प्राचीन से मध्यकाल की ओर
प्राचीन से मध्यकाल की ओर :- प्राचीन भारतीय समाज जो धीरे – धीरे मध्यकालीन समाज में बदला , उसका मूल कारण था भूमिअनुदान की प्रथा।
भूमिअनुदान की प्रथा ऐसे गंभीर संकट के करण चली जो प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के ऊपर मंडरा रहा था। वर्णमूलक सामाजिक व्यवस्था में वर्ण अपने-अपने नियम कर्मों से विमुख होने लगे थे। निचले वर्ण उच्च वर्ण बनने और उनके कर्मों को अपनाने लगे थे। इससे ‘ वर्ण संकट ‘ उत्पन्न हुआ , अर्थात एक वर्ण दूसरे वर्ण में मिलने लगा।
उपरोक्त संकट से निपटने के लिए ‘ मनुस्मृति ‘ बताती है कि शूद्रों और वैश्यों को अपने-अपने कर्मों से विचलित नहीं होने देना चाहिए।
दूसरा महत्वपूर्ण कदम था पुरोहितों और अधिकारियों को वेतन और पारिश्रमिक की जगह बड़े पैमाने पर भूमि का अनुदान देना। इससे राज – प्रदत्त क्षेत्रों में करों की वसूली करने और शांति व्यवस्था बनाए रखने का भार अनुदानभोगियों के ऊपर चला जाता था। वे उद्दंड किसानों से सीधा निपट सकते थे।
भूमि अनुदान प्रथा से खेती का नए क्षेत्रों में विस्तार करना संभव हुआ। साथ ही , विजित जनजातीय क्षेत्रों में बसाए गए ब्राह्मण वहां के मूलवासियों को आसानी से यह शिक्षा दे सके कि वर्ण – व्यवस्था को माने , राजा की आज्ञा का पालन करें और कर चुकाएं। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
भूस्वामियों का उदय
भूमिअनुदान की प्रथा ईसा की पांचवी सदी से तेजी पकड़ती गई। इस प्रथा के अनुसार –
1. ब्राह्मणों को सारे कर चुकाने की छूट के साथ भूमि दी जाती थी।
2. गांवों से करो कि उगाई का अधिकार ब्राह्मणों को मिल जाता था।
3. अनुदान – ग्रामों में बसने वाले लोगों पर शासन करने का अधिकार भी दानग्राही पाते थे।
4. सरकारी अधिकारियों और राजा के परिचरों को दान किए गए गांवों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
ईसा की पांचवी सदी तक चोरों को सजा देने का अधिकार राजा सामान्यत: अपने ही हाथ में रखता था , परंतु बाद में सभी प्रकार के अपराधियों को सजा देने का अधिकार दानग्राहियों को दिया जाने लगा।
ब्राह्मणों को दिया गया दान शाश्वत अर्थात सदा स्थाई होता था। अतः गुप्तकाल के बाद से राजा की शक्ति बहुत ही घटने लगी।
छठी सदी की स्मृतियों में कहा गया है कि वेतन के बदले भूमि दी जा सकती है।
हर्षवर्धन के समय में से अधिकारियों को वेतन भूराजस्व के रूप में दिया जाने लगा। राज्य की आय का चौथा हिस्सा उच्च अधिकारियों के वेतन भुगतान के मद में अलग से रखा जाने लगा।
गवर्नरों तथा मंत्रियों , दण्डनायकों और अधिकारियों को भूमि का कुछ भाग निजी भरण – पोषण के लिए दिया जाता था। इन सबों के फल स्वरुप राजा के प्रभुत्व क्षेत्र को हड़पते हुए भूस्वामी उदित हुए। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
नई कृषि व्यवस्था
कृषि अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। भूस्वामी न खुद अपनी जमीन आबाद करते थे और ने ही कर वसूलते थे , बल्कि खेती का काम उन किसानों या बटाईदारों को सौंपा जाता था जो जमीन से जुड़े थे पर कानूनन वे उसके हकदार नहीं थे।
चीनी यात्री इत्सिंग बताता है कि अधिकांश बौद्ध विहार अपने नौकर – चाकर से खेती कराते थे।
हुआन सांग ने शूद्रों को कृषक बताया है।
