आर्थिक तथा सामाजिक जीवन , शिक्षा और धार्मिक विश्वास
आर्थिक तथा सामाजिक जीवन , शिक्षा और धार्मिक विश्वास :- आर्थिक और सामाजिक जीवन एवं धार्मिक विश्वास के अध्ययन के लिए 800 ईस्वी से 1200 ईस्वी तक के पुरे काल को एक माना जा सकता है।
आर्थिक तथा सामाजिक जीवन और विचार एवं आस्था राजनितिक जीवन की तुलना में बहुत धीमी गति से बदलते है।
नवीं सदी से पूर्व प्रकट होने वाली बहुत सी विशेषताएँ इस काल में भी कायम रहीं। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
वाणिज्य – व्यापार
उत्तरी भारत में यह काल प्रायः निष्क्रियता और यहां तक कि पतन का काल माना जाता है।
भारत के विदेशी व्यापार पर रोमन साम्राज्य के पतन का प्रभाव उतना नहीं था जितना एक समय विश्वास किया जा रहा था।
दो शक्तिशाली साम्राज्य , बैजंतिया साम्राज्य जो कुस्तुनतुनिया पर आधारित था और दूसरा सासानी साम्राज्य जो ईरान पर आधारित था , का उदय रोमन साम्राज्य के पतन के कारण हुआ था। भारत के इन दोनों के साथ ही व्यापक व्यापारिक संबंध थे।
इस समय सबसे महत्वपूर्ण था – भारत के दक्षिणपूर्व एशिया जिसे स्वर्णभूमि या सोने की भूमि कहा जाता था और चीन के साथ बढ़ते हुए व्यापारिक संबंध। बंगाल , दक्षिण भारत , मालवा और गुजरात इसके प्रमुख लाभभोगी थे।
गुजरात के शहरों अनिहलवाड और चांपानेर का विकास इस समय की ही देन है।
इस काल के चिंतन में वाणिज्य – व्यापार के हास की झांकी मिलती है। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
इस काल में रचित कुछ धर्मशास्त्रों में भारत के बाहर यात्रा करने पर निषेध लगा दिया गया। यह भी माना जाता था कि खारे जलवाले समुद्र की यात्रा करने से व्यक्ति अशुद्ध हो जाता है।
समुद्री यात्रा पर लगा निषेध दक्षिण – पूर्व एशिया तथा चीन के साथ भारत की समुद्री व्यापार की अभिवृद्धि में बाधक नहीं हो सका।
छठी सदी से दक्षिण भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के बीच काफी जोर – शोर से व्यापार आरंभ हो गया था।
इस काल के साहित्य से पता चलता है कि उस क्षेत्र के देशों के संबंध में दक्षिण भारत के लोगों की जानकारी बढ़ती जा रही थी।
उस काल की कई रचनाओं में , जैसे हरिषेण की बृहत्कथा – कोश में उस क्षेत्र की भाषाओं , वेश-भूषा आदि की खास विशेषताओं का जिक्र मिलता है।
भारतीय व्यापारी श्रेणियां में संगठित थे। इनसे सबसे विख्यात मणिग्रामन और नानदेसी की श्रेणियां थी जो प्रारंभिक काल से ही सक्रिय थी। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
जावा में बोरोबुदूर का बौद्ध मंदिर और कंबोडिया में अंकोरवाट नामक ब्राह्माणीय मंदिर दोनों धर्म के प्रसार के प्रमाण थे।
कुछ प्रेक्षकों का विचार है कि दक्षिण – पूर्व एशियाई देशों की भौतिक प्रगति , सभ्यता के विकास और बड़े राज्यों के उदय का आधार वहां चावल की सिंचित खेती की भारतीय विधि का प्रचार था।
जावा , सुमात्रा आदि की यात्रा के लिए मुख्य बंदरगाह बंगाल का ताम्रलिप्ति बंदरगाह था। उस काल की अधिकांश कथाओं में व्यापारी लोग सुवर्णद्वीप ( आधुनिक इंडोनेशिया ) की यात्रा ताम्रलिप्ति से ही आरंभ करते बताए गए है।
जावा की चौदहवीं सदी के एक लेखक से मालूम होता है कि जम्बूद्वीप ( भारत ) , कर्नाटक ( दक्षिण भारत ) और गौड़ से लोग लगातार बड़ी संख्या में और बड़े-बड़े जहाज में चढ़कर जावा पहुंचते रहते थे। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
