क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण : – जिन्हें हम आज क्षेत्रीय संस्कृतियाँ समझते हैं , वे समय के साथ – साथ बदली हैं ( और सच तो यह है कि आज भी बदल रही है ।
ये क्षेत्रीय संस्कृतियाँ जटिल प्रक्रिया से विकसित हुई हैं।
इस प्रक्रिया के तहत स्थानीय परंपराओं और उपमहाद्वीप के अन्य भागों में विचारों के आदान – प्रदान ने एक – दूसरे को संपन्न बनाया है।
कुछ परंपराएँ तो कुछ विशेष क्षेत्रों की अपनी है ,जबकि कुछ अन्य भिन्न – भिन्न क्षेत्रों में एक समान प्रतीत होती है।
परंतु इसके अतिरिक्त , कुछ अन्य परंपराएँ एक खास इलाके के पुराने रीति – रिवाजों से तो निकली है , परंतु अन्य क्षेत्रों में जाकर उन्होंने एक नया रूप ले लिया है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
चेर और मलयालम भाषा का विकास
महादेवपुरम का चेर राज्य प्रायद्वीप के दक्षिणी – पश्चिमी भाग में , जो आज के केरल राज्य का एक हिस्सा है , नौवीं शताब्दी में स्थापित किया गया।
संभवत : मलयालम भाषा इस इलाके में बोली जाती थी।
शासको ने मलयालम भाषा एवं लिपि का प्रयोग अपने अभिलेखों में किया।
वस्तुत: इस भाषा का प्रयोग उपमहाद्वीप के सरकारी अभिलेखों में किसी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के सबसे पहले उदाहरणों में से एक है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
साथ – साथ चेर लोगों ने संस्कृत की परंपराओं से भी बहुत कुछ ग्रहण किया।
केरल का मंदिर – रंगमंच , जिसकी परंपरा इस युग तक खोजी जा सकती है , संस्कृत के महाकाव्यों पर आधारित था।
मलयालम भाषा की पहली साहित्यिक कृतियाँ, जो लगभग 12वीं शताब्दी की बताई जाती है , प्रत्यक्ष रूप से संस्कृत की ऋणी है।
14वीं शताब्दी का एक ग्रंथ लीला तिकलम , जो व्याकरण तथा काव्यशास्त्र विषयक है ‘ मणिप्रवालम ‘ शैली में लिखा गया था।
मणिप्रवालम का शाब्दिक अर्थ है – हीरा और मूँगा , जो यहां दो भाषाओं – संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषा – के साथ – साथ प्रयोग की ओर संकेत करता है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
शासक और धार्मिक परंपराएँ – जगन्नाथी संप्रदाय
अन्य क्षेत्रों में क्षेत्रीय संस्कृतियाँ , क्षेत्रीय धार्मिक परंपराओं से विकसित हुई थी।
इस प्रक्रिया का सर्वोत्तम उदाहरण है – पुरी ,उड़ीसा में जगन्नाथ का संप्रदाय ( जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है , दुनिया का मालिक जो विष्णु का पर्यायवाची है )।
आज तक जगन्नाथ की काष्ठ प्रतिमा , स्थानीय जनजातीय लोगों द्वारा बनाई जाती है जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि जगन्नाथ मूलत : एक स्थानीय देवता थे , जिन्हें आगे चलकर विष्णु का रूप मान लिया गया। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
12वीं शताब्दी में गंग वंश के एक अत्यंत प्रतापी राजा अनंतवर्मन ने पुरी में पुरुषोत्तम जगन्नाथ के लिए एक मंदिर बनवाने का निश्चय किया।
उसके बाद 1230 में राजा अनंगभीम तृतीय ने अपना राज्य पुरुषोत्तम जगन्नाथ को अर्पित कर दिया और स्वयं को जगन्नाथ का ‘ प्रतिनियुक्त ‘ घोषित किया।
ज्यों – ज्यों इस मंदिर को तीर्थस्थल यानी तीर्थ यात्रा के केंद्र के रूप में महत्व प्राप्त होता गया , सामाजिक तथा राजनीतिक मामलों में भी इसकी सत्ता बढ़ती गई। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
राजपूत और शूरवीरता की परंपराएँ
उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश लोग उस क्षेत्र को जहाँ आज का अधिकाँश राजस्थान स्थित है , राजपूताना कहते थे।
राजस्थान में राजपूतों के अलावा अन्य लोग भी रहते है।
