दिल्ली सल्तनत – 1

दिल्ली सल्तनत - 1

दिल्ली सल्तनत – 1 – तुर्कों ने जिस राज्य की स्थापना की वह दिल्ली सल्तनत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

उत्तरी भारत में तुर्क शासन की स्थापना का प्रभाव सौ साल के अंदर पूरे भारत में महसूस किया जाने लगा और उसके फलस्वरुप समाज , प्रशासन तथा सांस्कृतिक जीवन में दूरगामी परिवर्तन हुए। दिल्ली सल्तनत – 1

शक्तिशाली राजतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष

मुहम्मद गोरी ( मुइज्जुद्दीन ) की मृत्यु ( 1206 ईस्वी ) के बाद उसके भारतीय राज्य – प्रदेशों का उत्तराधिकार कुतुबुद्दीन ऐबक को प्राप्त हुआ।

मोहम्मद गोरी के दूसरे गुलाम यलदूज को गजनी का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ।

गजनी के शासक के रूप में यलदूज ने दिल्ली पर भी अपना हक जताया। लेकिन उसके इस दावे को ऐबक ने स्वीकार नहीं किया और दिल्ली सल्तनत ने गजनी से सारे संबंध तोड़ लिए। दिल्ली सल्तनत – 1

इल्तुतमिश ( 1210 ईस्वी – 36 ई )

1210 ईस्वी में चोगान ( पोलो ) खेलते समय घोड़े से गिर जाने से ऐबक को गहरी चोट लगी जिससे उसकी मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका दामाद इल्तुतमिश दिल्ली की गद्दी पर बैठा। लेकिन इससे पहले उसे ऐबक के बेटे को लड़ाई में हारना पड़ा।

इल्तुतमिश को तुर्कों की भारत – विजय को स्थायित्व प्रदान करने का श्रेय देना होगा।

इल्तुतमिश की गद्दीनशीनी के समय अलीमर्दानखां ने स्वयं को बंगाल और बिहार का राजा घोषित कर दिया था।

उधर ऐबक के एक साथी गुलाम कुबाचा ने खुद को मुल्तान का स्वतंत्र शासक ऐलान कर दिया था और लाहौर तथा पंजाब के कुछ हिस्सों पर कब्जा भी कर लिया था।

कालिंजर, ग्वालियर और पूरे पूर्वी राजस्थान ने , जिसमें अजमेर और बयाना के राज्य शामिल थे , अपने कंधों से तुर्की पराधीनता का जुआ उतार फेंका। दिल्ली सल्तनत – 1

उन दिनों ख्वारिज्म साम्राज्य मध्य एशिया का सबसे शक्तिशाली राज्य था। चिंता की बात यह थी कि उसकी पूर्वी सीमा सिंधु नदी तक चली थी। इस खतरे को टालने के लिए इल्तुतमिश ने लाहौर पर कब्जा कर लिया।

1218 ईस्वी में ख़्वारिज़्मी साम्राज्य को मंगोलों ने ध्वस्त कर दिया। जिससे इल्तुतमिश को कुबाचा से निपटने का अवसर मिल गया और उसने उसे मुल्तान तथा कच्छ से उखाड़ फेंका। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत की सीमा एक बार फिर सिंधु नदी का स्पर्श कर रही थी।

बंगाल और बिहार में इवाज नामक एक व्यक्ति ने सुल्तान गयासुद्दीन की पदवी धारण करके अपनी आजादी का ऐलान कर दिया था। 1226 ई – 27 ईस्वी में इवाज लखनौती के निकट इल्तुतमिश के बेटे के खिलाफ लड़ता हुआ मारा गया।

इल्तुतमिश ने ग्वालियर और बायान पर फिर से कब्जा करने के लिए कदम उठाए। अजमेर और नागौर पर उसकी सत्ता कायम रही।

इल्तुतमिश ने रणथंभोर और जालौर पर आक्रमण करके वहां अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित किया।

इल्तुतमिश ने मेवाड़ की राजधानी नागदा ( उदयपुर से लगभग 22 किलोमीटर दूर ) पर भी हमला किया लेकिन राणा की सहायता के लिए गुजरात की सेना के आ जाने से उसे पीछे हटना पड़ा। दिल्ली सल्तनत – 1

