चोल साम्राज्य
चोल साम्राज्य :- नवीं सदी में उदित चोल साम्राज्य ने दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप के एक बहुत बड़े हिस्से पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
चोलो ने एक शक्तिशाली नौसेना का विकास किया जिसके बल पर उन्होंने हिंद महासागर क्षेत्र में भारत के समुद्री व्यापार का मार्ग प्रशस्त किया और श्रीलंका तथा मालदीव को जीत लिया।
चोल साम्राज्य को मध्यकालीन दक्षिण भारतीय इतिहास की चरम परिणिति कहा जा सकता है। चोल साम्राज्य
चोल साम्राज्य का उदय
चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की जो आरंभ में पल्लवों का सामंत था। 850 ईस्वी में उसने तंजौर पर कब्जा कर लिया।
नवीं सदी के अंत तक चोल कांची के पल्लवों को पराजित कर और पांड्यों की शक्ति का हरण कर पुरे दक्षिण तमिल देश ( टोंडइमंडलम ) को अपने अधिकार क्षेत्र में ला चुके थे।
राष्ट्रकूटों के मुकाबले अपनी स्थितियों को सुरक्षित रखना चोलों के लिए बहुत कठिन गुजरा। चोल साम्राज्य
राजराज और राजेंद्र प्रथम का शासनकाल
सबसे समृद्ध चोल राजा राजराज ( 985 ई – 1014 ई ) और उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम ( 1014 ई – 1044 ई ) थे।
राजराज को अपने पिता के जीवनकाल में ही युवराज नियुक्त कर दिया गया था।
राजराज ने त्रिवेंद्रम के चेरों की नौसेना को ध्वस्त कर दिया और कोइलोन पर हमला कर दिया। उसके बाद उसने मदुरै पर आक्रमण किया और पाण्ड्य राजा को बंदी बना लिया।
राजराज ने श्रीलंका पर चढ़ाई कर दी और उसके उत्तरी हिस्से को जीत कर अपने साम्राज्य में मिल लिया। इन सैनिक कार्रवाइयों का उद्देश्य अंशतः यह था कि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ होने वाले व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके।
राजराज के नौसैनिक पराक्रम का एक उदाहरण मालदीव पर की विजय थी।
उत्तर में राजराज ने गंगा क्षेत्र के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों को जीतकर अपने राज्य में मिल लिया और वेंगी की ईंट से ईंट बजा दी। चोल साम्राज्य
राजराज की विस्तारवादी नीति को आगे बढ़ाते हुए राजेंद्र प्रथम ने पाण्ड्य और चेर देशों को पूर्णत: पराभूत करके अपने साम्राज्य में मिल लिया।
श्रीलंका की विजय को परिणति तक पहुंचाते हुए राजेंद्र ने वहां के राजा और रानी के मुकुट तथा राज – चिन्ह को अपने कब्जे में कर लिया। श्रीलंका अगले 50 वर्षों तक चोल नियंत्रण से मुक्त नहीं हो पाया।
राजराज और राजेंद्र प्रथम ने अनेक स्थानों पर शिव और विष्णु के मंदिर बनवाये। इनमे से सबसे प्रसिद्ध तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर था जो 1010 ईस्वी में पूरा हुआ।
चोल शासको ने इन मंदिरों की दीवारों पर लंबे-लंबे अभिलेख उत्कीर्ण करने का चलन आरंभ किया जिनमें उनकी जीतों के ऐतिहासिक विवरण दिए जाते थे।
राजेंद्र प्रथम के शासनकाल का एक अत्यंत उल्लेखनीय सैनिक अभियान कलिंग के रास्ते बंगाल पर किया गया आक्रमण था।
चोल सेना ने गंगा को पार करके दो स्थानीय राजाओं को पराजित किया। 1022 ईस्वी में एक चोल सेनापति के नेतृत्व में किए गए इस अभियान में उसी मार्ग का अनुसरण किया गया था जिससे होकर महान विजेता समुद्रगुप्त ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया था।
