गुप्त काल का जीवन
गुप्त काल का जीवन :- मौर्य राजाओं के विपरीत गुप्त राजाओं ने ‘ परमेश्वर ‘ , ‘ महाराजाधिराज ‘ , ‘ परमभट्टारक ‘ आदि आडंबर – पूर्ण उपाधियां धरण की।
राजपद वंशानुगत था , परंतु ज्येष्ठाधिकार की अटल प्रथा के अभाव में राजसत्ता सीमित थी।
राजगद्दी हमेशा ज्येष्ठ पुत्र को ही नहीं मिलती थी। इससे अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी जिसका लाभ सामंत और उच्चाधिकारी उठा सकते थे।
गुप्त राजाओं ने ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान दिए और ब्राह्मणों ने राजा की तुलना विभिन्न देवताओं से कर उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया।
राजा को रक्षा और पालन करने वाले भगवान विष्णु के रूप में देखा जाने लगा और लक्ष्मी विष्णु की पत्नी के रूप में सिक्कों की पीठ पर सदा अंकित होती थी।
राजा स्थानी सेना रखता था , और सामंतों द्वारा समय-समय पर प्रदत्त सेनाएं उसकी पूरक होती थी।
अब अश्वचालित रथ के दिन समाप्त हो गए और घुड़सवारों की महत्ता बढ़ गई। घोड़े पर सवार होकर तीर चलाना अच्छा रण – कौशल बन गया था। गुप्त काल का जीवन
गुप्त काल में भूमिसंबंधी करों की संख्या बढ़ गई , परंतु वाणिज्य – करों की संख्या घटी।
संभवत: राज्य उपज का चौथे भाग से लेकर छठे भाग तक कर के रूप में लेता था।
ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले राजकीय अधिकारी अपने निर्वाह के लिए किसानों से पशु , अन्न , खाट आदि वस्तुएं लेते थे।
मध्य और पश्चिम भारत में ग्रामवासियों से सरकारी सेना और अधिकारियों की सेवा के लिए बेगार भी कराया जाता था जो ‘ विष्टि ‘ कहलाता था।
पहले की अपेक्षा गुप्तकाल में न्याय – पद्धति अधिक विकसित थी। इस काल में अनेक विधि – ग्रंथ संकलित किए गए।
पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून भली – भांति परिभाषित और पृथक्कृत हुए। उत्तराधिकार के बारे में विस्तृत नियम निर्धारित हुए।
पहले की भांति बहुत – सारे नियमों का आधार वर्णभेद रहा। गुप्त काल का जीवन
नियम – कानून बनाए रखना राजा का कर्तव्य था। वह ब्राह्मण पुरोहितों की सहायता से न्याय – निर्णय करता था।
शिल्पी , वणिक आदि के संगठनों ( श्रेणिओं ) पर उनके अपने ही नियम लागू होते थे।
वैशाली और इलाहाबाद के निकटवर्ती भीटा से प्राप्त मुहरों से पता चलता है कि गुप्तकाल में श्रेणियां अच्छी अवस्था में चल रहीं थी।
गुप्तों का अधिकारी – वर्ग मौर्यों जितना बड़ा नहीं था।
गुप्त काल में सबसे बड़े अधिकारी ‘ कुमारामात्य ‘ होते थे। उन्हें राजा उनके अपने ही प्रांत में नियुक्त करता था और वे नगद वेतन पाते थे।
गुप्त काल के प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति केवल उच्च वर्णों तक सीमित नहीं थी। परंतु , अनेक पदों का प्रभार एक ही व्यक्ति के हाथ में सौंपा जाने लगा और पद वंशानुगत हो गए। इससे संभवत: राजकीय नियंत्रण कमजोर हुआ। गुप्त काल का जीवन
गुप्त राजाओं ने प्रांतीय और स्थानीय शासन की पद्धति को संगठित किया। राज्य कई ‘ भुक्तियों ‘ अर्थात प्रांतों में विभक्त था और भक्ति का शासन ‘ उपरीक ‘ के हाथों में था।
भुक्तियाँ कई ‘ विषयों ‘ अर्थात जिलों में विभक्त थी जिसका प्रशासक ‘ विषयपति ‘ होता था।
पूर्वी भारत में प्रत्येक विषय को ‘ वीथियों ‘ में बांटा गया था और ‘ वीथियाँ ‘ ग्रामों में विभाजित थी।