जब जनजातीय इलाकों में गांव अनुदान में दिया जाता था तब इस गांव के कृषक अनुदान लेने वाले व्यक्ति के हाथ सौंप दिए जाते थे।
छठी सदी से उड़ीसा , दकन आदि पिछड़े पहाड़ी क्षेत्रों में बटाईदारों और किसानों से खास तौर से कहा जाता था कि वे दी गई भूमि पर कायम रहे।
सातवीं सदी में गया और नालंदा के अभिलेखों में शिल्पियों और किसानों से कहा गया है कि वे दान किए गए गांवों को नहीं छोड़े। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
व्यापार का हास और प्राचीन नगरों का पतन
ईसा की छठी शताब्दी से व्यापार का हास होने लगा।
पश्चिमी रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार तीसरी सदी में समाप्त हो गया था , तथा ईरान और बायजेंटियम के साथ रेशम का व्यापार छठी सदी के मध्य में आकर बंद हो गया।
इस्लाम के उदय होने से पूर्व ही अरब लोगों ने वास्तव में भारत के निर्यात व्यापार को लगभग हथिया लिया था।
छठी सदी के बाद लगभग 300 वर्षों से भी अधिक समय तक व्यापार पतनावस्था में रहा। इस बात का प्रबल प्रमाण है – देश में स्वर्ण मुद्राओं का लगभग पूरा-पूरा गायब हो जाना। इस अवधि में सिक्कों की कमी उत्तर भारत में ही नहीं , दक्षिण भारत में भी दिखाई देती है।
व्यापार के हास से नगरों के बुरे दिन आए। गुप्तोत्तर काल में उत्तर भारत के बहुत सारे पुराने वाणिज्य नगर उजाड़ हो गए। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
उत्खननों से पता चलता है कि हरियाणा और पूर्वी पंजाब के कई नगर , पुराना किला ( दिल्ली ) , मथुरा , हस्तिनापुर ( जिला मेरठ ) , श्रावास्ती ( उत्तर प्रदेश ) , कौशांबी ( इलाहाबाद के निकट ) , राजघाट ( वाराणसी ) , चिरांद ( सारन जिला ) वैशाली और पाटलिपुत्र गुप्त काल में ही पतनोन्मुख हो गए थे और गुप्तोत्तर काल में ही अधिकांश लुप्त हो गए।
हुआन सांग ने बुद्ध के जीवन से संबद्ध कई पुण्य नगरों में भ्रमण किया तो देखा कि वे या तो उजड़ गए या टूटे-फूटे हैं।
पांचवी सदी के उत्तरार्ध में रेशम बुनकरों की एक टोली पश्चिमी समुद्रतट को छोड़कर मालवा के मन्दसोर में आ बसी , और वहां दूसरे पेशे को अपनाया।
छठी सदी के बाद समाज के ढांचे में कुछ बदलाव आया। उत्तर भारत के गंगा के मैदाने में वैश्य स्वतंत्रता किसन माने जाते थे , परंतु ग्राम अनुदानों ने उनके और राजा के बीच भूस्वामियों को ला दिया , जिससे वैश्यों की हैसियत वही हो गई जो शूद्रों की थी। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
वर्णव्यवस्था में परिवर्तन
बार-बार सत्ता हथियाते और भूमि – अनुदान पाते – पाते कई कोटियों के भू स्वामी पनप उठे। निम्न वर्ण के लोग भी भूमिदान पाने लगे। इससे कठिनाइयां पैदा होने लगी क्योंकि उसकी स्थिति आर्थिक संपन्नता के बावजूद सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से निम्न होती थी।
धर्मशास्त्र के अनुसार सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार वर्ण ही होता था।
किसी व्यक्ति को आर्थिक अधिकार भी उसके वर्ण के अनुसार ही मिलता था।
छठी सदी के ‘ वराहमिहिर ‘ नमक ज्योतिषी ने निवास – गृहों का आकार चार वर्णों के लिए अलग-अलग बताया , जैसे कि पहले से चला आ रहा था। साथ ही भिन्न-भिन्न कोटि के प्रमुखों के लिए भी निवासगृहों के अलग-अलग आकर निर्धारित किए।