इस विजय की स्मृति में राजेंद्र ने गंगइकोंडचोल ( अर्थात गंगा का चोल विजेता ) का विरुद धारण किया। उसने कावेरी के मुहाने पर नई राजधानी बसाई और उसका नाम गंगइकोंडचोलपुरम ( अर्थात गंगा राज्य के चोल विजेता का नगर ) रखा। चोल साम्राज्य
राजेंद्र प्रथम के शासनकाल के उल्लेखनीय सैनिक पराक्रम का उदाहरण श्रीविजय साम्राज्य पर किया गया आक्रमण था।
चीन की ओर जाने वाले समुद्री व्यापारिक मार्ग पर श्री विजय साम्राज्य का नियंत्रण था। इस साम्राज्य पर शैलेन्द्र राजवंश का शासन था।
शैलेंद्र शासक बौद्ध थे और चोलो के साथ उनके संबंध मधुर थे। शैलेंद्र शासक ने नागपटनम में एक बौद्ध विहार भी बनाया था और उसके अनुरोध पर राजेंद्र ने विहार का खर्च चलाने के लिए एक गांव दान में दिया था।
दोनों के बीच अनबन का कारण यह था कि चोलराज्य भारतीय व्यापार के मार्ग की बाधाएं दूर करना चाहता था और चीन के साथ चोल व्यापार का विस्तार करना चाहता था।
कुछ काल तक चोल नौसेना इस क्षेत्र की सबसे शक्तिशाली नौसेना बनी रही और बंगाल की खाड़ी की हैसियत ” चोल झील ” की सी हो गई। चोल साम्राज्य
चोल शासको ने चीन को कई राजदूत मंडल भेज। चोल राज्य का 70 व्यापारियों वाला एक दूत – मंडल 1077 ईस्वी में चीन पहुंचा।
व्यापार के लिए लाई गई सभी वस्तुओं के लिए चीनी ” नजराना ” शब्द का इस्तेमाल करते थे।
राष्ट्रकूटों के पतन के बाद उनका स्थान ग्रहण करने वाले चालुक्यों से भी चोल शासक बराबर लोहा लेते रहे। इन्हें उत्तर चालुक्य कहा जाता है और इनकी राजधानी कल्याणी था।
चोलों और उत्तर चालुक्यों के बीच के संघर्ष का कारण यह था कि दोनों वेंगी ( रायल सीमा ) , तुंगभद्र दोआब और उत्तर पश्चिम कर्नाटक के गंगदेश पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। इस स्पर्धा में दो में से कोई भी पक्ष निर्णायक विजय प्राप्त नहीं कर पाया और अंत में इस संघर्ष में दोनों की शक्ति चूक गई। चोल साम्राज्य
चोल प्रशासन की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि वह साम्राज्य से सर्वत्र गांवों के स्तर पर स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देता था।
12वीं सदी के दौरान चोल साम्राज्य फलता – फूलता रहा। लेकिन 13वीं सदी के अंतिम चरण में उसका पतन आरंभ हो गया।
महाराष्ट्र क्षेत्र में उत्तर चालुक्य साम्राज्य भी 12वीं सदी में मिट गया था।
दक्षिण में चोलो का स्थान पांड्यों और होयसलों ने ले लिया और चालुक्यों की जगह यादव और काकतीय राजवंश प्रतिष्ठित हुए। चोल साम्राज्य
चोल प्रशासन
चोल प्रशासन में राजा सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति था। सारी सत्ता उसके हाथों में केंद्रित रहती थी , लेकिन उसे सलाह देने के लिए मंत्रियों की एक परिषद भी होती थी।
चोलों के पास एक विशाल सेना थी , जिसमें हस्ति – सेना , अश्वारोही और पैदल सेना शामिल थी। ये तीनों शाखाएं सेना के तीन अंग मानी जाती थी।
अधिकतर राजा अंगरक्षक रखते थे , जो जान देकर भी उनकी हिफाजत करने के लिए प्रतिबद्ध होते थे।
वेनिशियाई यात्री मार्को पोलो ने 13वीं सदी में केरल की यात्रा की थी। उसका कहना है कि जब राजा मरता था तो उसके सभी अंगरक्षक सैनिक उसके साथ ही चिता में जल मरते थे।