गुप्त काल में गांव का मुखिया अधिक महत्वपूर्ण हो गया। उनकी अनुमति के बिना जमीन की खरीद – बिक्री नहीं हो सकती थी। वह ग्राम श्रेष्ठों की सहायता से गांव का काम-काज देखता था।
नगर के प्रशासन में व्यवसायियों के संगठनों की अच्छी साझेदारी रहती थी।
उत्तरी बंगाल ( बांग्लादेश ) के ‘ कोटिवर्ष ‘ विषय की प्रशासनिक परिषद में मुख्य वणिक , मुख्य व्यापारी और मुख्य शिल्पी शामिल थे। भूमि की खरीद – बिक्री में उनकी सम्मति आवश्यक समझी जाती थी। गुप्त काल का जीवन
मालवा के मंदसौर और इंदौर में रेशम बुनकरों की अपनी ख़ास श्रेणी थी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर जिले में तेलियों की अपनी श्रेणियां थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन श्रेणियों , खासकर वणिकों की श्रेणियां को कोई खास छूटों की सुविधा दी गई थी।
श्रेणियां अपने सदस्यों के मामले देखती थी और श्रेणी के नियम , कानून और परंपरा का उल्लंघन करने वालों को सजा देती थी।
उपर्युक्त प्रशासन – पद्धति केवल उत्तरी बंगाल , बिहार , उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के कुछ संलग्न क्षेत्रों में ही लागू थी , जहां गुप्त राजा अपने अधिकारियों की सहायता से प्रत्यक्ष शासन करते थे।
साम्राज्य की अधिकतर भाग सामंतों या मंडलेश्वरों के हाथों में था। गुप्त काल का जीवन
साम्राज्य की सीमावर्ती सामंतों को तीन जिम्मेदारियां पूरी करनी होती थी। वे सम्राट के दरबार में स्वयं उपस्थित होकर सम्मान निवेदन करते , नजराना चढ़ाते और विवाहार्थ अपनी पुत्री समर्पित करते थे। इसके बदले उन्हें अपने क्षेत्र पर अधिकार का शासन – पत्र मिलता था।
गरुड़ छापवाली राजकीय मुहर शासन – पत्रों पर लगती थी।
गुप्त काल में पुरोहितों और प्रशासकों को आर्थिक और प्रशासनिक छूट दी जाती थी जिसे सामंतवाद को बल मिला।
भूमि – अनुदान प्रथा का आरंभ दक्कन के सातवाहनों ने किया , और गुप्तकाल में , खास कर मध्य प्रदेश में , तो यह सामान्य प्रथा बन गई।
पुरोहितों और अन्य धर्माचार्यों को कर – मुक्त भूमि दान में दी जाती थी और उन्हें वैसे सभी कर उगने का अधिकार भी दे दिया जाता था जो अन्यथा राजकोष में जाते थे।
जो ग्राम अनुदान में दे दिये जाता थे उनमें राजा के अधिकारियों और अमलों का प्रवेश वर्जित था। अनुदानभोगी वहां के अपराधकर्मियों को सजा भी दे सकता था। गुप्त काल का जीवन
गुप्त काल में अधिकारियों का वेतन का भुगतान जमीन देकर किया जाता था या नहीं यह स्पष्ट नहीं है।
स्वर्णमुद्रा की बहुतायत से पता चलता है कि ऊंचे अधिकारियों को नगद वेतन देने की परिपाटी चलती रही , परंतु उनमें से कुछ को भूमि अनुदान भी दिया जाता था।
चूंकि साम्राज्य के प्रशासन संबंधी बहुत सारे काम सामंतों और अनुदानभोगियों के हाथों ही संपन्न हो जाते थे , इसलिए मौर्यों की भांति गुप्तों को अधिक अधिकारी – वर्ग रखने की आवश्यकता नहीं थी। दूसरे , मौर्य राज्य की भांति गुप्त राज्य बड़े पैमाने पर आर्थिक क्रियाकलाप में संलग्न नहीं था।
गुप्तों के समय ग्राम और नगर के प्रशासन में शिल्पियों , वणिकों , श्रेष्ठियों आदि के भाग लेने से अधिकारियों का लंबा ताँता आवश्यक नहीं रह गया।
गुप्तों का मौर्यों के भांति न लंबा – चौड़ा प्रशासन – तंत्र था , और न उन्हें उसकी सहायता आवश्यकता ही थी। कई दृष्टियों से गुप्तों की राजनीतिक प्रणाली में समांती रंग दिखाई देता है। गुप्त काल का जीवन
