उत्तर वैदिक अवस्था : राज्य और वर्ण - व्यवस्था की ओर
उत्तर वैदिक अवस्था :- उत्तर वैदिक काल का इतिहास मुख्यतः उन वैदिक ग्रंथों पर आधारित है जिनकी रचना ऋग्वैदिक काल के बाद हुई।
वैदिक सूक्तों या मंत्रों के संग्रह को ‘ संहिता ‘ कहते हैं। ‘ ऋग्वेद संहिता ‘ सबसे पुराना वैदिक ग्रंथ है।
ऋग्वैदिक सूक्तों को गाने के लिए धुन में पिरोया गया और इस पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम ‘ सामवेद संहिता ‘ पड़ा।
ऋग्वेदोत्तर काल में सामवेद के अतिरिक्त ‘ यजुर्वेद ‘ और ‘ अथर्ववेद ‘ भी तैयार किए गए।
यजुर्वेद में केवल रचनाएं ही नहीं उन्हें गाते समय किए जाने वाले अनुष्ठान भी दिए गए हैं।
अथर्ववेद में विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए मंत्र – तंत्र संग्रहित है। इसमें आए तथ्य आर्योंत्तर लोगों के विश्वासों और प्रचलित रीतियों पर प्रकाश डालते हैं।
वैदिक संहिताओं के बाद ‘ ब्राह्मण – ग्रंथ ‘ की रचना हुई। इनमे वैदिक अनुष्ठानों की विधियां संग्रहीत हैं और इन अनुष्ठानों की सामाजिक एवं धार्मिक व्याख्या भी की गई है। उत्तर वैदिक अवस्था
उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000 – 500 ईसा पूर्व में उत्तरी गंगा के मैदान में रचे गए। उत्खनन और अनुसंधान के फलस्वरुप , इसी कल और इसी क्षेत्र के लगभग 700 स्थल प्रकाश में आए हैं , जहां सबसे पहले बस्तियां कायम हुई। इन्हें ‘ चित्रित धूसर मृदभांड ‘ ( पी. जी. डब्ल्यू अर्थात पेन्टेड ग्रे वेअर ) स्थल कहते हैं।
चित्रित धूसर मृदभांड स्थल के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों और थालियों तथा लोहे के हथियारों का प्रयोग करते थे।
उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ और चित्रित धूसर मृदाभांड लौह अवस्था में पुरातत्व , ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दी के पूर्वार्द्ध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश , पंजाब , हरियाणा तथा राजस्थान के संलग्न क्षेत्रों में बसने वाले लोगों के जीवन के बारे में प्रकाश डालते हैं।
‘ भरत ‘ और ‘ पुरु ‘ कबीला मिलकर ‘ कुरु ‘ हो गए। आरंभ में वे दोआब के किनारे ‘ सरस्वती ‘ और ‘ दृषद्वति ‘ नदियों के प्रदेश में बसे। शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली क्षेत्र और दोआब के ऊपरी भाग पर अधिकार कर लिया , जो कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
धीरे-धीरे ‘ कुरु ‘ पंचालों से भी मिल गए जिनका दोआब के मध्य भाग पर कबजा था। इन्होंने हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाई जो मेरठ जिले में पड़ता है। उत्तर वैदिक अवस्था
‘ कुरु ‘ कुल का इतिहास भारत – युद्ध को लेकर मशहूर है जिस पर ‘ महाभारत ‘ नाम का विख्यात महाकाव्य है। यह युद्ध संभवत: 950 ईसा पूर्व के आस-पास कौरवों और पांडवों के बीच हुआ था , हालांकि ये दोनों ‘ कुरु ‘ कुल के ही थे।
हस्तिनापुर में मिली सामग्रियों का काल 900 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व के बीच आँका गया है। किंतु, ‘ महाभारत ‘ में हस्तिनापुर का जो वर्णन है उससे इसका कोई मेल नहीं है।
महाभारत की रचना बहुत बाद में ईसा की चौथी सदी के आसपास हुई।
उत्तर वैदिक काल में लोग पकाई हुई ईंटों का प्रयोग शायद ही जानते थे।