पूर्व के समाज में हर वस्तु का वर्गीकरण वर्ण के अनुसार होता था , पर अब हस्तगत भूमि – संपदा की मात्रा के अनुसार वर्गीकरण शुरू हो गया। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
सातवीं सदी के बाद अनगिनत जाति -उपजातियां पैदा हुई।
आठवीं सदी का एक पुराण बतलाता है कि वैश्य वर्ण की स्त्री के निम्न वर्ण के पुरुष के संयोग से हजारों वर्णसंकरों की उत्पत्ति हुई।
ब्राह्मण , राजपूत , शूद्र और अन्त्यज असंख्य उपजातियां में बँट गए।
जातियों की संख्या बढ़ने से में उस नई अर्थव्यवस्था का भी हाथ रहा जिसमें लोग एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान को नहीं जा सकते थे। एक ही तरह की व्यवसाय में भिन्न – भिन्न क्षेत्रों में लगे लोग अपने-अपने क्षेत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न उपजातियों में बँट गए।
उपरोक्त के अलावा , जनजातीय क्षेत्रों में जहां भूमि अनुदान पाकर ब्राह्मण बस गए वहां के जनजातीय लोग ब्राह्मणीय समाज में शामिल कर लिए गए और इनमें अधिकतर लोगों को शूद्र और मिश्रित जाति का मान लिया गया। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
सांस्कृतिक विकास
छठी – सातवीं सदियों के आसपास देश में कई सांस्कृतिक इकाइयों का उदय हुआ जो बाद में , असम , आंध्र , उड़ीसा , कर्नाटक , गुजरात , तमिलनाडु , बंगाल , महाराष्ट्र , राजस्थान आदि नाम से प्रसिद्ध हुई।
हुआन सांग ने भी कई राष्ट्रीय समवायों या जनगणों का उल्लेख किया है।
आठवीं सदी की उत्तरार्ध में रचित कई जैन ग्रंथों में 18 प्रमुख जनगणों अथवा उपराष्ट्रीय समूहों की चर्चा है। इनमें 16 के शारीरिक लक्षण भी वर्णित हैं , उनकी भाषा के नमूने दिए हुए हैं और उनके चरित्रों के बारे में भी कुछ बातें कही गई है।
नौवीं सदी का नाटककार विशाखादत्त कहता है कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न आचार – व्यवहार , वेश-भूषा और भाषा वाले लोग बसते हैं।
छठी – सातवीं सदियां संस्कृत साहित्य के इतिहास में समान रूप से महत्वपूर्ण है। संस्कृत गद्य और पद्य की अलंकृत शैली सातवीं सदी से जोर पकड़ी गई। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
संस्कृत गद्य में शब्दाडंबर की पराकाष्ठा बाण की कृतियों में देखी जा सकती है। मध्यकाल के संस्कृत लेखकों ने उसी को अपना आदर्श बनाया।
ईसा की सातवीं सदी से हम भारतीय भाषाओं के इतिहास में उल्लेखनीय विकास पाते हैं। पूर्वी भारत की बौद्ध कृतियों में बांग्ला , असमिया , मैथिली , उड़ीया और हिंदी के उद्भव का मंद आभास पाया जाता है।
इसी कल की जैन प्राकृत की रचनाओं में गुजराती और राजस्थानी का आरंभ दिखाई देता है।
दक्षिण में तमिल सबसे पुरानी भाषा है , लेकिन कन्नड़ का उद्भव इसी समय आरंभ होता है , जबकि तेलुगु और मलयालम बहुत बाद में विकसित हुई। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
गुप्त साम्राज्य के विघटित होने पर बहुत से छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य उदित हुए , जिससे देश-व्यापी संचार और संपर्क में बाधा पड़ी। व्यापार में गिरावट आने के फलस्वरुप भी एक प्रदेश का दूसरे प्रदेश से संपर्क टूटा , और इससे क्षेत्रीय भाषाओं के उद्भव को बल मिला।
सातवीं सदी और इसके बाद में क्षेत्रीय लिपियों को प्रमुखता मिली। अब प्रत्येक क्षेत्र में अपनी – अपनी लिपि विकसित हुई।