व्यापार और कृषिमूलक अर्थव्यवस्था की प्रवृत्तियां
गुप्तकालीन आर्थिक जीवन की कुछ झलक हमें चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान से मिलती है। वह बताता है कि मगध , नगरों और धनवानों से भरा – पूरा था और धनी लोग बौद्ध धर्म का संपोषण करते और दान देते थे
प्राचीन भारत के गुप्त राजाओं ने सबसे अधिक स्वर्णमुद्राएँ जारी की , जो उनके अभिलेखों में ‘ दीनार ‘ कहीं गई है।
स्वर्ण मुद्राओं पर गुप्त राजाओं के स्पष्ट चित्र हैं और इनसे उनकी युद्धप्रियता और कलाप्रियता का संकेत मिलता है।
गुप्त मुद्राएं स्वर्णोंश में उतनी शुद्ध नहीं है जितनी कुषाण – मुद्राएं।
गुजरात – विजय के बाद गुप्त राजाओं ने बड़ी संख्या में चांदी के सिक्के भी जारी किए , जो केवल स्थानीय लेन – देन में चलते थे , क्योंकि पश्चिमी क्षत्रपों को के यहां चांदी की सिक्कों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। गुप्त काल का जीवन
कुषाणों के विपरीत, गुप्तों के तांबे के सिक्के बहुत ही कम मिलते हैं। इससे प्रकट होता है कि जन – सामान्य में मुद्रा का प्रयोग जितना कुषाणों के समय होता था उतना अब नहीं रहा।
पूर्व कल की तुलना में , विदेशी व्यापार में हास दिखाई देता है। फिर भी 550 ई तक भारत पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ कुछ – कुछ व्यापार करता रहा , जहां वह रेशम भेजता था।
550 ई के आसपास पूर्वी रोमन साम्राज्य के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली। इससे भारत में निर्यात – व्यापार पर बुरा असर पड़ा।
छठी सदी का मध्य आते – आते भारतीय रेशम की मांग विदेशों में कमजोर पड़ गई।
पांचवी सदी के मध्य में रेशम बुनकरों की एक अच्छी एक श्रेणी पश्चिम भारत स्थित अपने मूल निवास स्थान लाट देश को छोड़कर मंदसौर चली गई , और वहां उन बुनकरों ने अपना मूल व्यवसाय छोड़कर अन्य व्यवसायों को अपनाया।
गुप्त काल में , विशेषत: मध्य प्रदेश में एक उल्लेखनीय बात ब्राह्मण पुरोहितों का भू स्वामी के रूप में उदय था।
ब्राह्मण पुरोहितों को दान में भूमि देने से बहुत सी परती जमीन आबाद हुई।
मध्य और पश्चिम भारत में किसानों से बेगार भी लिया जाता था। गुप्त काल का जीवन
सामाजिक गतिविधि
ब्राह्मणों की श्रेष्ठता गुप्त काल में भी बनी रही। ब्राह्मण गुप्त वंशियों को क्षत्रिय मानने लगे जबकि वे मूलत: वैश्य थे।
ब्राह्मणों ने गुप्त राजाओं को देवताओं के गुणों से अलंकृत रूप में चित्रित किया। इससे गुप्त राजाओं की हैसियत धर्मशास्त्र – सम्मत हो गई और वे ब्राह्मण प्रधान वर्ण – व्यवस्था के परम प्रतिपालक हो गए।
ब्राह्मणों ने बहुत – से विशेषाधिकार अर्जित किए जो लगभग पांचवी सदी में रचित ‘ नारद स्मृति ‘ में गिनाए गए हैं।
वर्ण अनेक जातियों – उपजातियों में बंट गए जिसके दो कारण थे। भारी संख्या में विदेशों से आए लोग भारतीय समाज में घुल मिल गए और उन विदेशियों का हर समूह एक खास जाति समझा जाने लगा।
चूंकि विदेशी लोग विजेता के रूप में आए इसलिए समाज में उन्हें क्षत्रिय का स्थान मिला।
पांचवी सदी का अंत होते-होते हूण लोग यहां आए और अंतत: राजपूतों के 36 कुलों में से एक कुल मान लिए गए। गुप्त काल का जीवन
जातियों की संख्या बढ़ाने का अन्य कारण था ग्राम – अनुदान की प्रक्रिया में बहुत – से जनजातीय लोगों का ब्राह्मणीय समाज में समा जाना।