प्राचीन कथाओं के अनुसार हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरुवंश में जो जीवित रहे वे इलाहाबाद के पास कौशांबी में जाकर बस गए।
आज के बरेली , बदायूं और फर्रुखाबाद जिलों में फैला पंचाल राज्य उत्तर वैदिक साहित्य में वर्णित अपने दार्शनिक राजाओं और तत्वज्ञानी ब्राह्मणों को लेकर विख्यात था।
उत्तर वैदिक काल का अंत होते-होते 600 ईसा पूर्व के आसपास वैदिक लोग दोआब से पूर्व की ओर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कोसल और उत्तरी बिहार के विदेह में फैले।
‘ कोसल ‘ राम की कथा से जुड़ा है , फिर भी वैदिक साहित्य में रामकथा का कोई उल्लेख नहीं है। उत्तर वैदिक अवस्था
वैदिक लोगों का पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में ऐसे लोगों से संपर्क हुआ जो तांबे के औजारों और काले – व – लाल मृदभांडों का प्रयोग करते थे।
पश्चिम उत्तर प्रदेश में वैदिक लोगों का सामना संभवत: उन लोगों से हुआ जो तांबे के औजारों और गेरुवे या लाल रंग के मृदभांडों का प्रयोग करते थे। उन्हें संभवत: ऐसे लोगों की भी कुछ बस्तियां मिली जो ‘ काले व लाल मृदाभांडों ‘ का प्रयोग करते थे।
विस्तार के दूसरे दौर में वैदिक लोग इसलिए सफल हुए कि उनके पास लोहे के हथियार और अश्वचालित रथ थे। उत्तर वैदिक अवस्था
चित्रित धूसर मृदभांड – लौहावस्था संस्कृति और उत्तर वैदिक अर्थव्यवस्था
लगभग 1000 ईसा पूर्व में लोहा कर्नाटक के धरवाड़ जिले में मिलता है। इसी समय से पाकिस्तान के गंधार क्षेत्र में भी लोहे का प्रयोग होने लगा।
मृतकों के साथ कब्रों में गाड़े गए लोहे के औजार भारी मात्रा में खुदाई से प्राप्त हुए हैं। ऐसे औजार बलूचिस्तान से भी मिले हैं।
लगभग 1000 ईसा पूर्व में ही पूर्वी पंजाब , पश्चिमी उत्तर प्रदेश , राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी लोहे का प्रयोग पाया गया है।
खुदाई से ज्ञात होता है कि तीर के नोक , बरछे के फाल आदि लौहास्त्रों का प्रयोग लगभग 800 ईसा पूर्व से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आमतौर से होने लगा था।
ऊपरी गंगा के मैदाने के जंगलों को साफ करने में लोहे की कुल्हाड़ी का प्रयोग किया गया होगा , हालांकि वर्षा केवल 35 सेंटीमीटर से 65 सेंटीमीटर तक होने के कारण ये जंगल ज्यादा घने नहीं रहे होंगे। उत्तर वैदिक अवस्था
वैदिक काल के अंतिम दौर में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैल गया था। इन क्षेत्रों से जो सबसे पुराने लौहास्त्र पाए गए हैं वह ईसा पूर्व सातवीं सदी के हैं।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे को ‘ श्याम या कृष्णा अयस ‘ कहा गया है।
उत्तर वैदिक काल के लोगों की मुख्य जीविका खेती हो चली थी।
वैदिक ग्रंथों में 6 , 8 , 12 और 24 तक बैल के हाल में जोते जाने की चर्चा है।
जुताई लकड़ी के फाल वाले हल से होती थी। ऊपरी गंगा के मैदानों की हल्की मिट्टी में संभवत: इसका प्रयोग होता था।
‘ शतपथ ब्राह्मण ‘ में हल संबंधी अनुष्ठान का लंबा वर्णन आया है।
उत्तर वैदिक काल में हल चलाना उच्च वर्णों के लिए वर्जित हो गया। उत्तर वैदिक अवस्था
वैदिक काल के लोग जौ उपजाते रहे पर इस काल में चावल और गेहूं उनकी मुख्य फासले हो गई।
वैदिक लोगों का चावल से परिचय सबसे पहले दोआब में हुआ। वैदिक ग्रंथों में चावल का नाम ‘ व्रीहि ‘ है।