चोलों के पास एक शक्तिशाली नौसेना भी थी जिसका मालाबार और कोरोमंडल तट पर बोलबाला था।
चोल साम्राज्य मंडलों या प्रांतो में विभाजित था और मंडलम वलनाडुओं और नाडुओं में बँटे होते थे।
अधिकारियों को आमतौर पर राजस्वदायी भूमिदान द्वारा भुगतान किया जाता था। चोल साम्राज्य
चोल शासको ने राजमार्गो का एक अच्छा खासा ताना – बाना कायम किया था।
चोल साम्राज्य में वाणिज्य व्यापार खूब फल – फूल रहे थे और व्यापारियों की कुछ बड़ी-बड़ी श्रेणियां जावा और सुमात्रा के साथ व्यापार करती थी।
चोलो ने सिंचाई की ओर भी ध्यान दिया। कावेरी तथा अन्य नदियों का प्रयोग इस प्रयोजन के लिए किया जाता था। सिंचाई के लिए बहुत से तालाब बनवाएँ गए।
भूमिकर के अलावा चोल शासको की आमदनी के दूसरे जरिए भी थे जैसे व्यापारिक चुंगी , पेशों पर लगाए जाने वाले कर और पड़ोसी प्रदेशों की लूट से मिलने वाला माल – असवाब।
चोल शासक खूब समृद्ध संपन्न थे और इसलिए वे अनेक शहरों , मंदिरों तथा भव्य स्मारकों का निर्माण कर सके।
चोलकालीन अभिलेख की प्रचुरता के कारण हमें इस साम्राज्य के ग्राम प्रशासन की अधिक जानकारी प्राप्त है।
अभिलेखों में दो सभाओं का उल्लेख देखने को मिलता है। इनमें से एक है उर और दूसरी सभा या महासभा। चोल साम्राज्य
उर गांव की आम सभा थी लेकिन महासभा के कार्य – कलाप के संबंध में हमें अधिक जानकारी नहीं है। यह अग्रहार कहे जाने वाले ब्राह्मण गांवों के वयस्क सदस्यों की सभा थी।
अग्रहारों में ब्राह्मण लोग निवास करते थे और वहां की अधिकांश भूमि लगन मुक्त होती थी।
गांव के मामलों को एक कार्यकारिणी समिति संभालती थी। इस समिति के सदस्य संपत्तिशाली शिक्षित लोग होते थे।
सदस्यों को चुनाव पर्चियाँ निकालकर या बारी के अनुसार किया जाता था। ये सदस्य हर तीन वर्ष बाद हट जाते थे।
शांति – सुव्यवस्था कायम रखने , न्याय व्यवस्था चलाने , भू – राजस्व के निर्धारण और वसूली आदि में सहायता देने के लिए दूसरी समितियां होती थी।
तालाब समिति एक महत्वपूर्ण समिति थी। यह खेतों को पानी वितरित करने के काम की देख – रेख करती थी।
महासभा नई जमीनों का बंदोबस्त कर सकती थी और उन पर स्वामित्व के अधिकार का प्रयोग कर सकती थी। वह गांव के लिए ऋण भी ले सकती थी और कर लगा सकती थी। चोल साम्राज्य
सांस्कृतिक जीवन
चोल शासकों को तंजावूर , गंगई , कोंडचोलपुरम , कांची आदि महानगरों का निर्माण करने का समर्थ प्राप्त हुई।
चोल शासनकाल में दक्षिण भारत का मंदिर – स्थापत्य चरमोत्कर्ष पर था। इस काल में स्थापत्य की जो शैली लोकप्रिय हुई उसे द्रविड़ शैली कहते हैं। क्योंकि वह मुख्यत: दक्षिण भारत तक सीमित थी।
द्रविड़ शैली की मुख्य विशेषता थी गर्भगृह के ऊपर एक – के – बाद – एक कई मंजिलों का निर्माण। मंजिले 5 से 7 तक होती थी और वे एक खास शैली में बनी होती थी जिसे विमान शैली कहते हैं।
मंदिर के मुख्य भवन के सामने सामान्यत: स्तंभों पर बना हुआ एक विशाल कक्ष होता था , जिसकी छत सपाट होती थी। स्तंभों को खूब अलंकृत किया जाता था। इस कक्ष को मंडपम कहते थे।
मंदिर के चारों ओर एक विशाल परिक्रमा पथ होता था जो ऊंची चारदीवारी से घिरा रहता था। चारदिवारीयों में जगह-जगह ऊँचे सिंहद्वारा बने होते थे जिन्हें गोपुरम कहा जाता था।