रजिया ( 1236 ई – 39 ई )

काफी सोच – विचार के बाद इल्तुतमिश ने अपनी बेटी रजिया को दिल्ली की गद्दी पर बैठने के लिए नामजद करने का फैसला किया। उसने अमीरों और उलमाओं को इस नामजदगी पर रजामंद कर लिया।

अपने दावे को मनवाने के लिए रजिया को अपने भाइयों और शक्तिशाली तुर्क अमीरों के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा और वह केवल 3 वर्ष शासन कर पाई।

उसी के शासन-काल में सत्ता के लिए राजतंत्र और उन तुर्क सरदारों के बीच संघर्ष आरंभ हुआ जिन्हें कभी-कभी ‘ चहलगामी ‘ या ‘ चालीसा ‘ कहा जाता है।

रजिया ने जनाना पोशाक का त्याग करके बिना बुर्के – पर्दे के दरबार लगाना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं , वह शिकार पर भी जाती थी और युद्ध में सेना का नेतृत्व करती थी।

वजीर निजाम – उल – मुल्क जुनैदी ने उसकी गद्दी नशीनी का विरोध किया था और उसके खिलाफ अमीरों के विद्रोह का समर्थन किया था। राजिया ने उसे लड़ाई में हराकर जान बचाकर भागने पर विवश कर दिया। दिल्ली सल्तनत – 1

तुर्क अमीरों ने उस पर नारी सुलभ शील का त्याग करने और याकूत खाँ नमक अबिसीनियाई अमीर पर जरूरत से ज्यादा मेहरबान होने का आरोप लगाया।

जब रजिया सरहिंद की ओर बढ़ रही थी उस समय उसी के खेमे में विद्रोह भड़क उठा और याकूत खां को मौत के घाट उतार दिया गया।

रजिया को तबरहिंद में बंदी बना लिया गया। लेकिन रजिया अपने को बंदी बनाने वाले सरदार अलतूनिया को अपने पक्ष में मिल लिया और उसकी शादी करके दिल्ली को फिर से फतह करने की एक और कोशिश की।

रजिया बहुत बहादुरी से लड़ी लेकिन पराजित हो गई और लड़ाई में डाकुओं के हाथों मारी गई। दिल्ली सल्तनत – 1

बलबन का युग ( 1246 ई – 86 ई )

राजतंत्र तंत्र और तुर्क सरदारों के बीच संघर्ष जारी रहा। आखिर उलुग खां नामक एक तुर्क सरदार ने ही धीरे-धीरे सल्तनत की सारी सत्ता हथिया ली और 1265 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठ गया। वह बलबन के रूप में इतिहास में प्रसिद्ध हुआ।

इससे पहले बलबन इल्तुतमिश के एक कनिष्ठ सुलतान पुत्र नासिरुद्दीन महमूद का नायब था जिसे उसने गद्दी हासिल करने में मदद दी थी। बलबन ने युवा सुल्तान से अपनी एक बेटी का विवाह करके अपनी स्थिति और भी मजबूत कर ली।

बलबन की बढ़ती हुई ताकत को देखकर उससे नाराज सरदारों ने 1250 ईस्वी में एक षड्यंत्र रचा और बलबन को उसके स्थान से अपदस्थ कर दिया। बलबन की जगह इबादुद्दीन रैहान नामक एक भारतीय मुसलमान को प्रतिष्ठित कर दिया गया।

बलबन पदत्याग के लिए तो राजी हो गया लेकिन वह बड़ी सावधानी से अपना एक दल तैयार करने की कोशिश में जुटा रहा। अपनी बर्खास्तगी के 2 साल के अंदर उसने अपने कई विरोधियों को अपने पक्ष में कर लिया। दिल्ली सल्तनत – 1

आखिर सुल्तान को बलबन के दल की श्रेष्ठ ताकत के आगे झुकना पड़ा और उसने रेहान को बर्खास्त कर दिया।