चावल का अवशेष जो हस्तिनापुर में मिला है वह ईसा पूर्व आठवीं सदी का है। इसी समय के आसपास एटा जिले में स्थित अंतरजीखेड़ा में चावल मिला है।
वैदिक अनुष्ठानों में चावल के प्रयोग का विधान है , पर गेहूं का प्रयोग कदाचित ही होता था।
उत्तर वैदिक काल के लोग कई प्रकार के तिलहन भी पैदा करते थे।
1000 ईसा पूर्व के पहले के तांबे के बहुत सारे औजारों के जखीरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार से मिले हैं। इससे प्रकट होता है कि वैदिकेतर समाज में भी ताम्रशिल्पी थे।
वैदिक लोग संभवत: राजस्थान की खेत्री की तांबे की खानों का प्रयोग करते थे। उत्तर वैदिक अवस्था
वैदिक लोगों द्वारा जिन धातुओं का प्रयोग किया गया उनमे तांबा पहला रहा होगा।
तांबे की वस्तुएं चित्रित धूसर मृदभांड स्थलों से पाई गई। इन वस्तुओं का उपयोग मुख्यत: लड़ाई और शिकार तथा आभूषण के रूप में किया जाता था।
बुनाई केवल स्त्रियों करती थी , किंतु यह काम बड़े पैमाने पर होता था। चमड़े , मिट्टी और लकड़ी के शिल्पो में भारी प्रगति हुई।
उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृदभांडों से परिचित थे – काला व लाल मृदभांड , काली पालिशदार मृदभांड , चित्रित धूसर मृदभांड और लाल मृदभांड। इनमें अंतिम प्रकार का मृदभांड उनके बीच सबसे अधिक प्रचलित था और लगभग संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया गया है।
परंतु उस समय का सर्वोपरि वैशिष्ट्य सूचक ‘ चित्रित धूसर मृदभांड ‘ था।
चित्रित धूसर मृदभांड वाले स्तरों में जो कांच की निधियां और चूड़ियां मिली है उनका उपयोग प्रतिष्ठा सूचक वस्तुओं के रूप में इने – गिने लोग ही करते होंगे।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में स्वर्णकारों का भी उल्लेख है। उत्तर वैदिक अवस्था
उत्तर वैदिक काल के लोग खेती और विविध शिल्पो की बदौलत स्थाई जीवन अपनाने में समर्थ हो गए।
‘ चित्रित धूसर मृदभांड ‘ स्थल न केवल कुरुपंचाल क्षेत्र बल्कि मद्र क्षेत्र और मत्स्य क्षेत्र में भी मिले है।
‘ चित्रित धूसर मृदभांड ‘ स्थलों की कुल संख्या लगभग 700 के करीब हो सकती है जो अधिकतर ऊपरी गंगा घाटी में पड़ते है। इनमें कुछ का ही उत्खनन हो पाया है जैसे – हस्तिनापुर , अतरंजीखेड़ा , जखेड़ा और नोह।
‘ चित्रित धूसर मृदभांड ‘ स्थल के लोग कच्ची ईंटों और लकड़ी के खंभों पर टिके टट्टी घरों में रहते थे। उनके चूल्हों और अनाजों ( चावल ) से प्रकट होता है कि वे लोग कृषिजीवी और स्थिरवासी थे।
किसान लोग सामान्यतः काठ के फाल वाले हल से खेती करते थे इसलिए वे इतना अन्न नहीं उपजा सकते थे कि खेती से भिन्न व्यवसायों में लगे लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। अतः किसान नगरों के उदय में अधिक हाथ नहीं बंटा सके। उत्तर वैदिक अवस्था
उत्तर वैदिक काल की अंतिम दौर में आकर हम नगरों के आरंभ का मांद आभास पाते हैं।
हस्तिनापुर और कौशांबी ( इलाहाबाद के पास ) को वैदिक काल के अंत के प्राचीन नगर माना जा सकता है। इन्हें ‘ आद्य – नगरीय स्थल ‘ कहा जा सकता है।
वैदिक ग्रंथों में समुद्र और समुद्र यात्रा की भी चर्चा है।
उत्तर वैदिक अवस्था में लोगों के भौतिक जीवन में भारी उन्नति हुई। खेती जीविका का मुख्य साधन हो गई और जीवन स्थाई हो गया।