चीनी लोग भारी मात्रा में मसालों का उपयोग करते थे जिनका आयात वे दक्षिण – पूर्व एशिया और भारत से करते थे।
चीनी लोगों को सबसे उत्तम कोटि के हाथी के दांत अफ्रीका से मिलते थे और शीशे के बर्तन पश्चिम एशिया से।
भारत और दक्षिण – पूर्व एशिया चीन और पश्चिम एशिया तथा अफ्रीका के बीच होने व्यापार के लिए महत्वपूर्ण प्रांगणों का काम करते थे।
चीन के साथ होने वाला बहुत – सा व्यापार भारतीय जहाजों के जरिए होता था। मालाबार बंगाल और बर्मा की सागवान की लकड़ी इस देश में जहाज निर्माण की सबल परंपरा के लिए आधार का काम करती थी।
चीन में विदेश व्यापार के लिए मुख्य समुद्री बंदरगाह इन दिनों कैंटन था। इसी को अरब यात्रियों ने कानफू कहा है।
बौद्ध विद्वान भारत से चीन को समुद्री मार्ग से जाते थे। चीनी ऐतिहासिक विवरणकारों के अनुसार , दसवीं सदी के अंत में और 11वीं सदी के आरंभ में चीनी दरबार में भारतीय भिक्षुओं की संख्या इतिहास में सबसे अधिक थी।
जापान में कपास का प्रयोग आरंभ करने का श्रेय उन दो भारतीयों को दिया गया है जो ” काली धाराओं ” पर होकर उस देश में पहुंचते थे।
चीनी सम्राटों के दरबारों को कई दूतमंडल भेजकर भारतीय शासको ने खासतौर से बंगाल के पालों और सेन तथा दक्षिण भारत के पल्लवों और चोलो ने व्यापार को प्रोत्साहन देने का प्रयत्न किया।
चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने चीन के साथ होने वाले व्यापार में मलय और पड़ोसी देशों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेपों को समाप्त करने के लिए उन पर नौसैनिक आक्रमण किया।
चीन के साथ व्यापार बहुत लाभदायक था। यहां तक कि चीन की सरकार ने 13वीं सदी में चीन से सोने और चांदी के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का प्रयत्न किया।
चीनी जहाजों के विकास का एक महत्वपूर्ण कारण ‘ मेरिनर कम्पास ‘ ( नाविकों को दिशा का ज्ञान कराने वाले उपकरण ) का प्रयोग था। बाद में यह आविष्कार चीन से पश्चिमी देशों में पहुंचा। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
समाज
इस काल में भारत के समाज में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। इनमें से एक है उस वर्ग के लोगों की शक्ति की अभिवृद्धि जिन्हें समकालीन लेखकों ने सामंत , राणक राउत ( राजपूत ) आदि विभिन्न संज्ञाओं से अभिहित किया है।
उनके मूल काफी अलग-अलग थे। कुछ सरकारी ओहदेदार थे जिन्हें नगद भुगतान न करने के बदले अधिकाधिक परिमाण में राजस्वदायी गांव दे दिए जाते थे। कुछ पराजित राजा और उनके समर्थक थे , जो कुछ सीमित इलाकों के राजस्व का उपभोग करते थे।
एक तीसरी कोटी स्थानीय वंशानुगत सरदारों या सैनिक पुरुषार्थ करने वाले ऐसे लोगों की थी जिन्होंने अपने सशक्त समर्थकों की सहायता से छोटे-मोटे इलाकों में अपनी सत्ता कायम कर ली थी।
इनके अलावा जन-जातीयों या कुलों के नेताओं ने भी ऐसी हैसियत हासिल कर ली थी।
राजा द्वारा अपने अधिकारियों और समर्थकों को दिए गए राजस्व दान सिद्धांतत: अस्थाई थे जिन्हें राजा जब चाहे वापस ले सकता था।
उस समय की प्रचलित मान्यता के अनुसार पराजित शासक को भी उसकी भूमि से वंचित करना पाप था। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
वंशानुगत सरदार धीरे-धीरे सरकार के बहुत से कार्यों को अपने हाथों में समेटने लगे।