तथापि , अकसर यह माना जाता है कि राजपूतों ने राजस्थान को एक विशिष्ट संस्कृति प्रदान की।
ये सांस्कृतिक परंपराएं वहाँ के शासको के आदर्शों तथा अभिलाषाओं के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई थी।
राजपूत शूरवीरों की कहानियाँ काव्यों एवं संगीत में सुरक्षित है ये विशेष रूप से प्रशिक्षित चारण – भाटो द्वारा गाई जाती है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
ये काव्य एवं गीत ऐसे शूरवीरों की स्मृति को सुरक्षित रखते थे जो अन्य जनों को उनका अनुकरण करने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित करें।
इन कहानियों में अक्सर नाटकीय स्थितियों और स्वामीभक्ति , मित्रता , प्रेम , शौर्य , क्रोध आदि प्रबल संवेगों का चित्रण होता था।
स्त्रियों को भी इन कहानियों में स्थान प्राप्त है।
सती प्रथा का भी कुछ कहानियों में उल्लेख पाया जाता है।
इस प्रकार जो लोग शुरवीरता के आदर्शों का पालन करते थे , उन्हें अक्सर इस आदर्श के लिए अपने जीवन का बलिदान करना होता था। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
कत्थक नृत्य की कहानी
कत्थक नृत्य शैली उत्तर भारत के अनेक भागों से जुड़ी है।
‘ कत्थक ‘ शब्द ‘ कथा ‘ शब्द से निकला है , जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में कहानी के लिए किया जाता है।
कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरों में कथा यानी कहानी सुनने वालों की एक जाति थी।
ये कथाकार अपने हाव – भाव तथा संगीत से अपने कथावाचन को अलंकृत किया करते थे। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दियों में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ कत्थक एक विशिष्ट नृत्य शैली का रूप धारण करने लगा।
राधा – कृष्ण के पौराणिक आख्यान ( कहानियाँ ) लोकनाट्य के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे , जिन्हें ‘ रासलीला ‘ कहा जाता था।
रासलीला में लोक नृत्य के साथ कत्थक कथाकार के मूल हाव – भाव भी जुड़े होते थे।
मुगल बादशाहों और उनके अभिजातो के शासनकाल में कत्थक नृत्य राजदरबार में प्रस्तुत किया जाता था , जहाँ इस नृत्य ने अपने वर्तमान अभिलक्षण अर्जित किए और वह एक विशिष्ट नृत्य शैली के रूप में विकसित हो गया। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
आगे चलकर यह दो परंपराओं अर्थात ‘ घरानों ‘ में फूला – फला : राजस्थान ( जयपुर ) के राजदरबारों में और लखनऊ में।
अवध के अंतिम नवाब वाजिदअली शाह के संरक्षण में यह एक प्रमुख कला – रूप में उभरा।
1850 – 1875 के दौरान यह नृत्य शैली के रूप में इन दो क्षेत्रों में ही नहीं , बल्कि आज के पंजाब , हरियाणा , जम्मू और कश्मीर , बिहार तथा मध्य प्रदेश के निकटवर्ती इलाकों में भी पक्के तौर पर संस्थापित हो गया।
इसकी प्रस्तुति में क्लिष्ट तथा द्रुत पद संचालन , उत्तम वेशभूषा तथा कहानियों के प्रस्तुतीकरण एवं अभिनय पर जोर दिया जाने लगा। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
अनेक अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों की तरह कत्थक को भी उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दियों में अधिकांश ब्रिटिश प्रशासकों ने नापसंद किया।
फिर भी यह ‘ जीवित ‘ बचा रहा और गणिकाओं द्वारा पेश किया जाता रहा।
स्वतंत्रता – प्राप्ति के बाद तो देश में इसे 6 ‘ शास्त्रीय ‘ नृत्य रूपों में मान्यता मिल गई।
उस शैली को ‘ शास्त्रीय ‘ कहते है , जिसे निर्धारित नियमों के अनुसार प्रदर्शित या प्रस्तुत किया जाता है और इसमें विभिन्नतााओं को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
अन्य नृत्य रूप , जिन्हें हम इस समय शास्त्रीय माना जाता है, निम्नलिखित है :