जनजातीय सरदार लोग उच्च – कुल के माने गए। किन्तु उनके सामान्य स्वजनों को नीचे कुल का माना गया , और हर जनजाति अपने नए जीवन में एक जाति के रूप में अवतीर्ण हुआ।
इस काल में शूद्रों की स्थिति सुधरी। अब उन्हें रामायण , महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार मिल गया। वे अब कृष्णा नमक नए देवता की पूजा भी कर सकते थे तथा उन्हें कुछ गृह संस्कारों या घरेलू अनुष्ठानों का भी अधिकार मिला।
यह समझ जा सकता है कि ये सभी शूद्रों की आर्थिक स्थिति में हुए सुधार के ही परिणाम थे। सातवीं सदी में शूद्रों की पहचान मुख्यतः कृषकों के रूप में होने लगी।
इस काल में अछूतों की संख्या में वृद्धि हुई , विशेष कर चांडालो की संख्या में।
चांडाल समाज में बहुत ही पहले ईसा – पूर्व पांचवी सदी से ही दिखाई देते हैं। गुप्त काल का जीवन
ईशा की पांचवी सदी में आकर उनकी संख्या इतनी बढ़ गई , और उनकी अपात्रताएं इतनी प्रखर हो गई , कि उनकी और चीनी यात्री फाह्यान की दृष्टि बरबस खिंच गई।
फा – हियान ने लिखा है की चांडाल गांव के बाहर ही बसते थे और मांस का व्यवसाय करते थे , जब कभी भी नगर में प्रवेश करते , उच्च वर्ण के लोग उनसे दूर ही रहते थे क्योंकि वे मानते थे कि चांडालो के स्पर्श से सड़क अपवित्र हो जाती है।
गुप्त काल में शूद्रों के भांति स्त्रियों को भी रामायण , महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार प्राप्त हुआ , और उनके लिए कृष्ण का पूजन विहित किया गया।
लेकिन गुप्त काल के पहले और गुप्त काल में भी उच्च वर्णों की स्त्रियों को स्वतंत्र जीवन – निर्वाह का साधन प्राप्त नहीं था।
गुप्त काल के उच्च वर्णों के लोग अधिक से अधिक जमीन अर्जित करते गए , जिससे उनमें अधिक से अधिक पत्नी रखने और संपत्ति बटोरने की प्रवृत्ति आई। पितृतंत्रात्मक व्यवस्था में वे पत्नी को निजी संपत्ति समझने लगे।
पति के मरने के बाद उसकी पत्नी का पति की चिता में आत्मदाह करने का पहला अभिलेखीय उदाहरण गुप्तकाल में ही 510 ईस्वी में मिलता है। गुप्त काल का जीवन
गुप्तोत्तर कल की कुछ स्मृतियों में कहा गया है कि यदि पति खो जाए , मर जाए , नपुंसक हो जाए , संन्यास ले ले या पतित हो जाए तो स्त्री पुनर्विवाह कर सकती है।
उच्च वर्णों की स्त्रियों पर पराधीनता का मुख्य कारण यह था कि वे अपने जीवन – निर्वाह के लिए पूर्णत: अपने पतियों पर आश्रित रहती थी। उन्हें स्वामित्वाधिकार नहीं था।
सबसे पुरानी स्मृति में कहा गया है कि विवाह के समय वधू को भेंट के रूप में मां-बाप द्वारा दिए गए आभूषण , अलंकरण वस्त्र आदि सामान ‘ स्त्रीधन ‘ होते हैं।
गुप्तकाल और गुप्तोत्तर कल की स्मृतियों में तो इन भेटों का दायरा काफी बढ़ाया गया तथा विवाह के समय वधू के माता-पिता से तथा सास – ससुर से उसे जो कुछ उपहार मिलता था वह ‘ स्त्रीधन ‘ माना गया।
छठी सदी के स्मृतिकार कात्यायन का कहना है कि स्त्री अपने स्त्रीधन के साथ अपनी अचल संपत्ति को भी बेच सकती है तथा गिरवी रख सकती है।
कात्यायन के अनुसार जमीन में स्त्रियों का हिस्सा मिलता था , परंतु भारत में पितृतंत्रात्मक समाज में धर्मशास्त्र के अनुसार सामान्यत: बेटी को अचल संपत्ति का उत्तराधिकार नहीं मिलता था। गुप्त काल का जीवन
बौद्ध धर्म की अवस्था
