उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल :- ईस्वी सन 750 और 1000 के बीच उत्तर भारत और दकन में कई शक्तिशाली साम्राज्य का उदय हुआ। इनमें से एक था पाल साम्राज्य जिसका नवीं सदी के मध्य तक पूर्वी भारत में बोलबाला रहा।
पश्चिमी भारत और ऊपरी गंगा की घाटी में दसवीं सदी तक प्रतिहार साम्राज्य की तूती बोलती थी।
दकन में राष्ट्रकूटों का वर्चस्व था जो समय-समय पर उत्तर और दक्षिण भारत के प्रदेशों पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर लेते थे।
तीनों में से सबसे दीर्घायु तक राष्ट्रकूट साम्राज्य साबित हुआ। वह न केवल उस काल का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था बल्कि उसने आर्थिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में उत्तर और दक्षिण के बीच सेतु का भी काम किया। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
प्रभुत्व के लिए संघर्ष : पाल
हर्ष के कल से ही कन्नौज को उत्तर भारत की संप्रभुता का प्रतीक माना जाता रहा था। कन्नौज पर नियंत्रण स्थापित करने का मतलब ऊपरी गंगा घाटी तथा उसके व्यापार एवं प्रचुर कृषि संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेना भी था।
पाल साम्राज्य की स्थापना शायद 750 ईस्वी में गोपाल ने की। मालूम होता है , उस क्षेत्र में फैली अराजकता से तंग आकर वहां के प्रमुख लोगों ने उसे राजा चुन लिया था।
770 ईस्वी में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र धर्मपाल राजा बना। धर्मपाल ने 810 ई तक शासन किया। धर्मपाल को राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित होना पड़ा। इससे पहले ध्रुव प्रतिहरों को भी शिकस्त दे चुका था।
धर्मपाल ने कन्नौज पर कब्जा कर लिया और वहां एक भव्य दरबार लगाया जिसमें पंजाब , राजस्थान आदि के उन राजाओं में भाग लिया जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।
जब द्वितीय नागभट्ट के शासनकाल में प्रतिहरों का भाग्य – सूर्य फिर से चमक तो धर्मपाल को कन्नौज से पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा। लेकिन मुंगेर के पास उसे प्रतिहरों से दो-दो हाथ करने पड़े और पराजय का मुंह देखना पड़ा। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
बिहार और आधुनिक पूर्वी उत्तर प्रदेश पर अपना-अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए पालों और प्रतिहरों के बीच संघर्ष चलता रहा यद्पि बंगाल के साथ-साथ बिहार पर पालों का ही अधिक समय तक नियंत्रण कायम रहा।
धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने , जो अपने पिता की मृत्यु के उपरांत 810 में राजा बना था , 40 वर्षों तक राज किया। उसने प्राग ज्योतिषपुर ( असम ) और उड़ीसा के कुछ हिस्सों को अपने साम्राज्य में मिल लिया। शायद आधुनिक नेपाल के एक हिस्से पर भी पाल प्रभुत्व स्थापित हो गया था।
आठवीं सदी के मध्य से लगभग 100 वर्षों तक पूर्वी भारत पर पाल शासको का वर्चस्व रहा।
सुलेमान नामक एक अरब व्यापारी ने नवीं सदी के मध्य में भारत की यात्रा की थी। उसके यात्रा – विवरण से पालों की शक्ति की पुष्टि होती है।
सुलेमान ने पाल राज्य को रुहमा या ” धर्म ” ( यानी धर्मपाल का संक्षिप्त रूप ) कहा है।