भरतनाट्यम ( तमिलनाडु )
कथाकली ( केरल )
ओडिसी ( उड़ीसा )
कुचिपुड़ी ( आंध्र प्रदेश )
मणिपुरी ( मणिपुर )
लघुचित्र
लघुचित्र ( जैसे कि उनके नाम से पता चलता है ) छोटे आकार के चित्र होते हैं , जिन्हें आमतौर पर जल रंगों से कपड़े या कागज पर चित्रित किया जाता है।
प्राचीनतम लघुचित्र , तालपत्रों अथवा लकड़ी के तख्तियों पर चित्रित किए गए थे।
इनमें से सर्वाधिक सुंदर चित्र , जो पश्चिम भारत में पाए गए जैन ग्रंथों को सचित्र बनाने के लिए प्रयोग किए गए थे।
मुगल शासको ने अत्यंत कुशल चित्रकारों को संरक्षण प्रदान किया था।
मुगल साम्राज्य के पतन के साथ अनेक चित्रकार मुगल दरबार छोड़कर नए उभरने वाले क्षेत्रीय राज्यों के दरबार में चले गए। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
आधुनिक हिमाचल प्रदेश के इर्द – गिर्द हिमालय की तलहटी के इलाका में सत्रहवीं शताब्दी के बाद वाले वर्षों में लघुचित्रकला की एक सहसपूर्ण एवं भावप्रवण शैली का विकास हुआ , जिसे ‘ बसोहली ‘ शैली कहा जाता है।
यहां जो सबसे लोकप्रिय पुस्तक चित्रित की गई वह थी – भानुदत्त की रसमंजरी।
1739 में नादिरशाह के आक्रमण और दिल्ली विजय के परिणाम स्वरूप मुगल कलाकार , मैदानी इलाकों की अनिशिचतताओं से बचने के लिए पहाड़ी क्षेत्र की ओर पलायन कर गए। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
जिसके फलस्वरूप चित्रकारी की कांगड़ा शैली विकसित हुई।
18वीं शताब्दी के मध्य भाग तक , कांगड़ा के कलाकारों ने एक नई शैली विकसित कर , जिसने लघु चित्रकारी में एक नई जान डाल दी।
उनकी प्रेरणा का स्त्रोत , वहाँ की वैष्णव परंपराएँ थी।
ठंडे नील और हरे रंग सहित कोमल रंगों का प्रयोग और विषयों का काव्यात्मक निरूपण कांगड़ा शैली की विशेषता थी। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
बंगाल
बंगाली भाषा
आज बंगाली , संस्कृत से निकली हुई भाषा मानी जाती है। यद्यपि बंगाली का उदभव संस्कृत से ही हुआ है , पर यह अपने क्रम विकास की अनेक अवस्थाओं से गुजरी है।
इसके अलावा गैर – संस्कृत शब्दों का एक विशाल शब्द भंडार , जो जनजातीय भाषाओं , फारसी और यूरोपीय भाषाओं सहित अनेक स्रोतों से इसे प्राप्त हुआ है , आधुनिक बंगाली का एक हिस्सा बन गया है।
बंगाली के प्रारंभिक साहित्य को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है – एक श्रेणी , संस्कृत की ऋणी है और दूसरी , उससे स्वतंत्र है।
पहली श्रेणी में संस्कृत महाकाव्यों के अनुवाद , ‘ मंगलकाव्य ‘ ( शाब्दिक अर्थों में शुभ यानी मांगलिक काव्य ,जो स्थानीय दे क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माणवी – देवताओं से संबंधित है ) , और भक्ति साहित्य जैसे – गौड़ीय वैष्णव आंदोलन के नेता श्री चैतन्य देव की जीवनियाँ आदि शामिल है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
दूसरी श्रेणी में नाथ साहित्य शामिल है जैसे , मैनामती ( गोपीचंद्र की माता ) – गोपीचंद्र के गीत , धर्म ठाकुर की पूजा से संबंधित कहानियाँ , परीकथाएँ , लोककथाएं और गाथागीत।
पहली श्रेणी के ग्रंथों की रचना पंद्रहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 18वीं शताब्दी के मध्य भाग के बीच की गई थी।
दूसरी श्रेणी की कृतियाँ मौखिक रूप से कही – सुनी जाती थी , इसलिए उनका काल – निर्णय सही – सही नहीं किया जा सकता है।
वे खासतौर पर पूर्वी बंगाल में लोकप्रिय थी , जहां ब्राह्मणों का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
पीर और मंदिर
पीर , फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है आध्यात्मिक मार्गदर्शक।