गुप्तकाल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलना समाप्त हो गया।
फाह्यान के अनुसार बौद्ध धर्म बहुत समुन्नत स्थिति में था। लेकिन यथार्थ में इस धर्म का जो उत्कर्ष अशोक और कनिष्क के दोनों में था वह गुप्त काल में नहीं रहा। परन्तु , कुछ स्तूपों और विहारों का निर्माण हुआ , तथा नालंदा बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गया। गुप्त काल का जीवन
भागवत संप्रदाय का उद्भव और विकास
भागवत धर्म का केंद्र बिंदु ‘ भगवत ‘ या विष्णु की पूजा है। इसका उद्धव मौर्योत्तर कल में हुआ।
वैदिक काल में विष्णु गौण देवता था जो सूर्य का प्रतिरूप और उर्वरता – पंथ का देवता था।
ईसा – पूर्व दूसरी सदी में आकर विष्णु , नारायण नमक देवता से जुड़ गया और नारायण – विष्णु कहलने लगा।
नारायण मूलतः अवैदिक जनजातीय देवता था। वह भगवत कहलाता था , और उसका उपासक भागवत।
जो विष्णु और नारायण दोनों एक हो गए तब दोनों के उपासक भी धर्म की एक ही छत्रछाया में आ गए। पहला वेदमूलक देवता था और दूसरा अवैदिक।
आगे – चलकर विष्णु पश्चिमी भारत के निवासी वृष्णि – कुल के एक पौराणिक महापुरुष से एक हो गया , जो कृष्ण वासुदेव कहलाता था। गुप्त काल का जीवन
कृष्ण की विष्णु से अभिन्नता दिखाने के उद्देश्य से महान गाथाकाव्य ‘ महाभारत ‘ को नया रूप दिया गया।
200 ईसा – पूर्व में उपवासों की ये तीनों धाराएं और उनके तीनों उपास्य देव एक हो गए। भागवत या वैष्णव संप्रदाय का उद्भव इसी का परिणाम है।
भागवत संप्रदाय का मुख्य तत्व है भक्ति और अहिंसा।
यह नया धर्म काफी उदार था जिसने विदेशियों को भी अपनी ओर खींचा। यह शिल्पियों और वणिकों को भी भाया जो सातवाहनों और कुषाणों के काल में महत्वपूर्ण हो गए थे।
भगवदगीता में वैष्णव धर्म का प्रतिपादन किया गया है। विष्णुपुराण में और कुछ – कुछ विष्णुस्मृति में भी इस संप्रदाय का प्रतिपादन है।
गुप्तकाल में महायान बौद्ध धर्म की तुलना में भागवत या वैष्णव संप्रदाय अधिक प्रभावी हो गया।
वैष्णव संप्रदाय ने अवतारवाद का उपदेश दिया और इतिहास को विष्णु के 10 अवतारों के चक्र के रूप में प्रतिपादित किया गया। गुप्त काल का जीवन
विष्णु का प्रत्येक अवतार धर्म के उद्धार के लिए आवश्यक माना गया और धर्म का अर्थ राज्य द्वारा संरक्षित वर्णविभाजित समाज और पितृतंत्रात्मक परिवार की संस्था समझ गया।
छठी सदी में आकर विष्णु की गणना शिव और ब्रह्मा के साथ त्रिदेव में होने लगी।
छठी सदी के बाद विष्णु की पूजा से मिलने वाले पुण्यफलों के प्रचारार्थ बहुत – सी पुस्तकें लिखी गई , जिनमें सबसे प्रमुख है भागवतपुराण।
मध्य काल में पूर्वी भारत में ‘ भागवत – घर ‘ स्थापित हुए जहां विष्णु की पूजा और उनकी लीलाओं का कीर्तन होता था। गुप्त काल का जीवन
विष्णु के उपासकों के लिए ‘ विष्णुसहस्त्रनाम ‘ आदि बहुत से स्रोत लिखे गए।
गुप्तवंश के कुछ राजा शिव के उपासक थे जो संहार और या प्रलय के देवता हैं।
गुप्त काल में मूर्ति – पूजा ब्राह्मणीय धर्म का सामान्य लक्षण हो गई।
गुप्तवंशी राजाओं ने विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के प्रति सहनशीलता का मार्ग अपनाया।
इस समय बौद्ध धर्म के चरित्र में परिवर्तन आया जिसके क्रम में ब्राह्मणी धर्म के बहुत – से तत्व बौद्ध धर्म में अपना लिए गए। गुप्त काल का जीवन
कला