सुलेमान के अनुसार पाल राजा की अपने पड़ोसी प्रतिहरों और राष्ट्रकूटों से लड़ाई चल रही थी। राजा सामान्यतः 50000 हाथियों की सेना के साथ चलता था। उसकी सेना में 10 -15 हजार लोग कपड़ों को धोने और उनमें चुनन डालने का काम करते थे। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
पालों के संबंध में तिब्बती ऐतिहासिक विवरणों से भी जानकारी मिलती है , हालांकि ये विवरण 17वीं सदी में लिखे गए थे। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध ज्ञान – विज्ञान तथा धर्म के महान संरक्षक थे।
पूर्वी दुनिया में विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय का धर्मपाल ने पुनरुद्धार किया। उसका खर्च चलाने के लिए 200 गांवों की आमदनी उसे दान में दे दी गई। उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की भी स्थापना की जो नालंदा के बाद सबसे विख्यात विश्वविद्यालय के रूप में उभरा।
पाल शासको का तिब्बत के साथ घनिष्ठ सांस्कृतिक संबंध था। संतरक्षित तथा दीपांकर ( जिसे अतिश कहा जाता था ) जैसे प्रमुख बौद्ध विद्वानों को तिब्बत में आमंत्रित किया गया और उन्होंने वहां बौद्ध धर्म के एक नए रूप का प्रचार किया।
दक्षिण – पूर्व एशिया के साथ पालों के व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे।
उन दिनों दक्षिण – पूर्व एशिया में शैलेंद्र के साम्राज्य का वर्चस्व था। उनका साम्राज्य मलाया , जावा , सुमात्रा और आसपास के द्वीपों तक फैला हुआ था।
शैलेंद्र शासक बौद्ध थे। उन्होंने अपने कई दूत पाल दरबार में भेज और पाल शासक से नालंदा में एक विहार बनाने की अनुमति मांगी। उन्होंने पाल राजा देवपाल से इस विहार के खर्च के लिए पांच गांवों की आमदनी देने का अनुरोध किया। यह अनुरोध स्वीकार कर लिया गया। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
प्रतिहार
प्रतिहरों को गुर्जर – प्रतिहार भी कहा जाता है जिसका कारण शायद यह है कि उनका उद्भव गुर्जराष्ट्र या दक्षिण – पश्चिम राजस्थान में हुआ था।
730 ईस्वी में गुजरात के चालुक्य शासको ने अरबों को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया।
प्रारंभिक प्रतिहार शासको ने ऊपरी गंगा घाटी और मालवा पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न किया। लेकिन राष्ट्रकूट राजा ध्रुव और तृतीय गोविंद ने उनकी कोशिशों को नाकाम कर दिया। राष्ट्रकूटों ने पहले तो 790 ईस्वी में और फिर 806 -7 ईस्वी में उन्हें हराया।
शायद राष्ट्रकूटों की असली दिलचस्पी मालवा और गुजरात पर कब्जा करने में थी।
प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और इस राजवंश का महानतम शासक भोज था।
भोज ने प्रतिहार साम्राज्य का पुनर्निर्माण किया और 836 ई के आसपास कन्नौज पर फिर से कब्जा कर लिया। और यह नगर लगभग एक सदी तक प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी रहा। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
भोज ने पूर्व की ओर अपने प्रभुत्व का विस्तार करने का प्रयत्न किया लेकिन पालों ने उसे परास्त करके उसकी महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाया।
राष्ट्रकूटों से प्रतिहरों का संघर्ष नर्मदा के तट पर हुआ। इस खूँरेजी – भरी लड़ाई के फलस्वरुप भोज मालवा के काफी बड़े हिस्सों पर और गुजरात के भी कुछ इलाकों पर अपना अधिकार कायम रखने में कामयाब रहा।
एक अभिलेख के अनुसार उसके राज्य प्रदेश सतलुज नदी के पूर्वी किनारे तक फैले हुए थे। अरब यात्रियों के वृतांतों से मालूम होता है कि प्रतिहरों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्वरोही सेना थी।