1265 ईस्वी में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों की राय है कि बलबन ने ही सुल्तान को जहर दे दिया था और उसने उसके बेटों का भी सफाया कर दिया था।

बलबन की गद्दीनशीनी के साथ मजबूत और केंद्रीकृत शासन के युग का सूत्रपात हुआ। गद्दी पर अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने घोषणा की कि वह विख्यात ईरानी शहंशाह अफ्रासियाब का वंशज है।

अपने कुलीन रक्त का दावा साबित करने के लिए बलबन ने खुद को तुर्क अमीरों के हितों के रक्षक के रूप में पेश किया।

बलबन किसी भी महत्वपूर्ण पद के लिए किसी ऐसे व्यक्ति के नाम के बारे में सोचने को तैयार नहीं था जो किसी कुलीन परिवार का न रहा हो। दिल्ली सल्तनत – 1

व्यावहारिक दृष्टि से इसका मतलब यह था कि किसी भी भारतीय मुसलमान को शक्ति और सत्ता का पद प्राप्त नहीं हो सकता था। उसने एक बहुत बड़े व्यापारी से मिलने के लिए इसलिए इनकार कर दिया कि उसका जन्म उच्च कुल में नहीं हुआ था।

इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि बलबन कहता था , ” जब भी मैं किसी नीच कुल में उत्पन्न हेय व्यक्ति को देखता हूं तो मेरी आंखों में अंगारे फूटने लगते हैं और क्रोध से मेरा हाथ मेरी तलवार पर चला जाता है। “

रिआया का विश्वास प्राप्त करने के लिए वह सर्वथा निष्पक्ष न्याय किया करता था।

अपने को पुरे हालात से वाकिफ रखने के लिए बलबन ने हर महकमे में जासूस मुकर्रर किए।

बलबन ने एक शक्तिशाली केंद्रित सेना संगठित की। इस प्रयोजन से उसने सैन्य विभाग ( दीवान – ए – अर्ज ) का पुनर्गठन किया और जो सैनिक और घुड़सवार लड़ने लायक नहीं रह गए थे उन्हें पेंशन देकर उनकी छुट्टी कर दी। दिल्ली सल्तनत – 1

बलबन ने ” खून और फौलाद ” की नीति अपनाई।

लोगों को अपनी सरकार की शक्ति और सामर्थ्य का रोब जमाने के लिए बलबन अपने दरबार का वातावरण खूब शानो – शौकत से भरा रखता था।

जब कभी बलबन बाहर निकलता था तो उसके इर्द-गिर्द नंगी तलवार लिए अंगरक्षकों का एक बहुत बड़ा दल तैनात रहता था। दरबार में हंसी – मजाक से पूरा परहेज रखा जाता था।

अमीर लोग उसके समक्ष नहीं थे , इस बात पर जोर देने के लिए सजदा और पैबोस ( दंडवत करने और राजा के कदम चूमने ) की रस्मों पर वह बहुत आग्रह रखता था।

बलबन की मृत्यु 1286 ईस्वी में हुई। राजपद की शक्ति का रोब जमाकर बलबन ने दिल्ली सल्तनत को मजबूत बनाया लेकिन वह भी मंगोलों के हमलों से उत्तर भारत को पूरी तरह सुरक्षित नहीं रख पाया। दिल्ली सल्तनत – 1

मंगोल और उत्तर – पश्चिम सीमा की समस्या

मंगोल नेता चंगेज अपने को ” ईश्वर का अभिशाप ” कहने में गर्व का अनुभव करता था।

मंगोल युद्ध के एक उपकरण के तौर पर आतंक का प्रयोग जानबूझकर करते थे।

भारत में मंगल खतरा 1221 ईस्वी में आया। ख़्वारिज़्मी राजा की पराजय के बाद युवराज जलालुद्दीन जान बचाकर भाग निकला , लेकिन चंगेज खां उसका पीछा करता रहा।

सिंधु नदी के किनारे युवराज ने चंगेज के खिलाफ जमकर लोहा लिया , लेकिन जब पराजित हो गया तो वह भारत पहुंच गया।