मंदिरों का खर्च चलाने के लिए आम तौर पर उन्हें राजस्व – मुक्त भूमिदान दिया जाता था। संपन्न व्यक्ति व्यापारी भी उन्हें भूमि – दान और नकद अनुदान देते थे।
कुछ मंदिर इतने समृद्ध हो गए कि वे महाजनी करने लगे और व्यवसाययों में भाग लेने लगे। चोल साम्राज्य
द्रविड़ शैली के मंदिरों का आरंभिक उदाहरण कांचीपुरम का कैलाशनाथ मंदिर है। लेकिन इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रथम राजराज द्वारा तंजौर में बनाया गया बृहदीश्वर मंदिर है।
बृहदीश्वर मंदिर को राजराज मंदिर भी कहा जाता है , क्योंकि चोलो के बीच मंदिर में देवी – देवताओं के अलावा राजा और रानी की प्रतिमाएं भी प्रतिष्ठित करने का चलन था।
होयसलों की राजधानी हलेविड में काफी संख्या में मंदिर बनवाए गए। इनमें सबसे भव्य होयसलेश्वर मंदिर है। यह चालुक्य शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है।
देवी – देवताओं तथा उनके यक्ष – यक्षिणी , सेवक – सेविकाओं की प्रतिमाओं के अलावा इस मंदिर की दीवारों पर उम्दा उत्कीर्णन किया गया है।
इस काल में दक्षिण भारत में मूर्तिकला ने एक नई ऊंचाई का स्पर्श किया। इसका एक उदाहरण श्रवणबेलगोला की गोमटेश्वर की विशालकाय मूर्ति है।
इसका दूसरा पहलू प्रतिमा निर्माण था जिसका सबसे अधिक निखार नटराज की प्रतिमा में हुआ। इस काल की नटराज की प्रतिमाएं , खास तौर ने उसकी कांस्य प्रतिमाएं , इस कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने मानी जाती है। चोल साम्राज्य
इस काल की एक उल्लेखनीय विशेषता क्षेत्रीय भाषाओं का विकास था।
छठी से लेकर नवीं सदी तक तमिल देश में अनेक लोकप्रिय संतों का प्रादुर्भाव हुआ। अलवार और नयनार कहे जाने वाले ये संत विष्णु और शिव के भक्त होते थे।
इन संतों की रचनाओं को 12वीं सदी के आरंभ में तिरुमुरई नाम से 11 जिल्दों में संकलित किया गया। इन रचनाओं को पवित्र माना जाता है और पांचवें वेद का दर्जा दिया जाता है।
कंबन का काल , जो विद्वानों की राय में 11वीं सदी का उत्तरार्ध और 12वीं सदी का प्रारंभिक चरण था , तमिल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। कंबन की रामायण को तमिल साहित्य की उच्चतम कोटी की रचना माना जाता है।
राष्ट्रकूट , चालुक्य और होयसल राजाओं ने कन्नड़ और तेलुगु दोनों को संरक्षण दिया। राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर एक पुस्तक लिखी।
पंपा , पोन्ना और रन्ना कन्नड़ काव्य के रत्न माने जाते हैं। यद्यपि ये विद्वान जैन धर्म से प्रभावित थे , तथापि उन्होंने रामायण और महाभारत से लिए गए विषयों पर भी खूब लिखा।
चालुक्य राजा के दरबार में रहने वाले नन्नेया ने महाभारत का तेलुगू पाठ तैयार करना आरंभ किया। उसके आरंभ किया कार्य को 13वीं सदी में तिक्कन्ना ने पूरा किया।
दक्षिण भारत में आठवीं से 12वीं सदी का काल न केवल राजनीतिक एकीकरण की दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। चोल साम्राज्य
MCQ
प्रश्न 1 – चोल साम्राज्य की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर – विजयालय
प्रश्न 2 – सबसे समृद्ध चोल राजा थे –
उत्तर – राजराज और राजेंद्र प्रथम
प्रश्न 3 – किस चोल शासक ने श्रीलंका को जीतकर वहां के राजा और रानी के मुकुट तथा राज – चिन्ह को अपने कब्जे में कर लिया ?