वे न केवल राजस्व निर्धारित और वसूल करते थे बल्कि अधिकाधिक प्रशासनिक अधिकार भी हथियाते जा रहे थे – जैसे अपने ही अधिकार से सजा देना और जुर्माना करना जोकि पहले राजा का विशेष अधिकार होता था।
उन्होंने राजा की अनुमति के बिना अपने समर्थकों को अपनी जागीर में से उपजागीर देने का अधिकार भी हस्तगत कर लिया।
फ्यूड समाज की सामान्य विशेषता यह है कि उसमें प्रभुत्व की स्थिति उन लोगों की होती है जो जमीन को जोतने – बोने के काम न करते हुए भी उसी से अपनी जीविका प्राप्त करते हैं।
भारत में ऐसे फ्यूडल समाज के विकास के दूरगामी प्रभाव हुए। इससे राजा की स्थिति कमजोर हुई।
छोटे राज्य व्यापार के रास्ते में रुकावट डालते थे और ऐसी अर्थव्यवस्था को प्रश्रय देते थे जिसमें गांव या गांवों के समूह बहुत हद तक आत्मनिर्भर होते थे। सरदारों के प्रभुत्व से ग्रामीण स्वशासन भी कमजोर पड़ा। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
लोगों की अवस्था
कपड़ा बनाने , सोने – चांदी का काम करने और धातुकर्म जैसी दस्तकारियों के स्तर में इस काल में कोई गिरावट नहीं आई। भारतीय कृषि भी फलती – फूलती रही।
इस काल की सभी साहित्यिक कृतियों से पता चलता है कि मंत्री , अधिकारी और सरदार बहुत शानोशौकत से रहते थे। वह राजा की नकल करते थे।
बड़े व्यापारी भी राजा के तौर – तरीकों की नकल करते थे और कभी-कभी उनका रहन – सहन शाही किस्म का होता था।
चालुक्य साम्राज्य की एक करोड़पति के बारे में मालूम होता है कि उसके घर पर झंकार करते घुंघरूओं से युक्त बड़े-बड़े ध्वज लहराते थे। और उसके पास बड़ी संख्या में हाथी – घोड़े थे।
गुजरात में मंत्री के पदों पर आसीन वस्तुपाल और तेजपाल अपने समय के सबसे अधिक समृद्ध व्यापारी माने जाते थे।
राजतरंगिणी ( कश्मीर में 12वीं सदी में लिखी गई ) के लेखक ने लिखा है कि दरबारी लोग तो भुना हुआ मांस खाते हैं और फूलों से सुगंधित ठंडी मदिरा का पान करते हैं किंतु सामान्य लोगों को भात और उत्पल शाक पर गुजारा करना पड़ता है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार किसानों से राजस्व के तौर पर उपज के छठे हिस्से की मांग की जाती थी लेकिन कुछ दानपत्रों से हमें इसके अतिरिक्त कई और शुल्कों की – जैसे चरागाह – कर , तालाब – कर आदि की भी जानकारी मिलती है।
मध्य भारत तथा उड़ीसा जैसे कुछ क्षेत्रों में कुछ गांवों का दान कारीगरों , चरवाहों और किसानों के साथ-साथ किया गया। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
जाति प्रथा
इस काल से बहुत पहले स्थापित जाति प्रथा समाज का आधार थी।
इस काल के स्मृतिकारों ने ब्राह्मणों की विशेष स्थिति का प्रबल अनुमोदन किया है और शूद्रों की सामाजिक तथा धार्मिक निर्योग्यताओं पर जोर देने में वे अपने पूर्ववर्ती स्मृतिकारों को भी पीछे छोड़ गए हैं।
पराशर नामक एक स्मृतिकार के अनुसार शूद्र का भोजन ग्रहण करने , उसके साथ रहने , उसके साथ एक आसन पर बैठने और उससे शिक्षा ग्रहण करने से श्रेष्ठ – से – श्रेष्ठ व्यक्ति भी पतित हो जाता है।
इस काल में निम्न जातियों की निर्योग्यता की वृद्धि हुई। अंतर्जातीय विवाह को हेय दृष्टि से देखा जाता था।
इस काल के स्मृतिकारों ने दस्तकारी – कारीगरी को हीन धंधे माना है। इस प्रकार ज्यादातर कारीगर – मजदूर और भील जैसी जनजातियों को अस्पृश्यों का दर्जा दे दिया गया। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