उन दिनों दिल्ली पर इल्तुतमिश का शासन था। उसने मंगोलों को खुश करने के लिए जलालुद्दीन के शरण देने के अनुरोध को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।

जलालुद्दीन कुछ समय तक लाहौर और सतलुज नदी के बीच अर्थात सिस – सतलुज क्षेत्र में समय व्यतीत करता रहा। इस कारण से मंगोलों ने इस इलाके पर कई बार हमला किया। दिल्ली सल्तनत – 1

मंगोल 1240 ई तक भारत की ओर सिंधु से आगे बढ़ने से परहेज करते रहे। इसका मुख्य कारण यह था कि वे इराक और ईरान में व्यस्त थे।

मंगोल सेना 1245 ईस्वी में मुल्तान पर चढ़ आए। तब बलबन एक विशाल सेना लेकर तेजी से मौके की ओर बढ़ चला और इस विपत्ति को टालने में कामयाबी हासिल की।

इस बीच इमामुद्दीन रेहान के नेतृत्व में बलबन के प्रतिद्वंद्वी उसे पदच्युत करने के लिए जोड़-तोड़ में लग गए थे। इससे मंगोलों को अच्छा मौका मिल गया और उन्होंने लाहौर पर कब्जा कर लिया।

कुछ तुर्क अमीर भी, जिनमें मुल्तान का सूबेदार शेरखां भी शामिल था , मंगोलों के साथ जा मिला। अंत में बलबन मुल्तान पर मुगोलों से फिर से हासिल करके करने में कामयाब हो गया।

बलबन ने तबरहिंद , सुनाम और समाना के किलों की मरम्मत करवाई और मंगोलों को व्यास पार करने से रोकने के लिए वहां एक प्रबल सेना तैनात कर दी। दिल्ली सल्तनत – 1

बलबन ने ईरान के मंगोल इल – खान हलाकू के पास और आस – पास के शासको के पास कूटनीतिक टोह लेने के लिए अपने आदमी भेजे। हलाकू के दूत दिल्ली आए जिनका बलबन ने दिल खोलकर स्वागत सम्मान किया।

बलबन पंजाब में बहुत बड़े हिस्से को मंगोलों के नियंत्रण में रहने देने पर चुपचाप राजी हो गया बदले में मंगोलों ने दिल्ली पर कभी हमला नहीं किया।

बलबन ने मुल्तान पर फिर से कब्जा करने में कामयाबी हासिल की और अपने ज्येष्ठ पुत्र महमूद को उसकी सूबेदारी की स्वतंत्र जिम्मेदारी सौंप दी। लेकिन युवराज मंगोलों के खिलाफ एक सैनिक मुठभेड़ में मारा गया।

मंगोल – मुसीबत का सामना करने के लिए बलवान ने जो रणनीतिक तथा कूटनीतिक व्यवस्था की थी वह 1286 ईस्वी में उसकी मृत्यु के उपरांत भी दिल्ली सल्तनत के काम आती रही।

1292 ईस्वी में हलाकू का एक पौत्र अब्दुल्ला 150000 घुड़सवारों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ चला। लेकिन जलालुद्दीन खिलजी ने उसे बलबन द्वारा भटिंडा , सुनाम आदि में स्थापित सीमा सुरक्षा पंक्ति के निकट पराजित कर दिया। पस्तहिम्मत मंगोलों को युद्ध – विराम के लिए निवेदन करना पड़ा। दिल्ली सल्तनत – 1

ईरान के मंगोल इल – खान ने कुल मिलाकर दिल्ली के सुल्तानों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध कायम रखा था।

चगताई मंगोल ट्रांस -ऑक्सियाना का शासक दावा खां ने भारत को जीतने की कोशिश की।

1297 ईस्वी में दावा खां ने दिल्ली की रक्षा – पंक्ति का काम करने वाले कीलों पर एक – के – बाद – एक कई हमले किए।

1299 ईस्वी में उसके बेटे कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में दो लाख मंगोलों की विशाल सेना दिल्ली को जीतने के लिए आ पहुंची। यहां तक कि वे दिल्ली की कई गलियों में भी घुस आए।