विविध शिल्पो और कलाओं से लैस होकर अब वैदिक लोग ऊपरी गंगा के मैदाने में स्थिर रूप से बस गए। मैदानों में बसने वाले किसान अपने निर्वाह से काफी अनाज पैदा कर लेते थे। उत्तर वैदिक अवस्था
राजनीतिक संगठन
उत्तर वैदिक काल में ‘ विदथ ‘ पूरी तरह समाप्त हो गया।
‘ सभा ‘ और ‘ समिति ‘ का रंग – ढंग बदल गया। उनमें राजाओं और अभिजात्यों का बोलबाला हो गया। अब ‘ सभा ‘ में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध हो गया और इसमें कुलीनों तथा ब्राह्मणों का प्रभुत्व हो गया।
बड़े राज्यों के उदय के कारण मुखिया या राजा अधिकाधिक शक्तिशाली होता गया। सत्ता धीरे-धीरे जनजातीय से प्रादेशिक होती गई।
‘ राष्ट्र ‘ शब्द , जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र होता है , पहली बार इसी समय प्रकट हुआ।
उत्तर वैदिक ग्रंथों से राज्य के प्रधान या राजा के निर्वाचन के प्रमाण मिलते हैं। जो शारीरिक और अन्य गुणों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था वही राजा चुना जाता था।
राजा ने भेंट प्राप्त करने की प्रथा को अपना अधिकार बना लिया। उत्तर वैदिक अवस्था
इस समय राजा का पद अनुवांशिक हो गया और यह पद सामान्यत: ज्येष्ठ पुत्र को मिलने लगा।
विभिन्न अनुष्ठानों के चलते राजा के प्रभाव में काफी वृद्धि हुई। ‘ राजसूय यज्ञ ‘ द्वारा राजा सर्वोच्च शक्ति प्राप्त करता था। ‘ अश्वमेध यज्ञ ‘ में राजा द्वारा छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बेरोक गुजरता था उन सभी क्षेत्रों पर राजा का एकछत्र राज्य माना जाता था। ‘ वाजपेय यज्ञ ‘ ( रथदौड़ ) में राजा का रथ अन्य सभी बंधुओ से आगे निकलता था।
इस काल में कर और नजराना का संग्रह प्रचलित हो गया था। इसके संग्रह के लिए एक अधिकारी रहता था जो ‘ संग्रीहीतृ ‘ कहलाता था।
राजा अपने कर्तव्यों के संपादन में पुरोहित , सेनापति, प्रधान रानी और कई अन्य उच्च कोटि के अधिकारियों की सहायता लेता था।
निचले स्तर में , प्रशासन का भार संभवतः ग्राम – सभाओं पर रहता था , जिन पर प्रमुख कुलों के प्रधानों का नियंत्रण रहता था।
उत्तर वैदिक काल में भी राजा कोई स्थाई सेना नहीं रखता था। युद्ध के समय कबीले के इकाइयों को इकट्ठा किया जाता था। उत्तर वैदिक अवस्था
सामाजिक संगठन
उत्तर वैदिक काल का समाज चार वर्णों में विभक्त था – ब्राह्मण , राजन्य या क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र।
यज्ञ के अनुष्ठान के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई।
आरंभ में 16 प्रकार के पुरोहितों में ब्राह्मण एक था किंतु धीरे-धीरे ब्राह्मण अन्य पुरोहित वर्गों को दबाते गए और स्वयं प्रमुख वर्ग बन गए।
ऐसा लगता है कि ब्राह्मण वर्ण की स्थापना में आर्येत्तर तत्वों का कुछ हाथ रहा होगा।
ब्राह्मण लोग यजमानों के लिए धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ करते थे और कृषि – कार्यों से जुड़े पर्वों को संपन्न करते थे और राजा की जीत के लिए प्रार्थना करते थे।
कभी-कभी ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता जताने के लिए राजन्यों से भिड़ जाते थे। लेकिन निचले दो वर्णों से सामना होने की स्थिति में ऊपर के दोनों वर्ग ( ब्राह्मण और क्षत्रिय ) तुरंत आपसी झगड़े को भूल एक हो जाते थे। उत्तर वैदिक अवस्था
उत्तर वैदिक काल के अंत से इस बात पर बल दिया जाने लगा कि ब्राह्मणों को क्षत्रियों के बीच परस्पर सहयोग रहना चाहिए ताकि समाज के शेष भागों में उनका प्रभुत्व बना रहे।