राजपूतों का उदय
इस काल में हमारा सामना राजपूत नामक एक नई जाति से होता है।
राजपूतों के उदय के संबंध में विद्वानों के बीच काफी विवाद है।
अनेक राजपूत कुल अपने मूल को महाभारत में उल्लेखित सूर्यवंशी और चंद्रवंशी क्षत्रियों से जोड़ते हैं।
कुछ अन्य कुल दावा करते हैं कि उनका उद्धव मुनि वशिष्ठ द्वारा माउंटआबू पर प्रज्वलित यज्ञाग्नि से हुआ।
यज्ञाग्निवाली परंपरा की स्थिति ऐसी ही है जबकि इसमें से उद्भूत होने का दावा अनेक राजपूत कुल प्रतिहार , परमार , चौहान और सोलंकी करते हैं। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
मालूम होता है कि कालांतर में विभिन्न जातियों के सभी शासक घरानों को राजपुत्र या राजपूत कहा जाने लगा एवं उन्हें क्षत्रियों का दर्जा दे दिया गया।
जातियों की व्यवस्था उतनी कठोर नहीं थी जितनी की कभी-कभी मानी जाती है। व्यक्ति और समूह वर्ण – सोपान में ऊपर उठ सकते हैं और नीचे भी गिर सकते हैं।
कायस्थ जाति जिसका उल्लेख इस काल में विशेष रूप से होने लगता है। मालूम होता है कि ब्राह्मणों और शूद्रों सहित विभिन्न जातियों के जो लोग राजकीय स्थापनाओं में कार्यरत थे उन्हें मुल्यतः कायस्थ कहा जाता था। कालांतर से वे एक अलग जाति के रूप में सामने आए।
इस काल में हिंदू धर्म का विस्तार तेजी से हो रहा था। हिंदू धर्म ने न केवल बड़ी संख्या में बौद्धों और जैनों का अपने अंदर समाहार कर लिया था बल्कि बहुत – सी विदेशी जनजातियों और विदेशियों को भी हिंदू बना लिया। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
स्त्रियों की अवस्था
पहले की ही तरह इस काल में भी स्त्रियों को सामान्यत: मानसिक दृष्टि से हीन माना जाता था।
मत्स्य पुराण पति को गलती करने वाली पत्नी को कोडे या खपच्ची से पीटने का ( लेकिन सिर और वक्ष पर नहीं ) अधिकार देता है।
स्त्रियों के लिए वेद पढ़ना इस काल में भी वर्जित रहा। इसके अलावा लड़कियों के विवाह की उम्र कम कर दी गई , जिससे उनके लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने का रास्ता बंद हो गया।
कुछ स्थितियों में पुनर्विवाह की अनुमति थी – जैसे पति पत्नी को छोड़कर चला जाए और उसका कोई पता ना मिले , या उसकी मृत्यु हो जाए, अथवा वह गृहत्यागी हो जाए , या नपुंसक हो अथवा जाति बहिष्कार कर दिया गया हो। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
यदि पति दोषी पत्नी का भी परित्याग करता था तो उसे उसको निर्वाह खर्च देना पड़ता था।
परिवार की संपत्ति की रक्षा के लिए स्त्रियों को अपने पुरुष संबंधियों की संपत्ति पर उत्तराधिकार दिया गया। यदि किसी स्त्री का पति पुत्र – विहीन मर जाता था तो कुछ मर्यादाओं के साथ उस स्त्री को पति की पूरी जायदाद का उत्तराधिकार प्राप्त होता था।
विधवा की संपत्ति का उत्तराधिकारी उसकी पुत्री को भी प्राप्त था।
अरबी लेखक सुलेमान के अनुसार राजाओं की पत्नियां कभी-कभी अपने पतियों की चिताओं पर जल मरती थी लेकिन ऐसा करना या ना करना उनकी इच्छा पर निर्भर था। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
जीवन पद्धति
इस काल में पुरुषों और स्त्रियों की पोशाक में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ। धोती पुरुषों का और साड़ी स्त्रियों का सामान्यत: अधोवस्त्र बनी रही।
मूर्तियों से मालूम होता है कि उत्तर भारत में उच्च वर्ग के लोग लंबा कोट पायजामा और जूते भी पहनते थे।