उन दिनों मध्य एशिया और अरब देश से घोड़ों का आयात भारतीय व्यापार का एक महत्वपूर्ण अंग था।
भोज विष्णु का भक्त था और उसने ” आदिवराह ” की विरुद धारण किया था। उसके कुछ सिक्कों पर ” आदिवराह ” शब्द अंकित है।
उज्जैन के भोज परमार से उसका अंतर बताने के लिए उसे मिहिर भोज भी कहा जाता है। वस्तुत: भोज परमार ने मिहिर भोज के कुछ काल बाद शासन किया था। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
भोज की मृत्यु शायद 885 ई के आसपास हुई। उसके बाद उसका बेटा प्रथम महेंद्र पाल राजा हुआ।
908 – 9 ईस्वी तक के शासनकाल में महेंद्र पाल ने भोज के साम्राज्य को कायम तो रखा ही , उसने उसकी सीमाओं का विस्तार मगध और उत्तर बंगाल तक कर दिया।
महेंद्रपाल के अभिलेख काठियावाड़ , पूर्वी पंजाब और अवध में भी मिले हैं।
महेंद्र पाल ने एक लड़ाई कश्मीर के राजा के खिलाफ भी लड़ी , लेकिन उसे भोज द्वारा पंजाब में जीते हुए कुछ इलाके कश्मीर के राजा को सौंपने पड़े।
नवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश से लेकर दसवीं सदी के मध्य तक के लगभग 100 सालों की अवधि में उत्तर भारत में प्रतिहरों का बोलबाला रहा।
बगदाद – निवासी अल – मसूदी ने 915 – 16 ईस्वी में गुजरात की यात्रा की थी। उसके विवरण से प्रतिहार शासको की शक्ति और मान – प्रतिष्ठा तथा उनके साम्राज्य की विशालता की पुष्टि होती है। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
अल – मसूदी ने गुर्जर – प्रतिहार राज्य को अल – जुजर कहा है। जुजर शायद गुर्जर का विकृत रूप है। इसी तरह वह राजा को बौरा कहता है। बौरा शायर आदिवराह का बिगड़ा हुआ रूप है।
अल – मसूदी बताता है कि जुजर के साम्राज्य में 18 लाख गांव , नगर और ग्रामीण क्षेत्र थे। उसकी लंबाई – चौड़ाई दो – दो हजार किलोमीटर थी। राजा की सेवा में चार चमुएँ ( डिवीजन ) थी। प्रत्येक चमू में 7 से 9 लाख लोग थे।
राजा के पास युद्ध के लिए केवल 2000 प्रशिक्षित हाथी थे। उसकी अश्वारोही सेना देश में सर्वश्रेष्ठ थी।
संस्कृत का महान कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पौत्र महीपाल के दरबार में रहता था। प्रतिहरों ने कई भव्य भवनों और मंदिरों से कन्नौज का रूप भी निखारा।
प्रतिहार सिंध के अरब शासको के प्रति अपनी वैर – भाव के लिए प्रसिद्ध थे।
915 ई और 918 ई के बीच राष्ट्रकूट राजा तृतीय इंद्र ने फिर कन्नौज पर आक्रमण किया और नगर को तहस-नहस कर दिया। इससे प्रतिहार साम्राज्य कमजोर पड़ गया।
963 में एक अन्य राष्ट्रकूट राजा तृतीय कृष्ण ने उत्तर भारत पर आक्रमण करके प्रतिहार शासक को परास्त कर दिया। इसके बाद प्रतिहार साम्राज्य तेजी से बिखर चला। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
राष्ट्रकूट
इस राजवंश ने दकन को एक के बाद एक अनेक वीर योद्धा तथा कुशल प्रशासक दिए। इस राज्य की स्थापना दंतिदुर्ग ने की थी जिसने आधुनिक शोलापुर के निकट मान्यखेट या मालखेड़ को अपनी राजधानी बनाया।
राष्ट्रकूटों ने शीघ्र ही उत्तर महाराष्ट्र के पूरे प्रदेश पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया।
वे वेंगी ( आधुनिक आंध्रप्रदेश में स्थित ) के पूर्वी चालुक्यों से भी बराबर जूझते रहे और दक्षिण में कांची के पल्लवों तथा मुदरै के पांड्यों से भी दो – दो हाथ करते रहे।