गुप्त काल प्राचीन भारत का स्वर्ण – युग कहा जाता है परंतु यह आर्थिक क्षेत्र में सही नहीं है क्योंकि इस काल में उत्तर भारत में कई नगरों का पतन हुआ।
समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय कला और साहित्य दोनों के संपोषक हुए।
समुद्रगुप्त को सिक्कों पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है और चंद्रगुप्त – द्वितीय का दरबार ‘ नवरत्न ‘ अर्थात बड़े-बड़े विद्वानों से सुशोभित था।
प्राचीन भारत में कला अधिकतर धर्म से अनुप्राणित होती थी।
मौर्य काल और मौर्योत्तर काल में कला को बौद्ध धर्म से काफी बढ़ावा मिला।
गुप्त काल में बनी दो मीटर से भी ऊंची बुद्ध की कांस्यमूर्ति भागलपुर के निकट सुल्तानगंज में मिली है। फाह्यान ने 25 मीटर से भी अधिक ऊंची बुद्धि की एक ताम्रमूर्ति देखी थी लेकिन उसका अब पता नहीं है।
गुप्तकाल में सारनाथ और मथुरा में बुद्ध की सुंदर प्रतिमाएं बनी। गुप्त काल का जीवन
गुप्तकालीन बौद्ध कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है अजंता की चित्रावली। यद्यपि इस चित्रावली में ईसा की पहली सदी से लेकर सातवीं सदी के चित्र शामिल हैं , फिर भी इनमें अधिकतर गुप्तकालीन है। इन चित्रों में गौतम बुद्ध और उनके पिछले जन्मों की विभिन्न घटनाएं चित्रित हैं।
गुप्त राजा अजंता चित्रकारियों के संरक्षक नहीं थे।
चूंकि गुप्तवंशी राजा हिंदू धर्म के संपोशाक थे , इसलिए पहली बार हम गुप्त काल में ही विष्णु , शिव और अन्य हिंदू देवताओं की प्रतिमा पाते हैं।
वास्तुकला में गुप्त काल पिछड़ा था। वास्तुकला के नाम पर ईंट के बने कुछ मंदिर उत्तर प्रदेश में मिले है। एक पत्थर का मंदिर भी मिला है।
कानपुर में ‘ भीतरगांव ‘ , गाजीपुर के ‘ भीतरी ‘ और झांसी के ‘ देवगढ़ ‘ के ईंट के मंदिर उल्लेखनीय है।
नालंदा का बौद्ध महाविहार पांचवी सदी में बना और इसकी सबसे पहले की संरचना , जो ईंट की है , गुप्तकाल में बनी। गुप्त काल का जीवन
साहित्य
गुप्तकाल लौकिक साहित्य की सृजन के लिए उल्लेखनीय है। भास के तेरह नाटक इसी काल के हैं।
शूद्रक का लिखा नाटक ‘ मृच्छकटिक ‘ या ‘ माटी की खिलौना – गाड़ी ‘, जिसमें निर्धन ब्राह्मण के साथ वेश्या का प्रेम वर्णित है , प्राचीन नाटकों में सर्वोत्कृष्ट माना जाता है।
गुप्तकाल , कालिदास की कृतियों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। उनका ‘ अभिज्ञानशाकुंतलम ‘ विश्व की सौ उत्कृष्टम साहित्यिक कृतियों में एक है। इसमें राजा दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम की कथा चित्रित है जिनके पुत्र ‘ भरत ‘ नामी राजा हुआ।
‘ अभिज्ञानशाकुंतलम ‘ प्रथम भारतीय रचना है जिसका अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में हुआ। ऐसी दूसरी रचना है – भगवदगीता।
गुप्तकाल में लिखे नाटकों के बारे में दो बातें उल्लेखनीय हैं – प्रथम सभी नाटक सुखांत हैं और द्वितीय उच्च तथा निम्न वर्ण के लोग अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं। इन नाटकों में , स्त्री और शूद्र प्राकृत बोलते हैं जबकि उच्च वर्ण के लोग संस्कृत। गुप्त काल का जीवन
इस काल में धार्मिक साहित्य की रचना में भी भारी प्रगति हुई जिनमें ‘ रामायण ‘ और ‘ महाभारत ‘ महत्वपूर्ण है जो चौथी सदी में आकर लगभग पूरे हो चुके थे।