राजतरंगिणी के अनुसार हर्ष ने कश्मीर में राजा के योग्य परिधान का आरंभ किया। इसमें लंबा कोट भी शामिल था।
सामान्यत: कपड़ा बनाने के लिए कपास का ही प्रयोग किया जाता था , लेकिन उच्च वर्गों के लोग रेशमी वस्त्र और मलमल का भी इस्तेमाल करते थे।
अरब यात्रियों से मालूम होता है कि स्त्री – पुरुष दोनों आभूषणो के प्रेमी थे। स्त्री – पुरुष दोनों कड़े और कुंडल – बालियाँ पहनते थे। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
चाऊजू कुआ नामक एक चीनी यात्री कहता है कि गुजरात के स्त्री – पुरुष दोनों दोहरे कुंडल – बालियाँ पहनते थे और उनके कपड़े तंग होते थे तथा उनका एक सिरा उनके माथे को ढक लेता था। वे लाल रंग के जूते भी पहनते थे।
प्रसिद्ध यात्री मार्को पोलो बताता है कि मालाबार में स्त्री – पुरुष केवल कटिवस्त्र ही पहनते थे और राजा भी इसका अपवाद नहीं था। उसके अनुसार , यहां दर्जी के काम से लोग अनभिज्ञ थे।
मालाबार का राजा सूती कटि-वस्त्र पहनता था और अपनी प्रजा की तरह नंगे पांव रहता था।
अरब लेखकों ने इस बात के लिए भारतीयों की प्रशंसा की है कि उनके बीच मादक पदार्थों के सेवन का चलन नहीं था। लेकिन मालूम होता है कि यह वस्तुस्थिति की सही तस्वीर नहीं है। उस काल की साहित्यिक रचनाओं में मद्यपान के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
उस काल के साहित्य से पता चलता है कि शहरों के लोग आमोद – प्रमोद के प्रेमी थे। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
शिक्षा तथा ज्ञान विज्ञान
पूर्ववर्ती काल में क्रमशः विकसित शिक्षा – प्रणाली इस काल में भी बिना किसी खास परिवर्तन के जारी रही।
पढ़ना – लिखना कुछ थोड़े से लोग ही जानते थे। इनमें ज्यादातर ब्राह्मण होते थे और कुछ दूसरे उच्च वर्गीय लोग भी शिक्षा प्राप्त करते थे।
कभी-कभी मंदिर उच्च स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करते थे।
अध्ययन के मुख्य विषय वेद और व्याकरण, तर्क – शास्त्र और दर्शन जिसमें विज्ञान भी सम्मिलित था, थे।
शिल्प या किसी और पेशे की शिक्षा देने का दायित्व आमतौर पर श्रेणियों या अलग – अलग परिवारों पर छोड़ दिया जाता था।
धर्मेतर विषयों को प्रधानता देते हुए अधिक औपचारिक ढंग की शिक्षा देने का काम बहुत कुछ बौद्ध – विहार करते रहे। इनमें से बिहार का नालंदा सबसे प्रसिद्ध था।
इस तरह के दूसरे केंद्र विक्रमशिला और उदुदंदपुर थे। ये दोनों भी बिहार में ही थे। नालंदा को 200 गांवों का दान प्राप्त था। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
कश्मीर शिक्षा का दूसरा बड़ा केंद्र था। इस काल में कश्मीर में अनेक शैवपंथ और शिक्षाकेंद्र परवान चढ़े।
दक्षिण भारत में कई महत्वपूर्ण मठों की स्थापना की गई – जैसे मदुरै और श्रंगेरी के मठ। ये सब विद्या के केंद्रों का काम करते थे।
इन विद्या केंद्रों में वाद – विवादों और शास्त्रार्थों को , जो खास तौर से धर्म और दर्शन से संबंधित होते थे , बहुत प्रोत्साहन मिलता।
इस काल में देश में विज्ञान के विकास की गति धीमी हो गई। शल्य चिकित्सा में इसलिए गिरावट आई कि शव को चीर – फाड़ को निम्न जातियों के लोगों का काम माना जाने लगा था।
इस काल में द्वितीय भास्कर की रचना लीलावती दीर्घकाल तक मानक ग्रंथ बनी रही। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