गोविंद तृतीय ( 793 ईस्वी – 814 ईस्वी ) और अमोघवर्ष (814 ईस्वी – 878 ईस्वी ) शायद सबसे महान राष्ट्रकूट राजा थे।
कन्नौज के नागभट्ट पर सफल आक्रमण करने और मालवा को अपने साम्राज्य का अंग बना लेने के बाद तृतीय गोविंद दक्षिण की ओर बढ़ा।
एक अभिलेख से मालूम होता है कि गोविंद ने ” केरल , पाण्ड्य और चोल राजाओं को भयभीत कर दिया और पल्लवों को श्रीहीन बना दिया। अपनी नीचता के कारण असंतुष्ट हो जाने वाले ( कर्णाटक के ) गंगों को श्रृंखला में जकड़ दिया और वे मृत्यु को प्राप्त हुए “। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
लंका का राजा और उसका मंत्री बंदी बनाकर हालपुर लाए गए। लंका के इष्टदेव की दो प्रतिमाएं मान्यखेट लाई गई और शिव मंदिर के सामने विजय – स्तंभों के रूप में प्रतिष्ठित कर दी गई।
अमोघवर्ष ने 68 वर्षों तक शासन किया , लेकिन प्रकृत्या युद्ध की अपेक्षा उसकी धर्म और साहित्य में अधिक रुचि थी।
अमोघवर्ष स्वयं भी लेखक था और उसे राजनीति पर कन्नड़ की प्रथम कृति की रचना करने का श्रेय दिया जाता है। वह एक महान निर्माता भी था , और कहते हैं , मान्यखेट को उसने ऐसा रूप दिया जिसके समक्ष इंद्रपुरी भी लज्जित होती थी।
अमोघवर्ष के शासन में राष्ट्रकूट साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेशों में कई विद्रोह हुए।
अमोघवर्ष का पौत्र तृतीय इंद्र ( 915 ईस्वी – 927 ईस्वी ) साम्राज्य की खोई हुई श्री – समृद्धि फिर से वापस ले आया।
915 ईस्वी में महिपाल को पराजित करने और कन्नौज को पदमर्दित करने के बाद तृतीय इंद्र अपने समय के सबसे शक्तिशाली राजा के रूप में सामने आया।
उस काल में भारत की यात्रा करने वाले अल – मसूदी के अनुसार राष्ट्रकूट राजा बलहारा या वल्लभराज भारत का सबसे प्रतापी राजा था। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
राष्ट्रकूट राजवंश का अंतिम प्रतापी राजा कृष्ण तृतीय ( 934 ईस्वी – 96 ईस्वी ) हुआ। उसे मालवा के परमारों और वेंगी के पूर्वी चालुक्यों से लोहा लेना पड़ा।
कृष्ण तृतीय ने तंजौर के चोल शासक के खिलाफ भी सैनिक अभियान किया।
कृष्ण ने चोल – राज प्रथम परंतक को परास्त करके ( 949 ईस्वी ) चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। इसके उपरांत वह दक्षिण में रामेश्वरम की ओर बढ़ा और वहां तक के प्रदेश को जीत कर उसने वहां एक विजय स्तंभ स्थापित किया एवं एक मंदिर का निर्माण कराया।
कृष्ण की मृत्यु के बाद सभी वेंगी उसके उत्तराधिकारी के खिलाफ एकजुट हो गए। 972 ईस्वी में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट को जीत कर उन्होंने वहां आग लगा दी। इसके साथ ही राष्ट्रकूट साम्राज्य का अंत हो गया।
दकन में राष्ट्रकूट शासन दसवीं सदी के अंत तक लगभग दो सौ साल कायम रहा।
राष्ट्रकूटों ने न केवल शैव और वैष्णव धर्म को प्रश्रय दिया बल्कि जैन धर्म को भी बढ़ावा दिया। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
राष्ट्रकूट राजा प्रथम कृष्णा ने अलोरा का प्रसिद्ध शिव मंदिर नवीं सदी में बनवाया था। उसका उत्तराधिकारी अमोघवर्ष जैन था। उसने अन्य धर्मों को भी संरक्षण दिया।
राष्ट्रकूट राजाओं ने मुसलमान व्यापारियों को अपने राज्य में बसने की इजाजत दी और साथ ही उन्होंने इस्लाम के प्रचार की भी छूट दी। बताया जाता है राष्ट्रकूट प्रदेशों में मुसलमानों के अपने अलग मुखिया हुआ करते थे।