रामायण की कहानी में दो आधारभूत नैतिक तत्व हैं। पहला यह है कि इसमें परिवार रूपी संस्था का आदर्श दिखाया गया है। दूसरा , यह है कि रावण बुराई के और राम भलाई के प्रतीक हैं तथा अंत में असत्य पर सत्य की और कुव्यवस्था पर सुव्यवस्था की जीत होती है।
महाभारत की मुख्य कथा की अपेक्षा राम की कथा कहीं अधिक सामाजिक और धार्मिक प्रभाव डाल सकी।
महाभारत की कथा में भी दुष्ट शक्ति का इष्ट शक्ति की विजय दिखाई गई है।
भगवदगीता महाभारत का महत्वपूर्ण अंश है जिसमें शिक्षा दी गई है कि वर्ण और जाति के अनुसार जिसका जो कर्तव्य निर्धारित है उसे उस कर्तव्य का पालन हर हालत में किसी प्रतिफल की कामना के बिना करना चाहिए।
पुराणों में जो अधिक पहले के हैं उनका अंतिम संकलन – संपादन गुप्तकाल में हुआ। ये मिथकों , आख्यानों और प्रवचनों से भरे हैं। गुप्त काल का जीवन
इस काल में बहुत – सी स्मृतियों का भी संकलन किया गया जिनमें सामाजिक और धार्मिक नियम – कानून पद्य में है। स्मृतियों पर टिकाएं लिखने की परंपरा गुप्तकाल के बाद शुरू हुई।
गुप्तकाल में पाणिनि और पातांजलि के ग्रंथों के आधार पर संस्कृत व्याकरण का भी विकास हुआ।
‘ अमरकोश ‘ का संकलन चंद्रगुप्त द्वितीय की सभा के नवरत्न अमरसिंह ने किया।
इस काल में जटिल अलंकारिक शैली का विकास हुआ , जो पुरानी सरल संस्कृत साहित्य की शैली से भिन्न है।
इस समय गद्य की अपेक्षा पद्य पर अधिक जोर पाते हैं। संस्कृत गुप्तों की शासकीय भाषा थी।
इस काल में पहली बार धर्मनिरपेक्ष साहित्य की बहुत – सी रचनाएं पाई जाती है। गुप्त काल का जीवन
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
गणित के क्षेत्र में इस कल का महत्वपूर्ण ग्रंथ है ‘ आर्यभटीय ‘। इसके रचयिता आर्यभट्ट पाटलिपुत्र के निवासी थे।
इलाहाबाद जिले में मिले 448 ई के एक गुप्त अभिलेख से पता चलता है कि ईसा की पांचवी सदी के आरंभ में भारत में दशमलव पद्धति ज्ञात थी।
खगोलशास्त्र में ‘ रोमकसिद्धांत ‘ नामक पुस्तक संकलित की गई जिसमें यूनानी चिंतकों का प्रभाव है।
गुप्तकालीन शिल्पकारों ने लौह और कांस्य कृतियों में अपने कौशल को प्रकट किया।
लोहे की कारीगरी का सबसे अच्छा उदाहरण दिल्ली के महरौली स्थित लौह – स्तंभ है जिसका निर्माण ईसा की चौथी सदी में हुआ। तब से लेकर आज तक इसमें जंग नहीं लगा है। गुप्त काल का जीवन
MCQ
प्रश्न 1 – गुप्त राजाओं ने आडंबर – पूर्ण उपाधियां धरण की –
उत्तर – परमेश्वर , महाराजाधिराज ,परमभट्टारक
प्रश्न 2 – गुप्त काल में किस करों की संख्या बढ़ गई ?
उत्तर – भूमिसंबंधी कर
प्रश्न 3 – ‘ विष्टि ‘ किसे कहा जाता था ?
उत्तर – बेगार
प्रश्न 4 – किस काल में पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून भली – भांति परिभाषित और पृथक्कृत हुए ?
उत्तर – गुप्तकाल में
प्रश्न 5 – शिल्पी , वणिक आदि के संगठनों ( श्रेणिओं ) पर किस के नियम लागू होते थे ?
उत्तर – उनके अपने ही
प्रश्न 6 – किस जगह से प्राप्त मुहरों से पता चलता है कि गुप्तकाल में श्रेणियां अच्छी अवस्था में चल रहीं थी ?
उत्तर – वैशाली और भीटा ( इलाहाबाद )
प्रश्न 7 – गुप्त काल में सबसे बड़े अधिकारी क्या कहलाते थे ?
उत्तर – कुमारामात्य
प्रश्न 8 – गुप्त राजाओं ने शासन की कौन सी पद्धति को संगठित किया ?
उत्तर – प्रांतीय और स्थानीय
प्रश्न 9 – गुप्त राज्य कई ‘ भुक्तियों ‘ अर्थात प्रांतों में विभक्त था और भक्ति का शासन किस के हाथों में होता था ?