इस काल में भारतीय विज्ञान की गतिशून्य हो जाने के कई कारण थे। पहला था – बढ़ती हुई धार्मिक रूढ़िवादिता।
इसका दूसरा कारण बाहर के विज्ञान की मुख्य धारा से अपने को काट लेने की भारतियों की प्रवृत्ति थी। इसका पता अलबरूनी के लेखन से पता चलता है।
अलबरूनी मध्य एशिया के वैज्ञानिक और विद्वान ने 11वीं सदी के आरंभिक चरण में भारत में प्रवास किया था।
अलबरूनी कहता है ” ये लोग दंभी , मूढ़ , अहंकारी , पाखंडी और भावशून्य है। वे अपने ज्ञान का लाभ दूसरों को देने में स्वभाव से ही कंजूस है और वे दूसरी जातियों से उस ज्ञान को छिपा रखने की हर संभव कोशिश करते हैं। उनके विश्वास के मुताबिक , खुदा के खलक में उनके अलावा और किसी को विज्ञान का इल्म नहीं है “। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
धार्मिक आंदोलन और विश्वास
इस काल में हिंदू धर्म का पुनरुत्थान और विस्तार हुआ और बौद्ध तथा जैन धर्मों का हास जारी रहा।
बौद्ध और जैन भिक्षुओं को उत्पीड़ित किया गया और उनके मंदिरों पर कब्जा कर लिया गया।
पुरी का मंदिर कभी एक बौद्ध मंदिर था। क़ुतुब परिसर में स्थित मंदिर कभी एक जैन मंदिर था जिसे विष्णु मंदिर में रूपांतरित कर दिया गया।
इस काल में बौद्ध धर्म धीरे – धीरे सिर्फ पूर्वी भारत तक सिमट कर रह गया। पाल शासक बौद्ध धर्म के संरक्षक थे।
ईस्वी सन की आरंभिक सदियों में महायान पंथ के उदय के साथ बुद्ध की पूजा एक देवता के रूप में की जाने लगी थी।
गोरखनाथ के अनुयायी नाथपंथी कहलाए। उन्होंने जिस पंथ का प्रचार किया वह तंत्र कहलाता था। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
तंत्र संप्रदाय के द्वारा सभी जातियों के लोगों के लिए खुले हुए थे।
गुजरात के चालुक्य शासकों ने जैन धर्म को संरक्षण दिया। इसी काल में माउंटआबू के दिलवाड़ा मंदिर जैसे कुछ भव्य जैन मंदिरों का निर्माण हुआ।
मालवा के परमार शासको ने भी जैन तीर्थंकरों और महावीर की विशालकाय मूर्तियां बनवाई। महावीर को अब ईश्वर के रूप में पूजा जाने लगा था।
नवी और दसवीं सदियों में दक्षिण भारत में जैन धर्म अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया।
कर्नाटक के गंग शासक जैन धर्म के प्रबल संरक्षक थे। इस काल में कई स्थानों पर जैन बसाडी ( मंदिर ) और महास्तंभ स्थापित किए गए।
श्रवणबेलगोला की विशालकाय मूर्ति इसी काल में स्थापित की गई। यह मूर्ति लगभग 18 मीटर ऊंची है और इसे कृष्णारम ( ग्रेनाइट ) की चट्टानों को तराश कर बनाया गया है। इसमें तीर्थंकर को कठोर तपस्या में रत खड़ा दर्शाया गया है। उसके पैरों में सांप लिपटे हुए हैं। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
चतुर्दान ( विद्या , आहार , औषधि और आश्रम के दान ) का जैन सिद्धांत जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने में सहायक सिद्ध हुआ।
हिंदुत्व के पुनरुत्थान और प्रसार की प्रक्रिया में बहुत – से स्थानीय देवी – देवताओं का समावेश हिंदू देव – समूह में हो गया। इनमें हिंदू – धर्म में शामिल की गई जनजातियों के देवी – देवता भी थे।
शिव और विष्णु की उपासना का उदय सांस्कृतिक सम्मिश्रण की प्रक्रिया द्योतक था। इस प्रकार समाज के बिखराव के काल में धर्म में एक सकारात्मक भूमिका निभाई।
दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन का उदय नयनार और आलवार कहे जाने वाले लोकप्रिय संतों की एक संपूर्ण श्रृंखला के नेतृत्व में हुआ।