सातवीं – आठवीं सदियों से मूर्ति और मंदिर के निर्माण की शैली हर प्रदेश में अलग-अलग हो गई। विशेषकर दक्षिण भारत तो प्रस्तर – मंदिरों का क्षेत्र बन गया।
पत्थर और कांसा ये दो ऐसे मध्यम थे जिनके सहारे देवता साकार किए गए। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
भक्ति और तंत्र संप्रदाय
गुप्तोत्तर काल से देवताओं को स्थान उनकी श्रेष्ठता के क्रम में दिया जाने लगा। विष्णु , शिव और दुर्गा ये तीन मुख्य देवता सर्वोच्च हो गए।
ब्रह्मा , गणपति , विष्णु , शक्ति और शिव इन पांच देवताओं की पूजा प्रचलित हुई , जो सम्मिलित रूप से ‘ पंचदेवता ‘ कहलाते हैं।
मुख्य देवता शिव या किसी अन्य देव या देवी को मुख्य मंदिर में स्थापित किया जाता था और उसके चारों ओर बने चार गौण मंदिरों में चार अन्य देवता रखे जाते थे। ऐसे मंदिरों को ‘ पंचायतन ‘ कहा जाता था।
वैदिक देवता इंद्र , वरुण और यम का दर्जा घट गया और वे लोकपाल की कोटि में आ गए।
जैनों , शवों और वैष्णवों आदि के संगठन भी श्रेणीबद्ध हो गए और पांच पंक्तियों में बंट गए। सबसे ऊपर का पंक्ति आचार्य को मिला , इसके नीचे उपाध्याय , उपासक आदि होते थे। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
सातवीं सदी से भक्ति – संप्रदाय देशभर में फैल गया।
भक्ति का अर्थ था अपने आराध्य देव को सब कुछ समर्पित कर देना और उसके प्रतिफल में केवल आराध्य देव की कृपा प्राप्त करना।
ईसा की छठी सदी के आस – पास से भारत में धर्म के क्षेत्र में तांत्रिक संप्रदाय का फैलना सबसे बड़ी घटना है।
तंत्र – मार्ग में स्त्री और शूद्र दोनों के लिए द्वार खुला था और इसमें जादुई अनुष्ठान प्रमुख थे।
तंत्र – मार्ग का उदय ब्राह्मण समाज में जनजातियों के बड़े पैमाने पर प्रवेश का परिणाम था। ब्राह्मणों ने उनके बहुत सारे अनुष्ठानों , जादू टोना और धार्मिक प्रतीकों को अपना लिया और उन्हें प्रामाणिक रूप से संकलित करके खूब चलाया।
तंत्रवाद जैन , बौद्ध , शैव और वैष्णव संप्रदायों में भी घुस गया। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
सातवीं सदी से लेकर सारे , मध्य काल में तांत्रिक मार्ग जाम रहा। देश के विभिन्न भागों में पाई गई अनेक पांडुलिपियां तांत्रिक साधना और ज्योतिष के विषय की है और ये दोनों आपस में मिल – से गए है।
रोमन समाज के विपरीत , प्राचीन भारतीय समाज में उत्पादन – कार्य में दासों को किसी बड़े पैमाने पर नहीं लगाया जाता था।
भारत और यूरोप दोनों जगह ईसा की छठी सदी के बाद से शिल्प और वाणिज्य की गतिविधि में मंदी का रुख दिखाई देने लगा।
पांचवीं – छठी सदियों में भारत और रोमन साम्राज्य दोनों जगह प्राचीन नगर उजाड़ने लगे। भारत और यूरोप दोनों में कृषि का विस्तार हुआ जिससे गांवों में बस्तियां फैली। भारत में भूमिअनुदान – प्रथा से इसे बल मिला।
भूमिअनुदान चाहे धार्मिक प्रयोजन से किया गया हो या अन्य प्रयोजन से , इन भूस्वामियों ने ईसा की सातवीं सदी से भारत और यूरोप दोनों जगह समाज , धर्म , कला , स्थापत्य और साहित्य को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। प्राचीन से मध्यकाल की ओर
MCQ
प्रश्न 1 – प्राचीन भारतीय समाज जो धीरे – धीरे मध्यकालीन समाज में बदला , उसका मूल कारण क्या था ?
