मोर्योत्तर युग मे शिल्प , व्यापार और नगर
मोर्योत्तर युग मे शिल्प , व्यापार और नगर :- शकों , कुषाणों , सातवाहनों ( 200 ईसा – पूर्व – 300 ई ) और प्रथम तमिल राज्यों का योग भारत के शिल्प और वाणिज्य के इतिहास में चरम उत्कर्ष का काल था।
मौर्यपूर्व काल के ‘ दीघनिकाय ‘ में लगभग 24 प्रकार के व्यवसायों का उल्लेख है जबकि इसी काल में के ‘ महावस्तु ‘ में राजगीर के रहने वाले 36 प्रकार के व्यापारियों का उल्लेख है।
‘ मिलिंदपन्हों ‘ या मिलिंदप्रश्न में 75 प्रकार के व्यवसाययों का उल्लेख है , जिनमें 60 विविध प्रकार के शिल्पो से संबंध है। शिल्पी नगरों एवं गांवों दोनों में रहते थे।
तेलंगाना स्थित करीमनगर के एक गांव में बढ़ई , लोहार , सुनार , कुम्हार आदि अलग-अलग टोलों में रहते थे , तथा कृषि – मजदूर तथा अन्य मजदूर एक दूसरे छोर पर बसते थे।
सोना , चांदी , सीसा , टिन, तांबा , पीतल , लोहा और रत्न के काम वाले 8 शिल्प थे। इससे खान और धातु के कौशल में भारी प्रगति और विशेषीकरण का पता चलता है।
लोहा बनाने के तकनीकी ज्ञान में भारी प्रगति हुई।
अनेक उत्खनन – स्थलों पर कुषाण और सातवाहन कालीन स्तरों में लौहशिल्प की वस्तुएं अधिकाधिक संख्या में मिली है। परंतु इस विषय में आंध्र प्रदेश का तेलंगाना क्षेत्र सबसे समृद्ध प्रतीत होता है। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
तेलंगाना क्षेत्र के करीमनगर और नालगोंडा जिलों में हथियारों के अलावा तराजू की डंडी , मूठवाले फावड़े , कुल्हाड़ियाँ , हंसिया , फाल , उस्तरा , करछुल आदि लोहे की वस्तुएं मिली है।
छुरी – कांटे सहित भारतीय लोहे और इस्पात का निर्यात अबीसीनियाई बंदरगाहों को किया जाता था और पश्चिम एशिया में उनकी भारी प्रतिष्ठा थी।
कपड़ा बनाने , रेशम बुनने और अस्त्रों तथा विलास की वस्तुओं के निर्माण में भी प्रगति हुई।
मथुरा ‘ शाटक ‘ नामक विशेष प्रकार के वस्त्र के निर्माण का बड़ा केंद्र था।
तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली नगर के उपान्तवर्ती ‘ उरैयूर ‘ में ईंटों का बना रंगाई का हौज मिला है। अरिकमेडु में भी इसी तरह के हौज मिले हैं। ये हौज ईसा की पहली – तीसरी सदियों के हैं जब इन नगरों में करघे पर कपड़ा बुनने का व्यवसाय बहुत प्रचलित था।
कोल्हू के प्रचलन से तेल के उत्पादन में वृद्धि हुई। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
इस कल के अभिलेख बताते हैं कि बुनकरों , सुनारों , रंगरेजों , धातु – शिल्पियों , दंत – शिल्पियों , मूर्तिकरों , जौहरियों , मछुआरों , लोहारों , गंधियों आदि ने बौद्ध भिक्षुओं के लिए गुहाएं बनवाई तथा उन्हें स्तंभ , पट्ट , कुंड आदि का दान दिया।
विलास की वस्तुओं का उत्पादन करने वाले शिल्पों में हाथी दांत का काम , कांच का काम और मणिमाणिक्य बनाने का काम उल्लेखनीय है। सीप या शंख शिल्प भी उन्नत स्थिति में था।
भारतीय दंतशिल्प की वस्तुएं अफगानिस्तान और रोम में मिली है। इनका संबंध दक्कन में सातवाहन स्थलों के उत्खनन में पाई गई दंत – शिल्प की वस्तुओं से जोड़ा जाता है।
रोम की कांच की वस्तुएं तक्षशिला और अफगानिस्तान से मिलती हैं , लेकिन भारत ने कांच ढालने की जानकारी ईस्वी सन के आरंभ में आकर प्राप्त की।