इस संतों की दृष्टि में ईश्वर और उसके भक्त के बीच के प्रेम के सजीव बंधन का नाम धर्म था। उनके मुख्य उपास्य शिव और विष्णु थे।
इन संतों के बोलने और लिखने की भाषाएं तमिल और तेलुगु थी। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
इन संतों में से लगभग सबने जाति प्रथा – जनित असमानताओं की उपेक्षा की , यद्यपि किसी ने स्वयं इस प्रथा का स्पष्ट विरोध नहीं किया।
निम्न जातियों के लिए वैदिक विद्या और वैदिक पूजा – पाठ को वर्जित रखा गया था। परंतु इन संतों ने जिस भक्ति मार्ग की हिमायत की उस पर चलने की आजादी सभी जातियों के लोगों को थी।
12वीं सदी में एक और भी अधिक लोकप्रिय धार्मिक आंदोलन का जन्म हुआ। यह था लिंगायत या वीरशैव आंदोलन। इसके संस्थापक बासव और उसका भतीजा चन्नबासव थे।
ये कर्नाटक के कलचूरी राजा के दरबार से संबंधित थे। उन्होंने जैनों के साथ तीव्र विवाद के उपरांत अपने संप्रदाय की स्थापना की।
लिंगायत शिव के उपासक हैं उन्होंने जाति प्रथा का प्रबल विरोध किया और उपवास , भोज , तीर्थयात्रा तथा यज्ञ को नकार दिया। सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने बाल – विवाह का विरोध किया और विधवाओं के विवाह का समर्थन किया। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
बौद्धिक स्तर पर बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म को सबसे जबरदस्त चुनौती शंकर ने दी।
शंकर का जन्म केरल में शायद नवीं सदी में हुआ था। कहते हैं जैनों द्वारा सताए जाने के बाद उसने उत्तर भारत की विजय यात्रा की और वहां अनेक अद्भुत विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया।
शंकर के मुदरै लौटने पर राजा ने उनका भरपूर सम्मान किया और जैनों को दरबार से निकल बाहर किया।
शंकर के दर्शन को अद्वैत कहा जाता है। शंकर के अनुसार ईश्वर और उसकी सृष्टि एक ही है। जो भेद दिखाई देता है , वह वास्तविक नहीं , बल्कि अज्ञानजनित माया है। मोक्ष का मार्ग ईश्वर की भक्ति है जिसका आधार यह ज्ञान है कि ईश्वर और उसकी सृष्टि एक ही है। इस दर्शन को वेदांत कहते हैं।
शंकर के ज्ञानमार्ग को बहुत कम लोग समझ सकते थे और ‘ उनमे कम से कम एक ब्राह्मण था। ‘ एक अंदल नाम की साध्वी भी थी। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
11वीं सदी में रामानुज नामक एक अन्य प्रसिद्ध विद्वान ने वेदों के साथ भक्ति परंपरा का सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया।
रामानुज का कहना था कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए ईश्वर की ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण भगवत्कृपा है।
रामानुज ने यह भी कहा कि भक्ति का मार्ग सभी जातियों के लोगों के लिए खुला है। उसने भक्ति पर आधारित जनप्रिय आंदोलन और वेदों पर आधारित ऊँची जातियों के आंदोलन के बीच एक सेतु के निर्माण करने का प्रयत्न किया।
रामानुज द्वारा प्रवर्तित परंपरा का अनुसरण दक्षिण भारत में मध्वाचार्य और उत्तर भारत में रामानंद वल्लभाचार्य आदि कई विद्वान चिंतकों ने किया।
सोलहवां सदी का प्रारंभ होते-होते भक्ति हिंदू समाज के सभी हिस्सों को स्वीकार्य हो चली। आर्थिक तथा सामाजिक जीवन शिक्षा और धार्मिक विश्वास
MCQ
प्रश्न 1 – किस साहित्य से दक्षिण क्षेत्र की भाषाओं , वेश-भूषा आदि की खास विशेषताओं का जिक्र मिलता है ?