वैश्या को उत्पादन संबंधी काम सौंपा गया , जैसे – कृषि , पशुपालन आदि। इनमें से कुछ शिल्पी का काम भी करते थे। वैदिक काल का अंत होते-होते वे व्यापार को अपनाने लगे।
लगता है कि उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही राजस्व चुकाते थे।
ऊपर के तीन वर्णों की सामान्य विशेषता यह थी कि वे उपनयन संस्कार के अधिकारी थे अर्थात् वे वैदिक मंत्रों के साथ जनेऊ धारण का अनुष्ठान करा सकते थे।
चौथा वर्ण यानी शूद्र उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था , वह गायत्री – मंत्र का उच्चारण नहीं कर सकता था और यही से उपनयन का आभाव शूद्रों की दासता का द्योतक बन गया।
उत्तर वैदिक कालीन ‘ ऐतरेय ब्राह्मण ‘ में कहा गया है कि ब्राह्मण जीविका चाहने वाला और दान लेने वाला है , लेकिन राजा जब चाहे उसे पद से हटा सकता है।
वैश्या को राजस्व का देनदार कहा गया है और राजा जब चाहे उसका दामन कर सकता है। उत्तर वैदिक अवस्था
सबसे बुरी स्थिति शूद्रों की थी। शूद्रों को अन्य वर्णों का सेवक बतलाया गया है। वह दूसरों की इच्छा अनुसार काम करने वाला है और मार खाने वाला है।
फिर भी राज्यअभिषेक संबंधी ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान होते थे जिनमें शूद्र , शायद बचे हुए मूल आर्य कबीले के सदस्य की हैसियत से भाग लेता था।
शिल्पियों में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊंचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में भी वर्णभेद अधिक प्रखर नहीं हुआ था।
परिवार में पिता का अधिकार बढ़ता गया। वह अपने पुत्र को उत्तराधिकार से भी वंचित कर सकता था।
राजपरिवारों में ज्येष्ठाधिकार का प्रचलन प्रबल होता गया।
अब पूर्व पुरुषों की पूजा भी होने लगी। उत्तर वैदिक अवस्था
इस समय स्त्रियों का दर्जा सामान्यतः गिरा यद्यपि कुछ महिलाओं ने शास्त्रार्थ में भाग लिया और कुछ रानियां पति के राज्याभिषेक अनुष्ठानों में साथ रही , पर सामान्यत: स्त्रियों का स्थान पुरुषों के नीचे और अधीनस्थ माना जाने लगा।
उत्तर वैदिक काल में ‘ गोत्र – प्रथा ‘ स्थापित हुई। ‘ गोत्र ‘ शब्द का मूल अर्थ है ‘ गोष्ठ ‘ या वह स्थान जहां समूचे कुल का गोधन पाला जाता था। परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया।
लोग अब गोत्र से बाहर विवाह करने लगे। एक ही गोत्र और मूल पुरुष वाले लोगों के बीच आपस में विवाह निषिद्ध हो गया।
वैदिक काल में ‘ आश्रम ‘ अर्थात जीवन के चार अवस्था सुप्रतिष्ठित नहीं हुए थे। उत्तर वैदिक अवस्था
वैदिकोत्तर कल के ग्रंथों में हमें चार आश्रम स्पष्ट दिखाई देते हैं : ब्रह्मचर्य या छात्रावस्था , गार्हस्थ्य या गृहस्थावस्था , वानप्रस्थ या वनवासावस्था और सन्यास या सांसारिक जीवन से विरत होकर रहने की अवस्था।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है। अंतिम या चौथा आश्रम उत्तर वैदिक काल में सुप्रतिष्ठित नहीं हुआ था , हालाँकि सन्यास अज्ञात नहीं था।
वैदिकोत्तर काल में भी केवल गार्हस्थ्य आश्रम सभी वर्णों में सामान्यत: प्रचलित था। उत्तर वैदिक अवस्था
देवता , अनुष्ठान और दर्शन
उत्तर वैदिक काल में ऊपरी दोआब ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य संस्कृति का केंद्र – स्थल बन गया। लगता है कि सारा वैदिक साहित्य कुरु – पांचालों के इसी क्षेत्र में संकलित हुआ।