सिक्कों की ढलाई महत्वपूर्ण शिल्प थी और यह काल सोने , चांदी , तांबे , काँसे , सीसे , पोटीन आदि तरह – तरह के सिक्के बनाने के लिए मशहूर है।
शिल्पी लोग नकली रोमन सिक्के भी बना लेते थे। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
सातवाहन स्तर के एक सिक्के ढालने वाले सांचे से पता चलता है कि इसमें 6 – 6 सिक्के एक ही बार में निकल आते थे।
पकी मिट्टी की सुंदर-सुंदर मूर्तिकाएं भी बनती थी जो विशाल मात्रा में कुषाण और सातवाहन स्थलों से प्राप्त हुई है।
नालकोंडा जिले में ‘ येल्लश्वरम ‘ से मूर्तिकाएं और सांचे सबसे अधिक संख्या में मिले हैं।
मूर्तिकाएं और अनेक सांचे हैदराबाद से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर ‘ कोंडापुर ‘ में भी पाए गए हैं।
मूर्तिकाएं अधिकतर नगर निवासी उच्च वर्गों के लिए बनती थी।
शिल्पी लोग आपस में संगठित होते थे , और उनके संगठन का नाम ‘ श्रेणी ‘ था। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
ईसा की दूसरी सदी में महाराष्ट्र के बौद्ध धर्मावलंबी गृहस्थ उपासकों ने कुम्हारों , तेलियों और बुनकरों की श्रेणीयों के पास धन जमा किया ताकि उससे बौद्ध भिक्षुओं को वस्त्र और अन्य आवश्यक वस्तुएं दी जाए।
इस काल में शिल्पियों की कम – से – कम 24 श्रेणियां प्रचलित थी।
अभिलेखों से ज्ञात अधिकतर शिल्पी मथुरा क्षेत्र और पश्चिमी दकन में मौजूद थे जो पश्चिमी समुद्र तट की ओर जाने वाले व्यापार – मार्ग पर पड़ते थे।
इस कल का सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक विकास भारत और पूर्वी रोमन साम्राज्य के बीच फूलता – फलता व्यापार था।
ईसा – पूर्व पहली सदी में शकों , पार्थियनों और कुषाणों की गतिविधियों के कारण स्थल – मार्ग से व्यापार करना मुश्किल हो गया।
ईरान के पार्थियन लोग भारत से लोहा और इस्पात का निर्यात करते थे , लेकिन वे ईरान के और भी पश्चिमी इलाकों के साथ भारतीय व्यापार में बाधा डालते थे। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
ईसा की पहली सदी से व्यापार मुख्यतः समुद्री मार्ग से होने लगा। लगता है कि ईस्वी सन के आरंभ में मानसून के रहस्य का पता लग जाने के फलस्वरुप समुद्री यात्रा सुगम हो गयी।
पश्चिमी समुद्र तट पर ‘ भड़ौच ‘ और ‘ सोपारा ‘ तथा पूर्वी तट पर ‘ अरिकमेडु ‘ और ‘ ताम्रलिप्ति ‘ बंदरगाह थे जिनमे ‘ भड़ौच ‘ सबसे महत्वपूर्ण और उन्नतशील था। यहीं पर सातवाहन , शक और कुषाण राज्य की वस्तुएं पहुंचती थी।
शक और कुषाण लोग पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत से पश्चिमी समुद्र तट तक दो मार्गो से जाते थे। दोनों मार्ग तक्षशिला में मिलते थे और मध्य एशिया से गुजरने वाले रेशम मार्ग से जुड़े थे।
पहले मार्ग तक्षशिला को निचली सिंधु घाटी से जोड़ते हुए उत्तर से सीधे दक्षिण की ओर भड़ौच तक जाता था।
दूसरा मार्ग जो ‘ उत्तरापथ ‘ से विदित है तक्षशिला से चलकर आधुनिक पंजाब होते हुए यमुना नदी के पश्चिमी तट से होकर मथुरा पहुंचता था। फिर मथुरा से मालवा में उज्जैन पहुंचकर वहां से पश्चिमी समुद्र तट पर भड़ौच जाता था। उज्जैन में आकर एक और मार्ग उससे मिलता था जो इलाहाबाद के समीप कौशांबी से निकलता था। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
