गुरु नानक देव जी
तलवंडी ( पाकिस्तान में ननकाना साहब ) में जन्म लेने वाले बाबा गुरु नानक ने करतारपुर ( रावी नदी के तट पर डेरा बाबा नमक ) में एक केंद्र स्थापित किया।
उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए करतारपुर में एक नियमित उपासना पद्धति अपनाई , जिसके अंतर्गत उन्हीं के शब्दों ( भजनों ) को गया जाता था।
उनके अनुयाई अपने – अपने धर्म या जाति अथवा लिंग – भेद को नजर अंदाज करके एक सांझी रसोई में इकट्ठे खाते – पीते थे। इसे ‘ लंगर ‘ कहा जाता था।
बाबा गुरु नानक ने उपासना और धार्मिक कार्यों के लिए जो जगह नियुक्त की थी , उसे ‘ धर्मसाल ‘ कहा गया। आज इसे गुरुद्वारा कहते हैं।
1539 में अपनी मृत्यु के पूर्व बाबा गुरु नानक ने एक अनुयायी को अपना उत्तराधिकारी चुना। इसका नाम लहणा था, लेकिन ये गुरु अंगद के नाम से जाने गए।
‘ गुरु अंगद ‘ नाम का महत्व यह था कि गुरु अंगद , बाबा गुरु नानक के ही अंग माने गए।
गुरु अंगद ने बाबा गुरु नानक की रचनाओं का संग्रह किया और उस संग्रह में अपनी कृतियाँ भी जोड़ दी। संग्रह एक नई लिपि गुरमुखी में लिखा गया था। गुरु अंगद के तीन उत्तराधिकारी ने भी अपनी रचनाएं ‘ नानक ‘ के नाम से लिखी।
इन सभी का संग्रह गुरु अर्जन ने 1604 में किया। इस संग्रह में शेख फरीद, संत कबीर, भगत नामदेव और गुरु तेगबहादुर जैसे सूफियों संतों और गुरुओं कि वाणी जोड़ी गई।
1706 में इस वृहत संग्रह को गुरु तेगबहादुर के पुत्र व उत्तराधिकारी गुरु गोविंद सिंह ने प्रमाणित किया। आज इस संग्रह को सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में जाना जाता है।
बाबा गुरु नानक इस बात पर बल दिया करते थे कि उनके अनुयाई गृहस्थ हो और उपयोगी वह उत्पादक पेशों से जुड़े हो। अनुयायियों से यह आशा भी की जाती थी कि वे नए समुदाय के सामान्य कोष में योगदान देंगे।
बाबा गुरु नानक ने एक ईश्वर की उपासना के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने आग्रह किया कि जाति, धर्म अथवा लिंग – भेद , मुक्ति प्राप्ति के लिए कोई मायने नहीं रखते हैं।
उनके लिए मुक्ति किसी निष्क्रिय आनंद की स्थिति नहीं थी , बल्कि सक्रिय जीवन व्यतीत करने के साथ – साथ सामाजिक प्रतिबद्धता की निरंतर कोशिशें में ही निहित थी।
नानक जी ने उपदेश के सार को व्यक्त करने के लिए उन्होंने तीन शब्दों का प्रयोग किया : नाम , दान और इस्नान (स्नान )। नाम से उनका तात्पर्य , सही उपासना से था।
दान का तात्पर्य था , दूसरों का भला करना और इस्नान का तात्पर्य आचार – विचार की पवित्रता। आज उनके उपदेशों को नाम – जपना , किर्त – करना और वंड – छकना के रूप में याद किया जाता है।