यज्ञ इस संस्कृति का मूल था और यज्ञ के साथ – साथ अनेकानेक अनुष्ठान और मंत्रविधियाँ प्रचलित हुई।
अब ‘ इंद्र ‘ और ‘ अग्नि ‘ उतने प्रमुख नहीं रहे। सृजन के देवता ‘ प्रजापति ‘ का सर्वोच्च स्थान मिला।
ऋग्वैदिक काल के कुछ अन्य गौण देवता भी प्रमुख हुए। पशुओं के देवता रूद्र ने उत्तर वैदिक काल में महत्ता पाई। विष्णु को लोग अपना पालक और रक्षक मानने लगे।
देवताओं के प्रतिक के रूप में कुछ वस्तुओं की पूजा भी प्रचलित हुई। उत्तर वैदिक काल में मूर्ति पूजा के आरंभ का कुछ आभास मिलने लगता है।
इस समय कुछ वर्णों के अपने देवता भी हो गए। ‘ पूषन ‘ जो पशुओं की रक्षा करने वाला माना जाता था , शूद्रों का देवता हो गया।
देवताओं की आराधना के जो भौतिक उद्देश्य पूर्व में थे वे ही इस काल में भी रहे। उत्तर वैदिक अवस्था
अब देवताओं की पूजा की विधि में अत्यधिक अंतर आ गया। स्तुतिपाठ पहले की तरह चलते रहे , लेकिन देवताओं को प्रसन्न करने की यह प्रमुख रीति नहीं रही। अपितु , यज्ञ और उसमे पशुओं की बलि ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। यज्ञ , सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप में प्रचलित हुए।
यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाती थी जिसे पशुधन का हास होता गया। अतिथि को ‘ गोहना ‘ कहा जाता था क्योंकि उन्हें गोमांस खिलाया जाता था।
यज्ञ करने वाला ‘ यजमान ‘ कहलाता था और यज्ञ का फल बहुत कुछ इस पर निर्भर माना जाता था कि यज्ञ में मंत्रों का उच्चारण कितनी शुद्धता से किया गया है।
वैदिक आर्यों में प्रचलित बहुत से अनुष्ठान हिंद – यूरोपीय भाषाभाषियों के कर्मकांडों से मिलते हैं , लेकिन बहुत से अनुष्ठान भारतीय भूमि में विकसित प्रतीत होते हैं।
ब्राह्मण धार्मिक ज्ञान – विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे।
ब्राह्मणों ने बहुत – सारे अनुष्ठानों को चलाया , जिनमें से कुछ आर्येतर लोगों से भी ग्रहण किये गए। उत्तर वैदिक अवस्था
‘ राजसूय यज्ञ ‘ करने वाले पुरोहित को दक्षिण में 240000 गायें मिलती थी। यज्ञ की दक्षिण में सामान्यतः गायें और दासियां तो दी ही जाती थी साथ – ही – साथ सोना , कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे।
कभी-कभी पुरोहित दक्षिण में राज्य का कुछ भाग भी मांग लेते थे। किंतु यज्ञ की दक्षिण में भूमि का दान दिया जाना उत्तर वैदिक काल में प्रचलित नहीं हुआ था।
‘ शतपथ ब्राह्मण ‘ में कहा गया है कि अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित को उत्तर , दक्षिण , पूरब और पश्चिम चारों दिशाएं दे देनी चाहिए।
वैदिक काल के अंतिम दौर में , पुरोहितों के प्रभुत्व तथा यज्ञ व कर्मकांडों के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया शुरू हुई। यह प्रतिक्रिया पंचालों और विदेह के राज्य में विशेष कर हुई , जहां 600 ईसा पूर्व के आसपास उपनिषदों का संकलन हुआ था।
उपनिषदों में कहां गया है कि अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और ब्रह्म के साथ आत्मा का संबंध ठीक से जानना चाहिए। उत्तर वैदिक अवस्था
पंचाल और विदेह के कई क्षत्रिय राजाओं ने उपनिषदीय चिंतन को अपनाया और ब्राह्मण धर्म में सुधार लाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया।