विदेशी व्यापार
भारत और रोम के बीच वृहत पैमाने पर चलने वाले व्यापार में साधारण लोगों के रोजमर्रे के काम की चीजें शामिल नहीं थी।
बाजार में विलास की वस्तुएं खूब चलती थी , जो कभी-कभी अभिजातवर्गीय आवश्यकताएं मानी जाती है।
रोम वालों ने सबसे पहले देश के सुदूर दक्षिणी हिस्से से व्यापार आरंभ किया ; इसलिए उनके सबसे पहले के सिक्के तमिल राज्यों में मिले हैं , जो सातवाहन के राज्यक्षेत्र के बाहर है।
रोम वाले मुख्यतः मसालों का आयात करते थे जिसके लिए दक्षिण भारत मशहूर था। वे मध्य और दक्षिणी भारत से मलमल , मोती , रत्न , माणिक्य और लोहे की वस्तुएं खासकर बर्तन आयात करते थे।
मोती , हाथी दांत , रत्न और पशु की गिनती विलास की वस्तुओं में होती थी। रसोई के बर्तन भी आयात में शामिल रहे होंगे। छुरी – कांटे का प्रयोग उच्चवर्ग के लोगों में शायद महत्वपूर्ण स्थान रखता होगा।
भारत से सीधे भेजी जाने वाली वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ वस्तुएं चीन और मध्य एशिया से भारत आती और तब रोमन साम्राज्य के पूर्वी भागों में भेजी जाती थी। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
रेशम चीन से सीधे रोमन साम्राज्य को अफगानिस्तान और ईरान से गुजरने वाले रेशम – मार्ग से भेजा जाता था।
ईरान में पार्थियनों के शासन स्थापित होने से रेशम मार्ग से व्यापार करने में कठिनाई पैदा हो गई। अत: यह व्यापार अब उपमहादेश के पश्चिमोत्तर भाग से होते हुए पश्चिमी भारत के बंदरगाहों से होने लगा।
कभी-कभी चीन से रेशम भारत के पूर्वी समुद्र तट होते हुए भारत आता था , तब वह यहां से पश्चिमी देशों को जाता था।
बदले में , रोम के लोग भारत को शराब , शराब के दोहत्थे कलश और मिट्टी के अन्यान्य पात्र भेजते थे। ये वस्तुएं पश्चिमी बंगाल के तामलुक , पांडिचेरी के निकट अरिकमेडु और दक्षिण भारत के कई अन्य स्थानों में खुदाई में मिली है। कभी-कभी तो ये वस्तुएं गुवाहाटी तक भी पहुंच जाती थी।
सातवाहन अपना सिक्का ढालने में जिस सीसे का इस्तेमाल करते थे वह रोम से लपेटी हुई पट्टियों की शक्ल में मंगाया जाता था।
उत्तर भारत में रोम से आई वस्तुएं बहुत कम मिलती हैं। परंतु इसमें संदेह नहीं है कि कुषाणों के समय में इस उपमहादेश के पश्चिमोत्तर भाग में ईसा की दूसरी सदी में रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग के साथ व्यापार चलता था। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
काबुल से 72 किलोमीटर उत्तर बेग्राम में इटली , मिस्र और सीरिया में बने कांच के बड़े-बड़े मर्तबान मिले हैं। इसके अलावा कटोरे , कांसे का गोड़ा , इस्पात का पैमाना , पश्चिमी बाट , काँसे की छोटी-छोटी यूनानी – रोमन मूर्तियां , सुराहियां और सिलखड़ी के अन्यान्य पात्र भी मिले है।
तक्षशिला से जिसकी पहचान पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के आधुनिक ‘ सिरकप ‘ से की गई है , यूनानी रोमन कांस्य मूर्तियों के उत्कृष्ट नमूने मिले हैं। हमें चांदी के गहने , कुछ कांस्य पात्र , एक कलश और रोमन सम्राट ‘ टाइबेरियस ‘ के कुछ सिक्के भी मिले हैं।
रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार से सातवाहनों और कुषाणों को लाभ पहुंचा लेकिन लगता है कि अधिक लाभ सातवाहनों को हुआ।
रोम से भारत आई वस्तुओं में सबसे महत्व के हैं – ढेर सारे रोमन सिक्के जो प्रायः सोने और चांदी के थे।
संपूर्ण उपमहादेश में इन सिक्कों के लगभग 150 जखीरे प्रकाश में आए हैं और इनमें अधिकतर विंध्य के दक्षिण में पाए गए हैं।
भारत में पाए गए रोमन सोने – चांदी के सिक्कों की संख्या 6000 से अधिक नहीं है। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
रोमन लेखन प्लिनी ने 77 ईस्वी में लेटिन में लिखे नेचुरल हिस्ट्री नामक अपने विवरण में अफसोस प्रकट किया है कि भारत के साथ व्यापार करके रोमन अपना स्वर्णभंडार लुटाता जा रहा है।
लेकिन , उपरोक्त से भी पहले 22 ईस्वी में शिकायत का वर्णन मिलता है कि रोम पूरब से गोल मिर्च मांगने पर अत्यधिक खर्च कर रहा है।
पश्चिम के लोगों को भारतीय गोल मिर्च इतनी प्रिया थी कि संस्कृत में गोल मिर्च का नाम ही पड़ गया – यवनप्रिय।
भारत में बने छुरी – कांटे के इस्तेमाल के खिलाफ भी भारी प्रतिक्रिया हुई जिन्हें रोम के अमीर ऊंची कीमतों में खरीदते थे।
रोम के साथ व्यापार में भारत का पलड़ा भारी था। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
रोम की मुद्रा की कमी होने पर अंततोगत्वा रोम को भारत के साथ गोल मिर्च और इस्पात के समान का व्यापार बंद करने के लिए कदम उठाना पड़ा।
लगता है कि भारत – रोम व्यापार और जहाजरानी में मुख्य भूमिका रोमनों ने अदा की।
यद्यपि रोमन व्यापारी दक्षिण भारत में बस गए , पर इस बात का बहुत कम प्रमाण मिलता है कि भारत के लोग रोमन साम्राज्य में बसे।
मिट्टी के बर्तन के टुकड़ों पर तमिल भाषा में लिखित अभीरेखण मिले हैं जिससे पता चलता है कि कुछ तमिल सौदागर रोमन काल में मिस्र में बसते थे। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
मुद्रा अर्थव्यवस्था
उत्तर में हिन्द – यूननी शासकों ने कुछेक स्वर्णमुद्राएँ जारी की। लेकिन कुषाणों ने काफी संख्या में स्वर्णमुद्राएँ चलाई।
पांचवी सदी ईसा -पूर्व में भारत ने ईरानी साम्राज्य को नजराना के तौर पर 320 टैलेंट सोना दिया था। यह सोना सिंध की स्वर्णखान से निकाला गया होगा।
कुषाण संभवत: मध्य एशिया से सोना प्राप्त करते थे। यह भी संभव है कि यह सोना या तो कर्नाटक से या बिहार के ढालभूम की स्वर्ण खानों से भी मिला होगा।
रोम से संपर्क के फलस्वरुप कुषाणों ने दीनार प्रकार के स्वर्णमुद्राएं जारी की जो गुप्तों के शासनकाल में खूब प्रचलित हुई। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
स्वर्णमुद्राओं का प्रयोग रोजमर्रा के लेन – देन में नहीं होता होगा। इसके लिए सीसे , पोटीन या तांबे के सिक्कों का प्रयोग होता था।
आन्ध्रों ने दक्कन में सीसे और पोटीन के सिक्के बड़ी संख्या में जारी किए।
कुषाणों ने उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत में सबसे अधिक संख्या में तांबे के सिक्के जारी किए।
