मीराबाई
मीराबाई का जन्म 1498 ईस्वी में राजस्थान के प्रसिद्ध राठौर वंश में हुआ। इनके पिता का नाम राव रत्नसिंह और माता का नाम कुसुम कुँवर था। इनका जन्म-स्थान मेड़ता राज्य का चौकड़ी ग्राम माना जाता है। राव रतनसिंह की एकलौती पुत्री होने के कारण इनका बचपन बहुत लाड- प्यार में बीता। बचपन में ही मां के स्वर्ग सिधार जाने के कारण ये अपने दादा राव दूदाके पास रही। दादा राव दूदा अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के थे, जिसका पूरा प्रभाव मीराबाई के जीवन चरित्र पर भी पड़ा।
मीरा बचपन से ही श्रीकृष्ण की भक्ति थी। 8 वर्ष की अल्पायु में ही मीरा ने श्रीकृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था। मीराबाई का विवाह 1516 इसी में चित्तौड़ के महाराजा राणा सांगा के जेष्ठ पुत्र कुंवर भोजराज के साथ हुआ। विवाह के पश्चात भी मीराबाई पूर्व के भाँति कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहती थी। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात ही मीराबाई के पति की मृत्यु हो गई थी। उसके बाद तो इनका सारा समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में ही बीतने लगा।
साधु-संतों के साथ सत्संग करने के कारण राणा मीरा से अत्यधिक रुष्ट हो गए, क्योंकि यह उनके राजकुल की मर्यादा के विपरीत था। इन्होंने कई बार मीराबाई को मारने का भी प्रयास किया। ऐसा भी कहा जाता है कि राणा ने इन्हें विष पीने के लिए भी दिया , परंतु भगवान श्री कृष्ण की असीम कृपा से विष का मीराबाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
अंत में राणा के दुर्व्यवहार से व्यथित होकर मीराबाई वृंदावन चली गई। संत रैदास इनके प्रेरक एवं गुरु माने जाते हैं। कहा जाता है कि यह प्रेम- दीवानी द्वारिका में कृष्ण की मूर्ति के समक्ष ‘हरि तुम हरो जन की पीर’ गाती हुई उस मूर्ति में सन 1546 ईस्वी में समा गई। इस प्रकार कृष्ण की दीवानी मीराबाई कृष्णमय हो गई।
साहित्यिक परिचय
हिंदी-साहित्य में जो स्थान सूरदास, कबीरदास और तुलसीदास को प्राप्त है, वही मीरा को भी है। वह हिंदी-साहित्य-सरोवर की एक अद्वितीय छटा है। हिंदी-साहित्य-उद्यान इस कोकिला-कण्ठी से सदैव मुखरित रहेगा। मीरा के काव्य का भाव-पक्ष और कला-पक्ष दोनों ही समृद्ध है। हिंदी साहित्याकाश मीराबाई की मधुर वाणी से युग-युग तक गुंजित होता रहेगा।
मीराबाई की रचनाएँ
भक्ति-रस में सराबोर मीराबाई की प्रमुख कृतियां निम्नवत है –
नरसी जी की मायरा,
गीत-गोविंद की टीका,
राग-गोविंद,
मीराबाई की मल्हार,
राग-सोरठा के पद,
गरबा गीत,
राग-विहाग तथा फुटकर पद,
मीरा की पदावली।
भाषा
मीराबाई के पदों में राजस्थानी, ब्रिज और गुजराती भाषा का मिश्रण पाया जाता है। कहीं-कहीं पंजाबी, खड़ी बोली और पूर्वी भाषा का प्रयोग भी मिल जाता है। भक्ति और प्रेम रस में डूबी मीरा ने उपयुक्त शब्दों का सहज रूप से प्रयोग करते हुए अपने पदों की भाषा को भावपूर्ण बनाया है।
शैली
परंपरागत रूप से जयदेव और विद्यापति से प्रचलित पद रचना को मीरा ने अपनाया। सूर ने भी इसी शैली को अपने काव्य में स्थान दिया था। सूर के समान मीरा के पदों में भी संगीतात्मकता , मधुरता और सरसता का सामंजस्य है। मीरा के पदों में व्याकरण की दृष्टि से अनेक त्रुटियाँ है, परंतु मीराबाई ने राग और रागनियों के द्वारा सजाकर पदों को अनुपम बना दिया है। कहीं-कहीं छंदों में मात्राओं की त्रुटियां दृष्टिगत होती हैं, परंतु संगीत के मधुर स्वर, ताल और लय में वे सब दब-सी गई हैं। मीराबाई का साहित्य गीति – काव्य की दृष्टि से बड़ा ही अनुपम बना पड़ा है।
साहित्य में स्थान
साहित्यकारों ने मीरा के काव्य में प्रेम और भक्ति की गहनता देख उन्हें ‘प्रेम दीवानी मीरा’ की संज्ञा प्रदान की है। मध्ययुगीन राजस्थानी और हिंदी साहित्य में उनका काव्य अनुपम है। बाल्यावस्था से लेकर जीवनपर्यंत गिरधर-गोपाल की भक्ति करने वाली मीरा भक्त कवियों में श्रेष्ठ है।
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