उत्तर वैदिक काल में प्रदेशाश्रित राज्यों की शुरुआत हुई। अब युद्ध केवल पशुओं को हथियाने के लिए नहीं बल्कि राज्य क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए भी होने लगे। महाभारत की लड़ाई उसका उदाहरण है।
वैदिक काल का पशुचरी समाज अब कृषि प्रधान हो गया।
‘ शूद्र ‘ इस काल में भी छोटा सेवक – वर्ग बना रहा।
कबायली समाज टूट कर वर्णों में विभक्त नया समाज बन गया। किंतु वर्णमूलक भेदभाव पर ज्यादा बल नहीं दिया जाता था।
ब्राह्मणों के सहयोग के बावजूद क्षत्रिय राजतंत्र की स्थापना नहीं कर पाई क्योंकि उस समय तक कोई नियमित कर – प्रणाली और वेतन भोगी सेवा का संगठन नहीं हो सका था। उत्तर वैदिक अवस्था
MCQ
प्रश्न 1 – वैदिक सूक्तों या मंत्रों के संग्रह को कहते हैं –
उत्तर – संहिता
प्रश्न 2 – सबसे पुराना वैदिक ग्रंथ है –
उत्तर – ऋग्वेद संहिता
प्रश्न 3 – ऋग्वैदिक सूक्तों को गाने के लिए धुन में पिरोया गया और इस पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम पड़ा –
उत्तर – सामवेद संहिता
प्रश्न 4 – विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए मंत्र – तंत्र संग्रहित है –
उत्तर – अथर्ववेद में
प्रश्न 5 – वैदिक संहिताओं के बाद रचना हुई –
उत्तर – ब्राह्मण – ग्रंथ की
प्रश्न 6 – उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ उत्तरी गंगा के मैदान में रचे गए –
उत्तर – लगभग 1000 – 500 ईसा पूर्व में
प्रश्न 7 – उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे को कहा गया है –
उत्तर – श्याम या कृष्णा अयस
प्रश्न 8 – उत्तर वैदिक काल के लोगों की मुख्य जीविका हो चली थी –
उत्तर – खेती
प्रश्न 9 – हल संबंधी अनुष्ठान का लंबा वर्णन आया है –
उत्तर – शतपथ ब्राह्मण में
प्रश्न 10 – किस काल में हल चलाना उच्च वर्णों के लिए वर्जित हो गया –
उत्तर – उत्तर वैदिक
प्रश्न 11 – वैदिक ग्रंथों में चावल का नाम है –
उत्तर – व्रीहि
प्रश्न 12 – वैदिक काल के लोगों ने धातुओं का प्रयोग किया उनमें कौन सा पहला धातु था ?
उत्तर – तांबा
प्रश्न 13 – उत्तरवैदिक काल में किस राजनितिक संगठन का नामोनिशान मिट गया ?
उत्तर – विदथ
प्रश्न 14 – ‘ राष्ट्र ‘ शब्द , जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र होता है का पहली बार उल्लेख मिलता है –
उत्तर – उत्तरवैदिक काल में
प्रश्न 15 – राजा दिव्य शक्ति प्राप्त करने के लिए कौन सा यज्ञ करता है ?
उत्तर – राजसूय यज्ञ
प्रश्न 16 – कर और नजराना संग्रह के लिए एक अधिकारी रहता था जो कहलाता था –
उत्तर – संग्रीहीतृ
प्रश्न 17 – उत्तर वैदिक काल में केवल राजस्व चुकाते थे –
उत्तर – वैश्य
प्रश्न 18 – उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था –
उत्तर – शूद्रों को
प्रश्न 19 – ‘ गोत्र ‘ शब्द का मूल अर्थ है
उत्तर – गोष्ठ
प्रश्न 20 – उत्तर वैदिक ग्रंथों में कितने आश्रमों का उल्लेख है ?
उत्तर – तीन
प्रश्न 21 – उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य संस्कृति का केंद्र – स्थल बन गया –
उत्तर – ऊपरी दोआब
प्रश्न 22 – पशुओं की रक्षा करने वाला देवता माना जाता था –
उत्तर – पूषन
प्रश्न 23 – अतिथि को कहा जाता था –
उत्तर – गोहना
प्रश्न 24 – यज्ञ करने वाला कहलाता था –
उत्तर – यजमान