उत्तर – उपरीक
प्रश्न 10 – भुक्तियाँ कई ‘ विषयों ‘ अर्थात जिलों में विभक्त थी जिसका प्रशासक होता था –
उत्तर – विषयपति
प्रश्न 11 – भूमि – अनुदान प्रथा का आरंभ दक्कन में किसने किया ?
उत्तर – सातवाहनों ने
प्रश्न 12 – गुप्तों की राजनीतिक प्रणाली में दिखाई देता है –
उत्तर – समांती रंग
प्रश्न 13 – प्राचीन भारत के किन राजाओं ने सबसे अधिक स्वर्णमुद्राएँ जारी की , जो उनके अभिलेखों में ‘ दीनार ‘ कहीं गई है ?
उत्तर – गुप्त राजाओं ने
प्रश्न 14 – किस क्षेत्र की विजय के बाद गुप्त राजाओं ने बड़ी संख्या में चांदी के सिक्के भी जारी किए ?
उत्तर – गुजरात
प्रश्न 15 – गुप्तवंशी मूलतः किस वर्ण के थे ?
उत्तर – वैश्य
प्रश्न 16 – गुप्तकाल में ब्राह्मणों ने बहुत – से विशेषाधिकार अर्जित किए जो किस ग्रंथ में गिनाए गए हैं ?
उत्तर – नारद स्मृति
प्रश्न 17 – किस काल में शूद्रों की स्थिति सुधरी तथा उन्हें रामायण , महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार मिल गया ?
उत्तर – गुप्तकाल में
प्रश्न 18 – किस सदी में शूद्रों की पहचान मुख्यतः कृषकों के रूप में होने लगी ?
उत्तर – सातवीं सदी में
प्रश्न 19 – किस काल में स्त्रियों को रामायण , महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार प्राप्त हुआ ?
उत्तर – गुप्तकाल में
प्रश्न 20 – सती प्रथा का पहला अभिलेखीय उदाहरण किस काल में प्राप्त होता है ?
उत्तर – गुप्तकाल में
प्रश्न 21 – किस स्मृतिकार का कहना है कि स्त्री अपने स्त्रीधन के साथ अपनी अचल संपत्ति को भी बेच सकती है तथा गिरवी रख सकती है ?
उत्तर – कात्यायन
प्रश्न 22 – कौन सा काल प्राचीन भारत का स्वर्ण – युग कहा जाता है ?
उत्तर – गुप्त काल
प्रश्न 23 – किस गुप्त राजा को सिक्कों पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है ?
उत्तर – समुद्रगुप्त
प्रश्न 24 – नालंदा का बौद्ध महाविहारइसकी सबसे पहले की संरचना ईंट की है किस काल में बनी थी ?
उत्तर – गुप्तकाल में
प्रश्न 25 – मृच्छकटिक नाटक के लेखक कौन थे ?
उत्तर – शूद्रक
प्रश्न 26 – प्रथम भारतीय रचना , जिसका अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में हुआ –
उत्तर – अभिज्ञानशाकुंतलम
प्रश्न 27 – गुप्तकाल के सभी नाटक सुखान्त है इनमें भद्रजन संस्कृत बोलते है। स्त्री और शुद्रों की भाषा है :-
उत्तर – प्राकृत
प्रश्न 28 – किस गुप्त शासक का दरबार ‘ नवरत्न ‘ अर्थात बड़े-बड़े विद्वानों से सुशोभित था ?
उत्तर – चंद्रगुप्त द्वितीय
प्रश्न 29 – गुप्त काल में बनी दो मीटर से भी ऊंची बुद्ध की कांस्यमूर्ति कहाँ से मिली है ?
उत्तर – सुल्तानगंज से
प्रश्न 30 – स्मृतियों पर टिकाएं लिखने की परंपरा किस काल के बाद शुरू हुई ?
उत्तर – गुप्तकाल
प्रश्न 31 – अमरकोश का संकलन चंद्रगुप्त द्वितीय की सभा के किस नवरत्न ने किया ?
उत्तर – अमरसिंह
प्रश्न 32 – गुप्तों की शासकीय भाषा कौन थी ?
उत्तर – संस्कृत
प्रश्न 33 – रोमकसिद्धांत नामक पुस्तक का संबंध है –
उत्तर – खगोलशास्त्र से
प्रश्न 34 – आर्यभट्ट कहाँ के निवासी थे ?
उत्तर – पाटलिपुत्र