प्रारंभ में बाहर से आकर बंगाल में बसने वाले लोग यहां की अस्थिर परिस्थितियों में रहने के लिए कुछ व्यवस्था तथा आश्वासन चाहते थे।
यह सुख – सुविधाएँ तथा आश्वासन उन्हें समुदाय के नेताओं ने प्रदान की।
ये नेता शिक्षकों और निर्णायकों की भूमिकाएँ भी अदा करते थे।
कभी – कभी ऐसा समझा जाता था , कि इन नेताओं के पास अलौकिक शक्तियां हैं।
स्नेह और आदर्श के कारण लोग इन्हें पीर कहा करते थे। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
इस पीर श्रेणी में संत या सूफी और अन्य धार्मिक महानुभव , साहसी उपनिवेशी , देवत्व प्राप्त सैनिक एवं योद्धा , हिंदू एवं बौद्ध देवी – देवता और यहां तक कि जीवात्माएँ भी शामिल थे।
पीरों की पूजा पद्धतियां बहुत ही लोकप्रिय हो गई और उनकी मजारे बंगाल में सर्वत्र पाई जाती हैं।
बंगाल में पंद्रहवीं शताब्दी के बाद वाले वर्षों में मंदिर बनाने का दौर जोरों पर रहा , जो उन्नीसवीं शताब्दी में आकर समाप्त हो गया।
बंगाल में साधारण ईंटों और मिट्टी – गारे से अनेक मंदिर ‘ निम्न ‘ सामाजिक समूह जैसे कालू ( तेली ) , कंसारी ( घंटा धातु के कारीगर ) आदि के समर्थन से बने थे। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
जब स्थानीय देवी – देवता ,जो पहले गाँवों के छान – छप्पर वाली झोपड़ियों में पूजे जाते थे , को ब्राह्मणों द्वारा मान्यता प्रदान कर दी गई तो उनकी प्रतिमाएं मंदिरों में स्थापित की जाने लगी।
इन मंदिरों की शक्ल या आकृति बंगाल की छप्परदार झोपड़ियों की तरह ‘ दोचाला ‘ ( दो छतों वाली ) या ‘ चोचला ‘ ( चार छतों वाली ) होती थी।
इसके कारण मंदिरों की स्थापत्य कला में विशिष्ट बंगाली शैली का प्रार्दुभाव हुआ।
अपेक्षाकृत अधिक जटिल चोचला यानी चार छतों वाली , ढांचे में चार त्रिकोणीय छतें चार दीवारों पर रखी जाती थी , जो ऊपर तिर्यक रेखा या एक बिंदु तक जाती थी। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
मंदिर आमतौर पर एक वर्गाकार चबूतरे पर बनाए जाते थे।
उनके भीतरी भाग में कोई सजावट नहीं होती थी , लेकिन अनेक मंदिरों की बाहरी दीवारें चित्रकारियों , सजावटी टाइलों अथवा मिट्टी की पत्तियों से सजी होती थी।
कुछ मंदिरों में विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में विष्णुपुर के मंदिरों में ऐसी सजावटें अत्यंत उत्कृष्ट कोटि तक पहुंच चुकी थी। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
मछली , भोजन के रूप में
परंपरागत भोजन संबंधी आदतें , आमतौर पर स्थानीय रूप से उपलब्ध खाद्य पदार्थों पर निर्भर करती है।
बंगाल एक नदिया मैदान है जहां मछली और धान की उपज बहुतायत से होती है।
इन दोनों वस्तुओं को गरीब बंगालियों की भजन – सूचि में प्रमुख स्थान प्राप्त है।
मछली पकड़ना वहां का प्रमुख धंधा रहा है और बंगाली साहित्य में मछली का स्थान – स्थान पर उल्लेख मिलता है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
ब्राह्मणों को सामिष भोजन करने की अनुमति नहीं थी , लेकिन स्थानीय आहार में मछली की लोकप्रियता को देखते हुए ब्राह्मण धर्म के विशेषज्ञों ने बंगाली ब्राह्मणों के लिए इस निषेध में ढील दे दी।
बृहदधर्म पुराण , जो बंगाल में रचित तेरहवीं शताब्दी का संस्कृत ग्रंथ है , ने स्थानीय ब्राह्मणों को कुछ खास किस्मों की मछली खाने की अनुमति दे दी।
जीववाद – यह मानना कि पेड़ – पौधों , जड़ वस्तुओं और प्राकृतिक घटनाओं में भी जीव आत्मा है। क्षेत्रीय संस्कृतियों का निर्माण
MCQ
प्रश्न 1. महादेवपुरम का चेर राज्य प्रायद्वीप के दक्षिणी – पश्चिमी भाग में , जो आज के केरल राज्य का एक हिस्सा है , स्थापित किया गया था –
उत्तर- नौवीं शताब्दी में
प्रश्न 2. महादेवपुरम के चेर राज्य में कौन – सी भाषा बोली जाती थी ?