तांबे और कांसे के सिक्के भारी संख्या में कई देसी राजवंशों ने भी जारी किए जैसे – मध्य भारत में राज करने वाले ‘ नाग ‘ , पूर्वी राजस्थान , हरियाणा , पंजाब और उत्तर प्रदेश के संलग्न क्षेत्रों पर शासन करने वाले ‘ यौधेय ‘ तथा कौशांबी , मथुरा , अवन्ति और अहिच्छत्र ( उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में स्थित ) पर राज करने वाले ‘ मित्र ‘। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
शहरी बस्तियाँ
शिल्प और वाणिज्य में वृद्धि तथा मुद्रा के अधिकाधिक प्रयोग के परिणाम स्वरूप इस काल में अनेकानेक नगरों का विकास हुआ।
वैशाली ,पाटलिपुत्र , वाराणसी , कौशांबी , श्रावस्ती , हस्तिनापुर , मथुरा , इंद्रप्रस्थ ( नई दिल्ली का पुराना किला ) आदि नगरों के उल्लेख साहित्यिक ग्रंथों में मिलते हैं और कुछ नगरों का वर्णन चीनी यात्रियों ने भी किया है।
उपरोक्त नगरों में अधिकतर ईसा की पहली और दूसरी सदियों में कुषाण काल में फूले – फले। ऐसे उत्खननों के आधार पर कहा जा सकता है।
बिहार के कई पुरास्थल जैसे – चिरांद , सोनपुर और बक्सर तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई पुरास्थल , खैराडीह और मासोन कुषाण काल में समृद्ध थे।
उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के निकट शृंगवेरपुर , सोहगौरा , भीटा और कौशांबी , तथा उसके पश्चिमी जिलों में स्थित अंतरजीखेड़ा और कई अन्य स्थल कुषाण काल में उन्नति पर थे।
शृंगवेरपुर और चिरांद में बहुत – सी कुषाणकालीन ईंट – संरचनाएं पाते हैं। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
मथुरा में ‘ सोंख ‘ के उत्खनन में कुषाण काल में सात स्तर दिखाई देते हैं , जबकि गुप्त काल का केवल एक स्तर है।
पंजाब के जालंधर , लुधियाना और रोपड़ में कई स्थलों पर कुषाण काल की अच्छी संरचनाएं पाते हैं।
भौतिक अवशेषों से प्रकट होता है कि कुषाण काल में नगरीकरण उत्कर्ष की चोटी पर पहुंच गया था।
मालवा और पश्चिमी भारत में सबसे महत्वपूर्ण नगर ‘ उज्जैन ‘ था , क्योंकि यहां दो बड़े मार्ग मिलते थे। एक कौशांबी से आने वाला और दूसरा मथुरा से। यहां से ‘ गोमेद ‘ और ‘ इंद्रगोप ‘ पत्थरों का निर्यात होता था।
सातवाहन काल में पश्चिमी और दक्षिणी भारत में तगर , पैठन , धान्यकटक , अमरावती , नागार्जुनकोंडा , भड़ौच , सोपारा , अरिकमेडु और कवेरीपटट्नम समृद्धि नगर थे। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
तेलंगाना में कई सातवाहन बस्तियां खुदाई में निकली हैं। इनमें से कुछ तो आन्ध्रों के ‘ दीवार से घिरे उन तीस नगरों ‘ में से होंगे जिनका उल्लेख प्लिनी ने किया है।
महाराष्ट्र , आंध्र और तमिलनाडु में नगरों का हास सामान्यतः ईसा की तीसरी सदी के मध्य से या उसके बाद से शुरू हो जाता है।
कुषाण और सातवाहन के समय में नगरों की उन्नति इसलिए हुई क्योंकि रोमन साम्राज्य के साथ भारत का व्यापार अच्छा चल रहा था।
भारत में अधिकतर कुषाण नगर मथुरा से तक्षशिला जाने वाले पश्चिमोत्तर मार्ग या ‘ उत्तरापथ ‘ पर पड़ते थे।
तीसरी सदी से रोमन साम्राज्य ने भारत के साथ व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया।
दकन में हुई खुदाइयों से सातवाहन काल के बाद से नगर बस्तियों का हास होना लक्षित होता है। मोर्योत्तर युग मे शिल्प व्यापार और नगर
MCQ
प्रश्न 1- मौर्यपूर्व काल के किस ग्रंथ में लगभग 24 प्रकार के व्यवसायों का उल्लेख है ?