उत्तर – हरिषेण की बृहत्कथा
प्रश्न 2 – जावा , सुमात्रा आदि की यात्रा के लिए मुख्य बंदरगाह था ?
उत्तर – बंगाल का ताम्रलिप्ति
प्रश्न 3 – चीन में विदेश व्यापार के लिए मुख्य समुद्री बंदरगाह इन दिनों कैंटन था। इसी को अरब यात्रियों ने कहा है –
उत्तर – कानफू
प्रश्न 4 – जापान में कपास का प्रयोग आरंभ करने का श्रेय किसे दिया गया है ?
उत्तर – दो भारतीयों को
प्रश्न 5 – चीनी जहाजों के विकास का महत्वपूर्ण कारण था –
उत्तर – मेरिनर कम्पास का प्रयोग
प्रश्न 6 – किस समाज की सामान्य विशेषता यह है कि उसमें प्रभुत्व की स्थिति उन लोगों की होती है जो जमीन को जोतने – बोने के काम न करते हुए भी उसी से अपनी जीविका प्राप्त करते हैं ?
उत्तर – फ्यूड समाज
प्रश्न 7 – गुजरात में मंत्री के पदों पर आसीन कौन – से व्यक्ति अपने समय के सबसे अधिक समृद्ध व्यापारी माने जाते थे ?
उत्तर – वस्तुपाल और तेजपाल
प्रश्न 8 – ब्राह्मणों और शूद्रों सहित विभिन्न जातियों के जो लोग राजकीय स्थापनाओं में कार्यरत थे उन्हें मुल्यतः कहा जाता था –
उत्तर – कायस्थ
प्रश्न 9 – कौन – सा पुराण में पति को गलती करने वाली पत्नी को कोडे या खपच्ची से पीटने का ( लेकिन सिर और वक्ष पर नहीं ) अधिकार देता है ?
उत्तर – मत्स्य
प्रश्न 10 – किस लेखक के अनुसार राजाओं की पत्नियां कभी-कभी अपने पतियों की चिताओं पर जल मरती थी लेकिन ऐसा करना या ना करना उनकी इच्छा पर निर्भर था ?
उत्तर – अरबी लेखक सुलेमान
प्रश्न 11 – लीलावती नामक ग्रंथ की रचना किसने की थी ?
उत्तर – द्वितीय भास्कर
प्रश्न 12 – कौन – सा विदेशी विद्वान भारतीय ज्ञान – विज्ञान का बहुत प्रशंसक था लेकिन उसने यहां के ज्ञानी लोगों अर्थात ब्राह्मणों की वर्जनशील वृत्ति की शिकायत की है ?
उत्तर – अलबरूनी
प्रश्न 13 – किसी हिंदू योगी के अनुयायी नाथपंथी कहलाए ?
उत्तर – गोरखनाथ
प्रश्न 14 – जैन बसाडी से तात्पर्य है –
उत्तर – जैन मंदिर
प्रश्न 15 – लिंगायत या वीरशैव आंदोलन के संस्थापक थे –
उत्तर – बासव और उसका भतीजा चन्नबासव
प्रश्न 16 – बौद्धिक स्तर पर बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म को सबसे जबरदस्त चुनौती किसने दी ?
उत्तर – शंकराचार्य
प्रश्न 17 – शंकराचार्य का जन्म किस राज्य में हुआ था ?
उत्तर – केरल
प्रश्न 18 – शंकराचार्य के दर्शन को क्या कहा जाता है ?
उत्तर – अद्वैत