यह पहला अवसर था जब मंगोलों ने दिल्ली पर अपना शासन स्थापित करने के लिए हमलों का ताँता लगा दिया था। उन दिनों दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था।

अलाउद्दीन खिलजी ने मंगोलों से दिल्ली के बाहर दो – दो हाथ करने का फैसला किया। कई लड़ाइयों में भारतीय सेना विजयी रही , हालंकि उनमें से एक में प्रसिद्ध सेनानायक जफर खां खेत रहा। दिल्ली सल्तनत – 1

1303 ईस्वी में 120000 की एक फौज के साथ मंगोल फिर से आ धमके। उस समय अलाउद्दीन खिलजी राजपूताना के चित्तौर के खिलाफ सैनिक कार्रवाई में लगा हुआ था।

मंगोलों के आने की खबर मिलते ही अलाउद्दीन खिलजी वापस लौट पड़ा और दिल्ली के निकट सिरी नामक अपनी नई राजधानी में किलेबंदी करके बैठ गया। अंत में मंगोल एक बार फिर बिना कुछ हासिल किए लौट गए।

दिल्ली पर किए गए इन दो हमलों से यह स्पष्ट हो गया कि दिल्ली के सुल्तान मंगोलो का सामना कर सकते थे।

अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशाल और चुस्त सेना खड़ी करने के लिए गंभीरता से महत्वपूर्ण कदम उठाए और उसने व्यास के निकट के किलों की मरम्मत करवाई। फलतः अगले साल होने वाले मंगोल आक्रमण को उसने भारी नरसंहार के साथ विफल कर दिया।

तेरहवीं सदी के पूरे दौर में दिल्ली के सुल्तानों को उत्तर – पश्चिम से एक गंभीर खतरे का सामना करना पड़ा। दिल्ली सल्तनत – 1

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आंतरिक विद्रोह और दिल्ली सल्तनत की प्रदेश – विजय को स्थायित्व प्रदान करने के लिए संघर्ष

इलबारी तुर्कों ( जिन्हें कभी-कभी मामलूक या गुलाम तुर्क भी कहा जाता है ) के शासनकाल में दिल्ली के सुल्तानों को न केवल शासक वर्ग के बीच के आपसी झगड़ों और विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा बल्कि आंतरिक विद्रोह से भी निबटना पड़ा।

लखनौती में इवाज नामक एक व्यक्ति ने गियासुद्दीन सुल्तान का ख़िताब धारण करके वहां स्वतंत्र शासक के रूप में काम करना शुरू कर दिया।

उत्तर – पश्चिम में इल्तुतमिश की व्यस्तता का लाभ उठाकर इवाज ने अपना नियंत्रण बिहार पर स्थापित कर लिया और जाजनगर ( उड़ीसा ) , तिरहुत ( उत्तर बंगाल ) , बंग ( पूर्व बंगाल ) तथा कामरूप ( असम ) से नजराने उगाहना शुरू कर दिए।

जब इल्तुतमिश उत्तर – पश्चिम से मुक्त हुआ तो 1225 ईस्वी में उसने सेना लेकर इवाज पर आक्रमण किया। आरंभ में इवाज ने आत्मसमर्पण कर दिया लेकिन इल्तुतमिश के पीठ फेरते ही उसने फिर से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया।

तब इल्तुतमिश के एक बेटे ने , जो कि अवध का सूबेदार था , इवाज को युद्ध में पराजित करके मौत के घाट उतार दिया। दिल्ली सल्तनत – 1

1244 ईस्वी में उड़ीसा के शासक ने लखनौती के निकट मुसलमानों की फौज को गहरी शिकस्त दी। उड़ीसा की राजधानी जाजनगर पर कब्जा करने के लिए मुसलमानों ने बाद में जो प्रयत्न किए उनका परिणाम भी ऐसा ही रहा।

तुगरिल ने पहले तो बलबन की अधीनता कबूल कर ली थी लेकिन बाद में उसने भी अपनी आजादी का ऐलान कर दिया था।

बलबन सेना लेकर लखनौती आ धमका ( 1280 ई ) और तुगरिल को खत्म कर दिया। यह अभियान 3 साल तक चला और यह एकमात्र ऐसा सैनिक अभियान था जिसका नेतृत्व बलबन ने दिल्ली से दूर जाकर किया था।