उत्तर- मलयालम भाषा
प्रश्न 3. महादेवपुरम के चेर शासको ने अपने अभिलेखों में प्रयोग किया –
उत्तर- मलयालम भाषा एवं लिपि का
प्रश्न 4. मलयालम भाषा की पहली साहित्यिक कृतियाँ, जो लगभग 12वीं शताब्दी की बताई जाती है , प्रत्यक्ष रूप से ऋणी है –
उत्तर- संस्कृत की
प्रश्न 5. 14वीं शताब्दी का एक ग्रंथ लीला तिकलम , जो व्याकरण तथा काव्यशास्त्र विषयक है किस शैली में लिखा गया था ?
उत्तर- मणिप्रवालम
प्रश्न 6. मणिप्रवालम का शाब्दिक अर्थ है –
उत्तर- हीरा और मूँगा
प्रश्न 7. मणिप्रवालम का शाब्दिक अर्थ है – हीरा और मूँगा , जो यहां दो भाषाओं साथ – साथ प्रयोग की ओर संकेत करता है –
उत्तर- संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषा के
प्रश्न 8. कुछ क्षेत्रों में क्षेत्रीय संस्कृतियाँ विकसित हुई थी –
उत्तर- क्षेत्रीय धार्मिक परंपराओं से
प्रश्न 9. किस राजा ने अपना राज्य पुरुषोत्तम जगन्नाथ को अर्पित कर दिया और स्वयं को जगन्नाथ का ‘ प्रतिनियुक्त ‘ घोषित किया ?
उत्तर- राजा अनंगभीम तृतीय
प्रश्न 10. जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है –
उत्तर- दुनिया का मालिक जो विष्णु का पर्यायवाची है
प्रश्न 11. उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश लोग उस क्षेत्र को जहाँ आज का अधिकाँश राजस्थान स्थित है , कहते थे –
उत्तर- राजपूताना
प्रश्न 12. ‘ कत्थक ‘ शब्द किस शब्द से निकला है ?
उत्तर- कथा
प्रश्न 13. कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरों में कथा यानी कहानी सुनने वालों की एक थी –
उत्तर- जाति
प्रश्न 14. लघुचित्र छोटे आकार के चित्र होते हैं , जिन्हें आमतौर पर चित्रित किया जाता है –
उत्तर- जल रंगों से कपड़े या कागज पर
प्रश्न 15. प्राचीनतम लघुचित्र चित्रित किए गए थे –
उत्तर- तालपत्रों अथवा लकड़ी के तख्तियों पर
प्रश्न 16. आधुनिक हिमाचल प्रदेश के इर्द – गिर्द हिमालय की तलहटी के इलाका में सत्रहवीं शताब्दी के बाद वाले वर्षों में लघुचित्रकला की एक सहसपूर्ण एवं भावप्रवण शैली का विकास हुआ , जिसे कहा जाता है –
उत्तर- ‘ बसोहली ‘ शैली
प्रश्न 17. आज बंगाली किस भाषा से निकली हुई भाषा मानी जाती है ?
उत्तर- संस्कृत
प्रश्न 18. पीर , फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है –
उत्तर- आध्यात्मिक मार्गदर्शक