उत्तर – दीघनिकाय
प्रश्न 2- मौर्यपूर्व काल के किस ग्रंथ में राजगीर के रहने वाले 36 प्रकार के व्यापारियों का उल्लेख है ?
उत्तर – महावस्तु
प्रश्न 3- ‘ मिलिंदपन्हों ‘ या मिलिंदप्रश्न में कितने प्रकार के व्यवसाययों का उल्लेख है ?
उत्तर – 75
प्रश्न 4- ‘ शाटक ‘ नामक विशेष प्रकार के वस्त्र के निर्माण का बड़ा केंद्र था –
उत्तर – मथुरा
प्रश्न 5- भारत ने कांच ढालने की जानकारी कब प्राप्त की ?
उत्तर – ईस्वी सन के आरंभ में
प्रश्न 6- विभिन्न ग्रंथों के आधार पर मौर्योत्तर काल में कितनी श्रेणियों का प्रचलन माना जाता है ?
उत्तर – कम – से – कम 24 श्रेणियां
प्रश्न 7- मानसून के रहस्य का पता कब लग ?
उत्तर – ईस्वी सन के आरंभ में
प्रश्न 8- रोम वालों ने सबसे पहले देश के किस हिस्से से व्यापार आरंभ किया ?
उत्तर – सुदूर दक्षिणी
प्रश्न 9- सातवाहन अपना सिक्का ढालने में जिस सीसे का इस्तेमाल करते थे वह कहाँ से मंगाया जाता था ?
उत्तर – रोम
प्रश्न 10- किस लेखक ने ‘ नेचुरल हिस्ट्री ‘ नामक अपने विवरण में अफसोस प्रकट किया है कि भारत के साथ व्यापार करके रोमन अपना स्वर्णभंडार लुटाता जा रहा है ?
उत्तर – प्लिनी
प्रश्न 11- रोम से भारत आई वस्तुओं में सबसे महत्व के हैं – ढेर सारे रोमन सिक्के जो प्रायः किस धातु के बने है ?
उत्तर – सोने और चांदी के
प्रश्न 12- किस वस्तु का नाम संस्कृत में ‘ यवनप्रिय ‘ पड़ा ?
उत्तर – गोलमिर्च
प्रश्न 13- पांचवी सदी ईसा -पूर्व में भारत ने ईरानी साम्राज्य को नजराना के तौर पर कितना टेलेंट सोना दिया था ?
उत्तर – 320 टैलेंट
प्रश्न 14- कुषाणों ने किसके संपर्क के फलस्वरुप दीनार प्रकार के स्वर्णमुद्राएं जारी की जो गुप्तों के शासनकाल में खूब प्रचलित हुई ?
उत्तर – रोमन के
प्रश्न 15- कुषाणों ने सबसे अधिक संख्या में तांबे के सिक्के जारी किए –
उत्तर – उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत में
प्रश्न 16- किस स्थल के उत्खनन में कुषाण काल में सात स्तर दिखाई देते हैं , जबकि गुप्त काल का केवल एक स्तर है ?
उत्तर – सोंख ( मथुरा )
प्रश्न 17- महाराष्ट्र , आंध्र और तमिलनाडु में नगरों का हास सामान्यतः कब से शुरू हो जाता है ?
उत्तर – ईसा की तीसरी सदी के मध्य से या उसके बाद से
प्रश्न 18- रोमन साम्राज्य ने भारत के साथ व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया –
उत्तर – तीसरी सदी से