उत्तर – भूमिअनुदान की प्रथा
प्रश्न 2 – कौन – सा ग्रंथ यह बतलाता है कि शूद्रों और वैश्यों को अपने-अपने कर्मों से विचलित नहीं होने देना चाहिए ?
उत्तर – मनुस्मृति
प्रश्न 3 – भूमिअनुदान की प्रथा किस सदी से तेजी पकड़ती गई ?
उत्तर – ईसा की पांचवी सदी से
प्रश्न 4 – किस सदी की स्मृतियों में कहा गया है कि वेतन के बदले भूमि दी जा सकती है ?
उत्तर – छठी सदी की
प्रश्न 5 – किसने कहा है कि अधिकांश बौद्ध विहार अपने नौकर – चाकर से खेती कराते थे ?
उत्तर – इत्सिंग
प्रश्न 6 – किस काल में उत्तर भारत के बहुत सारे पुराने वाणिज्य नगर उजाड़ हो गए ?
उत्तर – गुप्तोत्तर काल में
प्रश्न 7 – पांचवी सदी के उत्तरार्ध में किस व्यवसाय से जुड़े शिल्पी पश्चिमी समुद्रतट को छोड़कर मालवा के मन्दसोर में आ बसे ?
उत्तर – रेशम बुनकर
प्रश्न 8 – किस ज्योतिषी ने चार वर्णों के लिए अलग – अलग निवास गृह का विधान बताया ?
उत्तर – वराहमिहिर
प्रश्न 9 – किस सदी के बाद अनगिनत जाति -उपजातियां पैदा हुई ?
उत्तर – सातवीं सदी
प्रश्न 10 – नौवीं सदी का किस नाटककार का कहना है कि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न आचार – व्यवहार , वेश-भूषा और भाषा वाले लोग बसते थे ?
उत्तर – विशाखादत्त
प्रश्न 11 – ईसा की किस सदी से भक्ति – संप्रदाय देशभर में फैल गया ?
उत्तर – सातवीं सदी
प्रश्न 12 – ईसा की किस सदी के आस – पास से भारत में धर्म के क्षेत्र में तांत्रिक संप्रदाय का फैलना सबसे बड़ी घटना है ?
उत्तर – छठी सदी
प्रश्न 13 – तंत्र – मार्ग का उदय ब्राह्मण समाज में किस के बड़े पैमाने पर प्रवेश का परिणाम था ?
उत्तर – जनजातियों के
प्रश्न 14 – किस काल से देवताओं को स्थान उनकी श्रेष्ठता के क्रम में दिया जाने लगा ?
उत्तर – गुप्तोत्तर
प्रश्न 15 – ब्रह्मा , गणपति , विष्णु , शक्ति और शिव सम्मिलित रूप से क्या कहलाते हैं ?
उत्तर – पंचदेवता