दिल्ली बंगाल पर ज्यादा दिनों तक अपना नियंत्रण कायम नहीं रख सकी। बलबन की मृत्यु के बाद उसके बेटे बुगरा खां ने , जिसे बलबन ने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, दिल्ली की गद्दी के लिए अपनी जान को जोखिम में डालने की बजाय बंगाल पर स्वतंत्र रूप से शासन करना बेहतर समझा।

तेरहवीं सदी के ज्यादातर दौर में बंगाल और बिहार दिल्ली के काबू से बाहर रहे। दिल्ली सल्तनत – 1

ऐबक के अधीन तुर्कों ने तिजारा ( अलवर ) , बयाना , ग्वालियर , कालिंजर आदि के दुर्गों की पूरी श्रृंखला पर कब्जा कर लिया था। उन्होंने पूर्वी राजस्थान में रणथंभोर , नागौर , अजमेर और जालौर के निकट नदोल तक के इलाकों को जीत लिया था।

उत्तर पश्चिम में इल्तुतमिश की व्यस्तता का फायदा उठाते हुए राजपूत राजाओं ने कालिंजर , ग्वालियर और बयान के अपने खोए हुए राज्य फिर से वापस पा लिए थे।

रणथंभौर और जालौर जैसे कई और राज्यों ने भी तुर्क प्रभुत्व से स्वयं को मुक्त कर लिया था।

1226 ईस्वी से इल्तुतमिश ने इन क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण पुनः स्थापित करने के लिए लड़ाइयों का सिलसिला शुरू कर दिया।

सबसे पहले इल्तुतमिश ने रणथंबोर पर चढ़ाई की और वहां के शासक को तुर्क प्रभुत्व स्वीकार करने पर मजबूर किया। उसने जालौर पर भी अधिकार कर लिया। पूरब में इल्तुतमिश ने बयाना और ग्वालियर पर फिर अधिकार कर लिया।

राजपूत राजाओं के हमेशा आपस में लड़ते रहने से भी तुर्कों की मदद मिली और उनके खिलाफ राजपूतों के प्रभावकारी गठबंधन की स्थापना असंभव हो गई। दिल्ली सल्तनत – 1

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प्रश्न 1 – तुर्कों ने जिस राज्य की स्थापना की वह किस नाम से प्रसिद्ध हुआ ?

उत्तर – दिल्ली सल्तनत

प्रश्न 2 – मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद उसके भारतीय राज्य – प्रदेशों का उत्तराधिकार किस को प्राप्त हुआ ?

उत्तर – कुतुबुद्दीन ऐबक

प्रश्न 3 – मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद उसके गुलाम यलदूज को कहाँ का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ ?

उत्तर – गजनी

प्रश्न 4 – 1210 ईस्वी में ऐबक की मृत्यु घोड़े से गिर जाने से हुई उस समय वह किस खेल में व्यस्त था ?

उत्तर – चोगान

प्रश्न 5 – तुर्कों की भारत – विजय को स्थायित्व प्रदान करने का श्रेय किसे दिया जाता है ?

उत्तर – इल्तुतमिश

प्रश्न 6 – इल्तुतमिश की गद्दीनशीनी के समय किसने स्वयं को बंगाल और बिहार का राजा घोषित कर दिया था ?

उत्तर – अलीमर्दानखां

प्रश्न 7 – इल्तुतमिश की गद्दीनशीनी के समय किसने स्वयं को मुल्तान का स्वतंत्र शासक घोषित कर लिया था ?

उत्तर – कुबाचा

प्रश्न 8 – बंगाल और बिहार में किसने सुल्तान गयासुद्दीन की पदवी धारण करके अपनी आजादी का ऐलान कर दिया था ?

उत्तर – इवाज

प्रश्न 9 – किसके शासन – काल में सत्ता के लिए राजतंत्र और उन तुर्क सरदारों के बीच संघर्ष आरंभ हुआ जिन्हें कभी-कभी ‘ चहलगामी ‘ या ‘ चालीसा ‘ कहा जाता है ?

उत्तर – रजिया

प्रश्न 10 – किस वजीर ने रजिया की गद्दी नशीनी का विरोध किया और उसके खिलाफ अमीरों के विद्रोह का समर्थन किया था ?

उत्तर – निजाम – उल – मुल्क जुनैदी

प्रश्न 11 – किस अबिसीनियाई अमीर पर रजिया का जरूरत से ज्यादा मेहरबान होने का आरोप लगाया गया ?

उत्तर – याकूत खाँ

प्रश्न 12 – दिल्ली सल्तनत के इतिहास में बलबन के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति का असली नाम क्या था ?

उत्तर – उलुग खां

प्रश्न 13 – बलबन किस सुल्तान का नायब था ?

उत्तर – नासिरुद्दीन महमूद

प्रश्न 14 – सल्तनत काल में किस शासक के गद्दीनशीनी के साथ मजबूत और केंद्रीकृत शासन के युग का सूत्रपात हुआ ?

उत्तर – बलबन

प्रश्न 15 – गद्दी पर अपने दावे को मजबूत करने के लिए किस शासक ने घोषणा की कि वह विख्यात ईरानी शहंशाह अफ्रासियाब का वंशज है ?

उत्तर – बलबन

प्रश्न 16 – बलबन कहता था , ” जब भी मैं किसी नीच कुल में उत्पन्न हेय व्यक्ति को देखता हूं तो मेरी आंखों में अंगारे फूटने लगते हैं और क्रोध से मेरा हाथ मेरी तलवार पर चला जाता है। ” यह किस इतिहासकार ने लिखा है ?

उत्तर – बरनी

प्रश्न 17 – सल्तनत काल के किस शासक ने सैन्य विभाग ( दीवान – ए – अर्ज ) का पुनर्गठन किया ?

उत्तर – बलबन

प्रश्न 18 – सल्तनत काल के किस शासक ने ” खून और फौलाद ” की नीति अपनाई ?

उत्तर – बलबन

प्रश्न 19 – किस शासक ने तुर्क प्रभाव को कम करने के लिए सजदा और पैबोस ( दंडवत करने और राजा के कदम चूमने ) को अनिवार्य कर दिया ?

उत्तर – बलबन

प्रश्न 20 – इतिहास में वह व्यक्ति जो अपने को ” ईश्वर का अभिशाप ” कहने में गर्व का अनुभव करता था ?

उत्तर – चंगेज खां

प्रश्न 21 – जब चंगेज खां ख़्वारिज़्मी युवराज जलालुद्दीन का पीछा करते हुए सिंध नदी के किनारे पहुंचा , उस समय दिल्ली पर किसका शासन था ?

उत्तर – इल्तुतमिश

प्रश्न 22 – 1292 ईस्वी में हलाकू के पौत्र अब्दुल्ला ने जब की दिल्ली की ओर कूच किया तो उसे किस शासक द्वारा पराजित होना पड़ा ?

उत्तर – जलालुद्दीन खिलजी

प्रश्न 23 – दिल्ली को जीतने के उद्देश्य से कुतलुग ख्वाजा ने आक्रमण किया। उस समय दिल्ली का शासक कौन था ?

उत्तर – अलाउद्दीन खिलजी

प्रश्न 24 – अलाउद्दीन का वह प्रसिद्ध सेनानायक जो मंगोलों से मुठभेड़ के दौरान खेत रहा ?

उत्तर – जफर खां

प्रश्न 25 – इलबारी तुर्कों को और किस नाम से जाना जाता था ?

उत्तर – मामलूक या गुलाम

प्रश्न 26 – वह एकमात्र सैनिक अभियान जिसका नेतृत्व बलबन ने दिल्ली से दूर जाकर किया था ?

उत्तर – बंगाल के तुगरिल खां के विरुद्ध अभियान

प्रश्न 27 – बलबन की मृत्यु के बाद उसके किस बेटे ने दिल्ली के बजाय बंगाल पर स्वतंत्र रूप से शासन करना बेहतर समझा ?

उत्तर – बुगरा खां

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