राष्ट्रकूट राजा कला और साहित्य के महान संरक्षण थे। उनके दरबार में न केवल संस्कृत के विद्वान थे , बल्कि अनेक ऐसे कवि और लेखक भी थे जो प्राकृत तथा अपभ्रंश में लिखते थे।
महान अपभ्रंश कवि स्वयंभू और उसके पुत्र शायद राष्ट्रकूट दरबार में ही रहते थे। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
राजनीतिक विचार और संगठन
इन साम्राज्यों की शासन प्रणाली गुप्त साम्राज्य तथा उत्तर में हर्ष के राज्य और दकन में चालुक्यों के राज्य के राजनीतिक विचारों एवं रीति – रिवाजों पर आधारित थी।
अरब लेखकों के अनुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य में महिलाएं अपने चेहरों पर पर्दा नहीं डालती थी।
राजा की स्थिति सामान्यतः वंशानुगत होती थी।
मेधातिथि नामक एक समकालीन लेखक का विचार था कि व्यक्ति को शस्त्र धारण करने का अधिकार है क्योंकि उसे चोरों और हत्यारों से अपनी रक्षा करनी है। उसका यह विचार भी था कि अन्यायी राजा का विरोध करना उचित है।
सामान्यत: उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र को प्राप्त होता था , किंतु इस बात के बहुत – से उदाहरण मिलते हैं कि ज्येष्ठ पुत्र को अपने छोटे भाइयों से लड़ना पड़ा और कई बार वे पराजित भी हुए।
राष्ट्रकूट शासक ध्रुव तथा चतुर्थ गोविंद ने अपने ज्येष्ठ भाइयों को अपदस्थ किया। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
सामान्यत: राजकुमारियों को सरकारी पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था , लेकिन इसका एक अपवाद भी मिलता है। अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री चन्द्रोबलब्बे ने कुछ काल तक रायचूर दोआब का प्रशासन संभाला था।
राजा को सलाह – मशविरा देने के लिए सामान्यतः मंत्री होते थे। आम तौर पर प्रमुख परिवारों से राजा मंत्रियों का चयन करता था।
राजा के मंत्रियों की स्थिति वंशानुगत होती थी। एक ब्राह्मण परिवार में एक के बाद एक 4 सदस्य धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों के महामंत्री हुए।
एक व्यक्ति एकाधिक पदों पर नियुक्त किया जा सकता था।
पुरोहित को छोड़कर सभी मंत्रियों से अवसर आने पर सैनिक अभियानों का नेतृत्व करने की भी आशा की जाती थी।
हाथियों को शक्ति का स्तंभ माना जाता था और वे बहुत ही मूल्यवान माने जाते थे। पाल राजाओं के पास सबसे अधिक हाथी थे। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
राष्ट्रकूट और प्रतिहार राजा समुद्री मार्ग से अरब देश और पश्चिम एशिया से एवं स्थल मार्ग से मध्य एशिया से बड़ी संख्या में घोड़ों का आयात करते थे। प्रतिहरों के पास सबसे समर्थ अश्वारोही सेना थी , ऐसा विश्वास किया जाता है।
राष्ट्रकूटों के पास , बहुत – से – किले होते थे। उनमे विशेष सैनिक रखे जाते थे और उनके स्वतंत्र सेनापति होते थे।
पाल राजाओं और शायद राष्ट्रकूटों की भी अपनी – अपनी नौसेनाएं थी।
राष्ट्रकूटों को वेंगी ( आंध्र ) और कर्नाटक के मातहत सरदारों से हमेशा लड़ते रहना पड़ा। इसी तरह प्रतिहरों को मालवा और परमारों और बुंदेलखंड के चंदेलों को काबू में रखने के लिए जूझते रहना पड़ा।
पाल और प्रतिहार साम्राज्य के प्रत्यक्ष – शासित प्रदेश भुक्ति ( प्रान्त ) मंडल और विषय ( जिले ) में विभाजित थे। भक्ति का शासक उपरिक कहलाता था और विषय का प्रशासक विषयपति।
उपरिक और विषयपति से अपने अधीन क्षेत्र में भू – राजस्व वसूल करने और शांति – सुव्यवस्था कायम रखने की आशा की जाती थी। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
राष्ट्रकूट राज्य में प्रत्यक्ष – शासित प्रदेश राष्ट्र ( प्रान्त ) , विषय और भुक्ति में बंटे हुए थे। राष्ट्र के प्रधान को राष्ट्रपति कहा जाता था। विषय आधुनिक जिले के समान था और भुक्ति उससे छोटी इकाई थी।
पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में विषय से नीचे की इकाई पत्तल कहलाती थी।
जान पड़ता है कि सभी अधिकारियों को भुगतान लगनमुक्त भूमि – दानों के जरिए किया जाता था।
इन क्षेत्रीय विभाजनों के नीचे आता था गांव। गांव प्रशासन की बुनियादी इकाई होता था।
गांव का प्रशासन मुखिया और पटवारी चलाते थे। ये दोनों पद सामान्यतः वंशानुगत होते थे। उनको किए जाने वाले भुगतान का भी तरीका लगान – रहित भूमि का दान ही था।
मुखिया को अपने काम-काज में अक्सर गांव के बुजुर्ग की सहायता मिलती थी , जो ग्राम – महाजन या ग्राम – महत्तर कहलाता था।
राष्ट्रकूट राज्य में , खासतौर से कर्नाटक में , स्थानीय विद्यालयों , तालाबों , मंदिरों और सड़कों की देख-रेख के लिए ग्राम समितियां होती थी। न्यास के तौर पर पैसा और संपत्ति भी उनके सुपुत्र की जा सकती थी। ये समितियां छोटे – मोटे विवादों का भी निपटारा करती थी। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
शहरों में भी इसी तरह की समितियां होती थी जिनमें श्रेणियों अर्थात विभिन्न पेशों में लगे लोगों के अलग-अलग संगठनों के प्रधान भी शामिल किया किए जाते थे।
शहर और उसके आसपास के इलाकों में शांति – सुव्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी कोष्टपाल या कोतवाल की थी।
दकन में वंशानुगत राजस्व अधिकारी नाड – गवुंडों या देश – ग्रामकूटों का उदय इस कल की एक प्रमुख विशेषता है। मालूम होता है कि वे वही काम करते थे जो बाद में महाराष्ट्र में देशमुख और देशपांडे लोगों के जिम्मे आया।
इस काल में धर्मशास्त्र के सबसे प्रमुख व्याख्याता मेधातिथि का कहना था कि राजा की सत्ता का स्रोत धर्मशास्त्र , जिनमें वेद भी शामिल थे और अर्थशास्त्र – दोनों हैं। उत्तर भारत : तीन साम्राज्यों का काल
MCQ
प्रश्न 1 – पाल साम्राज्य की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर – गोपाल
प्रश्न 2 – किस पाल शासक ने प्रागज्योतिषपुर ( असम ) और उड़ीसा के कुछ हिस्सों को अपने साम्राज्य में मिल लिया ?
उत्तर – देवपाल
प्रश्न 3 – सुलेमान नामक अरब व्यापारी ने किस राज्य को रूहमा या ‘ धर्म ‘ कहा है ?
उत्तर – पाल राज्य
प्रश्न 4 – किस पाल शासक ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार किया ?
उत्तर – धर्मपाल
प्रश्न 5 – शैलेंद्र शासक ने किस पाल शासन से नालंदा में एक विहार बनवाने की अनुमति मांगी तथा इस विहार के खर्चे के लिए पांच गांवों की आमदनी देने का अनुरोध किया ?
उत्तर – देवपाल
प्रश्न 6 – प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और इस राजवंश का महानतम शासक कौन था ?
उत्तर – भोज
प्रश्न 7 – किस प्रतिहार शासक ने प्रतिहार साम्राज्य का पुनर्निर्माण किया ?
उत्तर – भोज
प्रश्न 8 – अरब यात्रियों के वृतांतों के अनुसार किस भारतीय शासक के पास सबसे अच्छी अश्वारोही सेना थी ?
उत्तर – पाल शासक
प्रश्न 9 – किस प्रतिहार शासक ने ‘ आदिवराह ‘ की उपाधि धारण की ?
उत्तर – मिहिर भोज
प्रश्न 10 – गुर्जर – प्रतिहार राज्य को अल – जुजर किसने कहा है ?
उत्तर – अल – मसूदी
प्रश्न 11 – अल – मसूदी ने ‘ बौरा ‘ किसे कहा है ?
उत्तर – राजा को
प्रश्न 12 – संस्कृत का महान कवि और नाटककार राजशेखर किस प्रतिहार शासक के दरबार में रहता था ?
उत्तर – महीपाल
प्रश्न 13 – राष्ट्रकूट राज्य की स्थापना किसने की तथा अपनी राजधानी आधुनिक शोलापुर के निकट मान्यखेट या मालखेड़ को बनाया ?
उत्तर – दंतिदुर्ग
प्रश्न 14 – किस राष्ट्रकूट शासक ने केरल , पाण्ड्य और चोल राजाओं को भयभीत कर दिया और पल्लवों को श्रीहीन बना दिया तथा गंगों को श्रृंखला में जकड़ दिया ?
उत्तर – गोविंद तृतीय
प्रश्न 15 – किस राष्ट्रकूट शासक को राजनीति पर कन्नड़ की प्रथम कृति की रचना करने का श्रेय दिया जाता है ?
उत्तर – अमोघवर्ष
प्रश्न 16 – राष्ट्रकूट राजवंश का अंतिम प्रतापी राजा कौन था ?
उत्तर – कृष्ण तृतीय
प्रश्न 17 – अलोरा का प्रसिद्ध शिव मंदिर का निर्माण किस राष्ट्रकूट राजा ने करवाया था ?
उत्तर – प्रथम कृष्णा ने
प्रश्न 18 – महान अपभ्रंश कवि स्वयंभू और उसके पुत्र किस राज दरबार में रहते थे ?
उत्तर – राष्ट्रकूट दरबार
प्रश्न 19 – किस समकालीन लेखक का विचार था कि व्यक्ति को शस्त्र धारण करने का अधिकार है क्योंकि उसे चोरों और हत्यारों से अपनी रक्षा करनी है ?
उत्तर – मेधातिथि
प्रश्न 20 – अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री जिसने कुछ काल तक रायचूर दोआब का प्रशासन संभाला था –
उत्तर – चन्द्रोबलब्बे
प्रश्न 21 – किन राजाओं के पास सबसे अधिक हाथी थे ?
उत्तर – पाल
प्रश्न 22 – पाल और प्रतिहार साम्राज्य के प्रत्यक्ष – शासित प्रदेश विभाजित थे –
उत्तर – भुक्ति ( प्रान्त ) मंडल और विषय ( जिले ) में
प्रश्न 23 – भक्ति का शासक क्या कहलाता था ?
उत्तर – उपरिक
प्रश्न 24 – विषय का प्रशासक क्या कहलाता था ?
उत्तर – विषयपति
प्रश्न 25 – राष्ट्रकूट राज्य में प्रत्यक्ष – शासित प्रदेश बंटे हुए थे –
उत्तर – राष्ट्र ( प्रान्त ) , विषय और भुक्ति में
प्रश्न 26 – राष्ट्र के प्रधान को क्या कहा जाता था ?
उत्तर – राष्ट्रपति
प्रश्न 27 – पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में विषय से नीचे की इकाई क्या कहलाती थी ?
उत्तर – पत्तल
प्रश्न 28 – गांव प्रशासन की बुनियादी इकाई होता था। गांव का प्रशासन चलाते थे –
उत्तर – मुखिया और पटवारी
प्रश्न 29 – मुखिया को अपने काम-काज में अक्सर गांव के बुजुर्ग की सहायता मिलती थी , जो कहलाता था –
उत्तर – ग्राम – महाजन या ग्राम – महत्तर
प्रश्न 30 – शहर और उसके आसपास के इलाकों में शांति – सुव्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी थी –
उत्तर – कोष्टपाल या कोतवाल की
प्रश्न 31 – किस धर्मशास्त्रकार का कहना था कि राजा की सत्ता का स्तोत्र धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों है ?
उत्तर – मेधातिथि