उत्तर – राजेंद्र प्रथम
प्रश्न 4 – तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण किसने करवाया था ?
उत्तर – राजराज प्रथम
प्रश्न 5 – किस चोल शासक के शासनकाल का एक अत्यंत उल्लेखनीय सैनिक अभियान कलिंग के रास्ते बंगाल पर किया गया आक्रमण था ?
उत्तर – राजेंद्र प्रथम
प्रश्न 6 – किस चोल शासक ने गंगइकोंडचोल की उपाधि धारण की तथा गंगइकोंडचोलपुरम बसाया ?
उत्तर – राजेंद्र प्रथम
प्रश्न 7 – श्रीविजय साम्राज्य पर किया गया आक्रमण किस चोल शासक का उल्लेखनीय सैनिक पराक्रम का उदाहरण था ?
उत्तर – राजेंद्र प्रथम
प्रश्न 8 – उत्तर चालुक्यो की राजधानी थी ?
उत्तर – कल्याणी
प्रश्न 9 – चोल साम्राज्य के ग्राम प्रशासन की अधिक जानकारी प्राप्त –
उत्तर – चोलकालीन अभिलेखों से
प्रश्न 10 – चोलकालीन अभिलेखों में दो सभाओं का उल्लेख देखने को मिलता है , वे है –
उत्तर – उर और सभा या महासभा
प्रश्न 11 – गांव की कार्यकारिणी समिति के सदस्यों का चुनाव किया जाता था –
उत्तर – पर्चियाँ निकालकर या बारी के अनुसार
प्रश्न 12 – चोल शासनकाल में स्थापत्य की जो शैली लोकप्रिय हुई उसे क्या कहते हैं ?
उत्तर – द्रविड़ शैली
प्रश्न 13 – मंदिर के चारदिवारीयों में जगह-जगह ऊँचे सिंहद्वारा बने होते थे जिन्हें कहा जाता था –
उत्तर – गोपुरम
प्रश्न 14 – द्रविड़ शैली के मंदिरों का आरंभिक उदाहरण है –
उत्तर – कांचीपुरम का कैलाशनाथ मंदिर
प्रश्न 15 – किस मंदिर को राजराज मंदिर भी कहा जाता है ?
उत्तर – बृहदीश्वर
प्रश्न 16 – कौन – सा मंदिर चालुक्य शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है ?
उत्तर – होयसलेश्वर मंदिर
प्रश्न 17 – किन रचनाओं को पवित्र माना जाता है और पांचवें वेद का दर्जा दिया जाता है ?
उत्तर – तिरुमुरई नाम से 11 जिल्दों में संकलित रचना
प्रश्न 18 – किसके काल को तमिल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है ?
उत्तर – कंबन
प्रश्न 19 – राष्ट्रकूट राजा जिसने कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर एक पुस्तक लिखी –
उत्तर – अमोघवर्ष
प्रश्न 20 – कन्नड़ काव्य के रत्न माने जाते हैं –
उत्तर – पंपा , पोन्ना और रन्ना