संप्रदायों ने भी शूद्रों की स्थिति नहीं सुधरी। उन्हें नए धार्मिक संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी गई परंतु उनका स्थान नीचे ही रहा।

कहा गया है कि गौतम बुद्ध ब्राह्मणों , क्षत्रियों और गृहपतियों की सभा में गए , लेकिन शूद्रों की सभा में उनके जाने का कोई उल्लेख नहीं है।

बहुधा फौजदारी मामलों में दंड का विधान बदले की भावना से प्रेरित होता था। अर्थात आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत।

ब्राह्मणों के विधिग्रंथों में नियम बनाते समय विभिन्न वर्णों की सामाजिक स्थितियों का ध्यान रखा गया और देसी कबायलियों को अपने ही नियमों से शासित होने की छूट दे दी गई। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

बुद्ध के युग में प्राचीन भारतीय राजतंत्र , अर्थतंत्र और समाज का अपना वास्तविक स्वरूप निखरा।

पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में लोहे के औजारों से होने वाली खेती के फलस्वरुप उन्नत अन्न उत्पादक अर्थव्यवस्था का जन्म हुआ।

कर एवं बलि की नियमित वसूली के आधार पर बड़े-बड़े राज्य स्थापित हो सके।

इस प्रणाली को बनाए रखने के लिए वर्णव्यवस्था रची गई और हर – एक वर्ण का कर्तव्य स्पष्ट रीति से निर्धारित कर दिया गया। बुद्धकाल में राज्य और वर्ण समाज

MCQ

प्रश्न 1 – ‘ उत्तरी काली पालिशदार मृदभांड ‘ अवस्था का आरंभ काल है –

उत्तर – ईसा – पूर्व छठी सदी

प्रश्न 2 – उत्तरी काली पालिशदार मृदभांड को अंग्रेजी संक्षेपाक्षर कहते है –

उत्तर – एन. बी. पी. डब्ल्यू. अर्थात नार्दर्न ब्लैक पालिशड वेयर

प्रश्न 3 – उत्तरी भारत में ( पूर्वी उत्तर प्रदेश , बिहार ) पकी ईंटों और छल्लेदार कुओं का प्रयोग शुरू हुआ –

उत्तर – ईसा – पूर्व तीसरी सदी में

प्रश्न 4 – भारत में ” द्वितीय नगरीकरण ” की शुरुआत हुई –

उत्तर – एन.बी.पी.डब्ल्यू. काल में

प्रश्न 5 – शिल्पी और वणिक दोनों अपने -अपने प्रमुखों के नेतृत्व में श्रेणियां बनाकर संगठित थे। हमें शिल्पियों की कितनी श्रेणियां का उल्लेख मिलता है ?

उत्तर – 18

प्रश्न 6 – शिल्पी और वणिक दोनों नगरों में अपने-अपने नियत भागों में रहते थे , किस जगह ” वेस्स ” या वणिक लोगों की गली थी ?

उत्तर – वाराणसी में

प्रश्न 7 – धातु के सिक्के सबसे पहले किस के युग में मिलते हैं ?

उत्तर – गौतम बुद्ध के

प्रश्न 8 – पंचमार्क मुद्राओं की सबसे पुरानी निधियाँ ( होर्ड्स ) मिली है –

उत्तर – पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध में

प्रश्न 9 – पालि ग्रंथों में कितने प्रकार के गाँव बताए गए हैं ?

उत्तर – तीन प्रकार

प्रश्न 10 – बुद्धकाल में किसान अपनी उपज का कितना भाग कर या राजांश के रूप में चुकाते थे ?

उत्तर – छठा भाग

प्रश्न 11 – पालि शब्द ‘ गहपति ‘ का तात्पर्य है –

उत्तर – धनी किसान

प्रश्न 12 – बुद्धकाल में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में पैदा होने वाला मुख्य अनाज था –

उत्तर – चावल

प्रश्न 13 – बुद्धकाल में राजा अनेक अधिकारियों की सहायता से शासन करता था ,उच्च कोटि के अधिकारी कहलाते थे –

उत्तर – महामात्र

प्रश्न 14 – किस मंत्री ने वैशाली के लिच्छवियों के बीच फूट डालकर लिच्छवि गणराज्य पर अजातशत्रु को प्रभुत्व दिलाया ?

उत्तर – वर्षकार

प्रश्न 15 – बुद्धकाल में ‘ बलि ‘ की वसूली करने वाले अधिकारी क्या कहलाते थे ?

उत्तर – बलिसाधक

प्रश्न 16 – चुंगी वसूलने वाला अधिकारी क्या कहलाता था ?

उत्तर – शौल्किक

प्रश्न 17 – भारत में गणतंत्र की परम्परा की प्राचीनता पाते है –

उत्तर – बुद्ध के युग तक

प्रश्न 18 – वैशाली के लिच्छवियों के सभागार में कितने राजा ( प्रतिनिधि ) बैठते थे ?

उत्तर – 7707

प्रश्न 19 – राजतंत्र में प्रजा से राजस्व पाने का दावेदार एकमात्र होता था –

उत्तर – राजा

प्रश्न 20 – किस प्राचीन बौद्ध पालिग्रंथ में राज्य और राजा के उद्भव का वर्णन है ?

उत्तर – दीघनिकाय

प्रश्न 21 – भारतीय विधि और न्याय – व्यवस्था का उद्भव हुआ –

उत्तर – बुद्ध काल में

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *