मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
मुगल साम्राज्य का दृढीकरण – जब हुमायूँ बीकानेर से पीछे हट रहा था उस समय अमरकोट के राणा ने बहुत दिलेरी के साथ उसे शरण और सहायता दी थी। वहीं अमरकोट में 1542 ईस्वी में उसकी पत्नी ने अकबर को जन्म दिया।
जब हुमायूँ वहां से ईरान भागा तो शिशु अकबर को उसके चाचा कामरान ने बंदी बना लिया , लेकिन उसने अपने भतीजे के साथ अच्छा व्यवहार किया। हुमायूँ द्वारा कंधार पर कब्जा करने के बाद अकबर को फिर से अपने माता-पिता का वात्सल्य प्राप्त हुआ।
हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर पंजाब में कालानौर नामक स्थान में अफगान विद्रोहियों के खिलाफ युद्धरत मुगलिया फौज की कमान संभाले हुए था। कालानौर में ही मात्र 13 साल 4 महीने की उम्र में उसके सिर पर मुगलिया वंश का ताज रख दिया गया।
अकबर के उस्ताद और हुमायूं के विश्वस्त तथा प्रिय अधिकारी बैरम खां को मुगल बादशाह का वकील बना दिया गया और उसे ” खान-ए-खानन ” का खिताब दिया गया।
उस समय मुगलो के लिए हेमू को सबसे बड़ा खतरा माना जा रहा था। चुनार से लेकर बंगाल की सीमा तक का क्षेत्र शेरशाह के एक भतीजे आदिलशाह के अधिकार में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लाम शाह के अधीन एक बाजार अध्यक्ष के रूप में आरंभ किया था लेकिन आदिलशाह की सेवा में उसकी दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की हुई थी। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
हेमू 22 लड़ाइयां लड़ चुका था और उनमें से एक में भी उसे हार का मुंह नहीं देखना पड़ा था। आदिलशाह ने उसे ” विक्रमाजित ” का ख़िताब देकर अपना वजीर नियुक्त कर लिया था। शाह ने मुगलों को निकाल बाहर करने का दायित्व उसी को सौप था।
हेमू में आगरा पर अधिकार कर लिया और 50000 घुड़सवारों , 5000 हाथियों का एक दस्ता तोपखाने के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा चला।
लेकिन बैरम खां ने इस स्थिति का सामना करने के लिए तत्परता से कदम उठाए। इससे पहले की हेमू दिल्ली में अपनी स्थिति मजबूत कर सकता , बैरम की सेना ने दिल्ली सेना की और कूच कर दिया है।
मुगल और हेमू के नेतृत्व में अफगान सेना के बीच फिर पानीपत के मैदान में भिड़ंत हुई। ( 5 नवंबर 1556 ई ) लड़ाई का रुख हेमू के पक्ष में था। तभी हेमू की आंख में एक तीर लगा और वह मूर्छित हो गया। नेतृत्वविहीन अफगान सेना पराजित हुई। हेमू को बंदी बनाकर मार डाला गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
आरंभिक दौर अमीरों के साथ संघर्ष ( 1556 – 67 ईस्वी )
बैरम खां लगभग 4 वर्षों तक साम्राज्य का सूत्रधार बना रहा। इस दौरान उसने अमीरों को पूरे तौर पर नियंत्रण में रखा। कबूल पर आए खतरे को टाल दिया गया और साम्राज्य की सीमाओं को काबुल से लेकर पूर्व में जौनपुर और पश्चिम में अजमेर तक पहुंचा दिया गया। ग्वालियर पर अधिकार कर लिया गया और रणथंभौर तथा मालवा को जीतने के लिए पूरा जोर लगा दिया गया।
सर्वोच्च सत्ता का उपभोग करते हुए बैरम खां ने बहुत – से शक्तिशाली व्यक्तियों को नाराज कर लिया था। उसके खिलाफ शिकायत की गई की बैरम खां शिया है और पुराने सरदारों की उपेक्षा करके अपने समर्थकों और शियाओं को ऊंचे ओहदों पर बैठा रहा है।
छोटी-छोटी बातों पर अकबर के साथ उसका मतभेद हो जाता था। जिससे बादशाह को लगने लगा कि राज – काज को दूसरे के हाथों में और ज्यादा रहने देना ठीक नहीं है।
अकबर ने बहुत चतुराई से काम लिया। शिकार के बहाने वह आगरा से रवाना हो गया और दिल्ली पहुंच गया। दिल्ली से एक फरमान जारी करके उसने बैरम खां को वकील के पद से बर्खास्त कर दिया और सभी सरदारों को व्यक्तिगत रूप से दिल्ली आकर अपनी – अपनी वफादारी का इजहार करने की हिदायत दी।
बैरम खां को बादशाह को सत्ता सौंपने पर कोई एतराज नहीं था , लेकिन उसके दुश्मन तो उसे बर्बाद करने पर तुले हुए थे। वे उसका अपमान पर अपमान किया जा रहे थे जिससे मजबूर होकर अंत में उसने विद्रोह कर दिया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
अंत में बैरम खां को आत्म समर्पण करने पर मजबूर होना पड़ा। अकबर ने बहुत सौहार्द के साथ उसका स्वागत किया और उसके सामने दरबार में या दरबार से बाहर कहीं भी साम्राज्य की सेवा करने अथवा हज के लिए मक्का चले जाने का विकल्प रखा। बैरम खान दूसरे विकल्प को चुना।
लेकिन जब वह मक्का जा रहा था तभी अहमदाबाद के निकट पाटन नामक स्थान में एक अफगान ने , जिसकी उससे रंजिश थी , उसे मार डाला।
बैरम की पत्नी और उसका एक छोटा बच्चा अकबर के सामने आगरा लाए गए। बैरम खां की विधवा रिश्ते में उसकी बहन थी जिससे उसने विवाह कर लिया था और बच्चे को अपने बेटे की तरह पाला। यही बालक आगे चलकर अब्दुर्रहीम खान – ए – खानन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अकबर को पालने वाली माता माहम अनगा का बेटा आदम खां उतावले किस्म का विवेकशून्य युवक था। उसे मालवा पर आक्रमण करने वाली सेना की कमान देकर वहां भेजा गया तो वह स्वतंत्र व्यक्ति की तरह व्यवहार करने लगा।
इस पर उसके हाथ से कमान छीन ली गई तो उसने वजीर के पद की मांग की। जब यह मांग मंजूर नहीं की गई तो उसने वजीर को उसके दफ्तर में ही छुरा घोंप दिया। अकबर आगबबूला हो उठा और उसने उसे किले के कंगूरे से नीचे फेंकवा दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई ( 1561 ई )। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
उजबेक पूर्वी उत्तर प्रदेश , बिहार और मालवा में कई महत्वपूर्ण पदों पर आसीन थे और वे युवा बादशाह की अनसुनी कर रहे थे। 1561 ई और 1567 ई के बीच वे कई बार विद्रोह कर बैठे और अकबर को उनके खिलाफ मैदान में उतरना पड़ा। हर बार अकबर को उन्हें माफ करने पर राजी कर लिया गया। लेकिन जब फिर 1565 ईस्वी में उन्होंने विद्रोह कर दिया तो अकबर ने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक उन्हें जड़ से नहीं उखाड़ फेंकेगा , अपनी राजधानी जौनपुर में ही रखेगा।
मिर्जा हकीम नमक अकबर का एक सौतेला भाई , जिसने काबुल पर अधिकार कर लिया था , पंजाब में घुस आया और उसने लाहौर पर घेरा डाल दिया। उजबेक विद्रोहियों ने बजाब्ता उसे अपने बादशाह घोषित कर दिया।
अकबर ने जौनपुर से लाहौर के लिए कूच किया और मिर्जा हकीम को वहां से भागना पड़ा। इस बीच मिर्जाओं के विद्रोह को कुचल दिया गया।
अकबर लाहौर से जौनपुर लौट आया। जब बरसात के मौसम में यमुना नदी उफ़न रही थी , ऐसे समय में इलाहाबाद के निकट उसे पार करके उजबेक विद्रोहियों को उसने भौचक्का कर दिया और उन्हें पूरी तरह कुचल डाला ( 1567 ई )। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
साम्राज्य का प्रारंभिक विस्तार ( 1556 ईस्वी – 76 ईस्वी )
बैरम खां के अभिभावकत्व के समय अजमेर के अलावा उस दौर में सबसे महत्वपूर्ण जीत मालवा थी।
उन दिनों मालवा का शासक युवा बाजबहादुर था। उसके विभिन्न गुणों में उसकी संगीत प्रवीणता और काव्य पटुता भी शामिल थी। अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध रूपमती के साथ बाजबहादुर की प्रेम कथाएं लोकविदित हैं। उसके शासनकाल में मांडू संगीत का एक विख्यात केंद्र बन गया था।
मालवा पर किए गए आक्रमण का नेतृत्व अकबर को पालने वाली उसकी माता महाम अनगा के बेटे आदम खां ने किया था। बाज बहादुर बुरी तरह पराजित हुआ ( 1561 ई ) और लूट का भरपूर माल मुगलों के हाथ लगा। इसमें रूपमती भी शामिल थी जिसने आदम खां के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना बेहतर समझा।
आदम खां और मालवा में प्रतिक्रिया हुई और बाज हादुर ने अपना खोया हुआ राज्य पानें में कामयाबी हासिल की।
अकबर ने मालवा के खिलाफ दूसरी बार सेना भेजी। बाजबहादुर को मालवा छोड़कर भागना पड़ा और कुछ समय तक वह मेवाड़ के राणा की शरण में रहा। आखिर वह अकबर के दरबार में पहुंच गया और बादशाह ने उसे मनसबदार बना लिया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
लगभग उसी समय मुगल सेना ने गढ़ काटंगा राज्य को रौंद डाला। इस राज्य में नर्मदा घाटी और आधुनिक मध्य प्रदेश का उत्तरी हिस्सा शामिल था। इन दोनों प्रदेशों को एक करने का श्रय अमनदास को था जिसका जीवनकाल 15वीं सदी के उत्तरार्ध में पड़ता है।
अमनदास ने रायसेन को जीतने में गुजरात के बहादुरशाह की मदद की थी जिसने उसे ” संग्रामशाह ” का खिताब दिया था।
गढ़ – काटंगा राज्य में गोंड और राजपूत सरदारों के कई छोटे-छोटे इलाके भी शामिल थे।
संग्रामशाह ने महोबा के प्रसिद्ध चंदेल राजघराने की एक राजकुमारी से अपने एक बेटे का विवाह करके अपनी स्थिति और भी सुदृढ़ कर ली। उसकी यह पत्नी और कोई नहीं , इतिहास की प्रसिद्ध रानी दुर्गावती थी।
रानी को शीघ्र ही वैधव्य का दुर्भाग्य झेलना पड़ा। उसने अपने नाबालिक बेटे को गद्दी पर बैठा दिया और बहुत ही ओज और उत्साह से राज करने लगी। वह बहुत अच्छी निशानेबाज थी – धनुष बाण और बंदूक – दोनों हथियारों के मामले में।
वह शिकार की शौकीन थी और एक समकालीन विवरण के अनुसार उसका यह दस्तूर था कि जब कभी उसे कहीं किसी शेर के दिखाई देने की खबर लगती थी तो जब तक वह उसे मार नहीं लेती थी तब तक पानी भी नहीं पीती थी। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
रानी की बेशुमार दौलत और अतुलित सौंदर्य की कहानियां सुनकर इलाहाबाद के सूबेदार आसफ खां का लोभ जाग उठा। वह बुंदेलखंड की ओर से 10000 घुड़सवारों को लेकर बढ़ चला।
दुर्गावती ने आसफ खां की सेना से जम कर लोहा लिया। घायल हो जाने के बाद भी वह बहादुरी से लड़ती रही। जब उसे लगने लगा कि उसकी हार निश्चित है और उस पर बंदी बनाए जाने खतरा है तो उसने खुद को छुरा घोपकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। उसके बाद आसफ खां ने आधुनिक जबलपुर के निकट रानी की राजधानी चौरागढ़ पर अधिकार कर लिया।
अबुल फजल कहता है , ” लूट में इतने जवाहरात , सोना और चांदी तथा दूसरी मूल्यवान वस्तुएं मिली कि उनके एक अंश का भी हिसाब लगाना असंभव है। लूट के इस सारे माल से आसफ खां ने दरबार को सिर्फ 200 हाथी भेजें और बाकी सब अपने पास रख लिया “। रानी की छोटी बहन कमला देवी को भी दरबार में भेज दिया गया।
उजबेक विद्रोहियों से निपटने के बाद अकबर ने आसफ खां को गैर – कानूनी तौर पर हथियाई गई यह बेशुमार दौलत अपने हवाले कर देने को मजबूर कर दिया। उसने मालवा की सीमा पर स्थित 10 दुर्ग लेकर गढ़ – कांटगा संग्राम शाह के छोटे बेटे चंद्रशाह को लौटा दिया।
राजपूत राज्यों की विजय के सिलसिले में उसका एक महत्वपूर्ण कदम चित्तौड़ पर किया गया आक्रमण था। इस अभेद्य दुर्ग को मध्य राजस्थान पर अधिकार करने की कुंजी माना जाता था।
आगरा से गुजरात पहुंचने वाला सबसे छोटा रास्ता चित्तौड़ होकर ही गुजरता था। अकबर को लगा कि चित्तौड़ को जीते बिना वह अन्य राजपूत शासको को अपनी प्रभुता स्वीकार करने को प्रेरित नहीं कर सकता था। 6 महीनों की जबरदस्त घेरेबंदी के बाद चित्तौड़ पराजित हो गया ( 1568 ई )। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
अपने सरदारों के सुझाव पर किले को प्रसिद्ध योद्धा जयमल और पन्ना के जिम्मे छोड़कर राणा उदयसिंह पहाड़ियों में जा बैठा था। आसपास के इलाकों से बहुत से किसानों ने भी किले में पनाह ली थी और उसकी रक्षा में सक्रिय योगदान दिया था।
जब मुगलों ने किले में प्रवेश किया तो इन किसानों और राजपूत योद्धाओं का कत्लेआम मचा दिया गया। अकबर के शासनकाल में इस तरह का यह पहला और अंतिम नरसंहार था।
शूरवीर जयमल और पन्ना के सम्मान में अकबर ने आगरा के किले के मुख्य द्वार पर हाथी पर सवार इन दोनों की पत्थर की मूर्तियां स्थापित करने का आदेश दिया।
चित्तौड़ के पतन के बाद रणथंभौर को जीत गया जो राजस्थान के सबसे शक्तिशाली दुर्गा के रूप में प्रसिद्ध था। इन जीतों के फलस्वरुप बीकानेर और जैसलमेर सहित अधिकांश राजपूत राज्यों के राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। केवल मेवाड़ प्रतिरोध करता रहा।
गुजरात की धरती की उर्वरता , इसके अति उन्नत शिल्प तथा बाहरी दुनिया के साथ आयात – निर्यात व्यापार के केंद्र के रूप में इसका महत्व – ये तमाम बातें ऐसी थी जिनके कारण गुजरात पर अधिकार करने के लिए युद्ध का सहारा लेना कोई घाटे का सौदा नहीं था। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
हुमायूं ने कुछ समय तक गुजरात पर राज किया था , इस आधार पर भी अकबर उस पर अपना दावा करता था। एक और कारण यह था कि दिल्ली के निकट अपने विद्रोह में विफल होकर मिर्जा लोगों ने गुजरात में ही शरण ली थी।
अकबर को यह मंजूर नहीं था कि इतना समृद्ध प्रदेश प्रतिद्वंदी शक्ति का केंद्र बन जाए। 1572 ईस्वी में अकबर अजमेर के रास्ते पहुंचकर अहमदाबाद पर चढ़ बैठा। अहमदाबाद ने बिना युद्ध के आत्मसमर्पण कर दिया।
कांबे में अकबर ने पहली बार समुद्र देखा और नाव पर सवार होकर उसकी लहरों का मजा लिया। पुर्तगाली व्यापारियों की एक मंडली ने भी वहां आकर पहली बार उससे मुलाकात की।
जब अकबर की सेना सूरत पर घेरा डाले हुए थी , स्वयं उसने 200 लोगों की एक छोटी – सी टुकड़ी लेकर , जिसमें आंबेर के मानसिंह और भगवान दास भी शामिल थे , माही नदी पार की और मिर्जाओं पर हल्ला बोल दिया। अकबर की जिंदगी खतरे में पड़ गई , लेकिन उसके हमले की दुर्दातता के सामने मिर्जाओं के पैर उखड़ गए। इस प्रकार गुजरात पर मुगलों का नियंत्रण स्थापित हो गया।
अकबर के पीठ फेरते ही पूरे गुजरात में विद्रोहों का सिलसिला शुरू हो गया। यह समाचार पाकर अकबर आगरा से चल पड़ा और सिर्फ नौ दिनों में राजस्थान को लाँघ गया। ग्यारहवें दिन वह अहमदाबाद पहुंच गया। आमतौर पर 6 हफ्ते लगने वाली इस यात्रा में केवल 3000 सिपाही अकबर के साथ दे पाए। इतने में सिपाहियों से उसने 20000 की शत्रु सेना को परास्त कर दिया। (1573 ई ) मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
बंगाल और बिहार में अफ़गानों का बोलबाला था। लेकिन अकबर को नाराज न करने के ख्याल से अफगान शासक ने अपने को विधिवत राजा घोषित नहीं किया था।
अफ़गानों की आंतरिक कलह और नए शासक दाऊद खां द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से अकबर को वह मौका मिल गया उसकी ताक में वह बैठा था। यदि अकबर पूरे तौर पर सावधान नहीं होता और अफ़गानों के पास सुयोग्य नेता होता तो हुमायूँ और शेरशाह वाली दास्तान फिर से दुहराई जा सकती थी।
अकबर ने सबसे पहले पटना पर अधिकार करके बिहार में मुगल संचार को सुरक्षित कर दिया। उसके बाद खान – ए – खानन मुनेम खां नमक एक अनुभवी सेनापति को अभियान की जिम्मेदारी सौंप कर अकबर खुद आगरा लौट आया।
मुगल सेना ने बंगाल पर आक्रमण किया और घमासान लड़ाई के बाद दाऊद खां को शांति की याचना करने पर विवश होना पड़ा। उसके कुछ ही दिन बाद उसने फिर विद्रोह कर दिया। 1576 ईस्वी में बिहार में एक जबरदस्त लड़ाई में दाऊद खां पराजित हो गया और उसे वही मार दिया गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
प्रशासन
शेरशाह ने एक प्रणाली आरंभ की थी जिसके तहत जोते – बोए गए क्षेत्रों की पैमाइश करवाकर उनकी एक केंद्रीय अनुसूची ‘ रे ‘ तैयार करवाई जाती थी जिसमें जमीन के उपजाऊपन के आधार पर किसानों की फसलवार देनदारियां तय कर दी जाती थी। इस अनुसूची को हर साल कीमतों की केंद्रीय अनुसूची में तब्दील कर दिया जाता था।
अकबर ने शेरशाह की प्रणाली को अपनाया , लेकिन शीघ्र ही उसे पता चल गया कि कीमतों की केंद्रीय अनुसूची तय करने में बहुत देर लगती है और उससे किसानों को बहुत नुकसान होता है।
उपज को नगद रकमों में तब्दील करने के लिए जिन कीमतों को पैमाना बनाया जाता था वे आमतौर पर शाही दरबार में प्रचलित कीमते होती थी जो संभावत: ग्रामीण इलाकों की कीमतों से ज्यादा होती थी।
मगर किसान को तो अपनी फसलें ग्रामीण इलाकों की कीमतों पर बेचनी पड़ती थी , इसलिए उन्हें अपनी निर्धारित उपज से अधिक हिस्से से हाथ धोना पड़ता था।
अकबर ने वार्षिक राजस्व निर्धारण की प्रणाली फिर से आरंभ कर दी। कानूनगो लोगों को , जो जमीन के वंशानुगत जोतदार और साथ ही स्थानीय परिस्थितियों से भली – भांति अवगत स्थानीय अमले भी हुआ करते थे , आदेश दिया कि वे वास्तविक उपज , खेती की हालत , स्थानीय कीमतों आदि के बारे में जानकारी भेजें।
लेकिन बहुत से इलाकों में कानूनगो बेईमान होते थे और वास्तविक उपज को छिपा लेते थे। वार्षिक राजस्व निर्धारण से किसानों और राज्य को भी बहुत कठिनाई होती थी। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
गुजरात से लौटने ( 1573 ई ) के बाद अकबर ने भूराजस्व व्यवस्था की ओर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना आरंभ किया। पूरे उत्तर भारत में करोरी नाम से जाने जानेवाले अमले भर्ती किए गए। उनमें से प्रत्येक को एक करोड़ ‘ दाम ‘ ( 250000 ) वसूल करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। साथ ही वे कानूनगोओं द्वारा भेजे गए तथ्य एवं आंकड़ों की भी जांच करते थे।
वास्तविक उपज , स्थानीय कीमतों , उत्पादकता आदि के बारे में कानूनगो से प्राप्त जानकारी के आधार पर अकबर ने एक नई प्रणाली शुरू की ( 1580 ई ) जिसे दहसाला ( दससाला ) कहते थे। इस प्रणाली के तहत पिछले 10 साल के दौरान अलग-अलग फसलों की औसत उपजों और उनकी औसत कीमतों का हिसाब लगाया गया। औसत उपज का एक तिहाई भाग राज्य का हिस्सा तय किया गया।
लेकिन राजस्व की मांग नगद की शक्ल में सामने रखी गई। यह काम पिछले 10 सालों की औसत कीमतों की अनुसूची के आधार पर उपज में राज्य के हिस्से को नगद में तब्दील करके किया गया।
इस प्रकार राज्य के हिस्से में पड़ने वाली एक बीघा जमीन की उपज ‘ मन ‘ में बताई गई , लेकिन औसत कीमतों के आधार पर राज्य का हिस्सा प्रति बीघा रूपयों में तय किया गया। बाद में इसमें और भी सुधार किया गया।
इस प्रणाली के कई लाभ थे। जिस समय लोहे की कड़ियों से जुड़े बांस के ‘ लग्गों ‘ से बोए गए रकबे को नापा जाता था , उसी समय किसानों तथा राज्य – दोनों को मालूम हो जाता था कि राजस्व कितना होगा। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
यदि सूखे , बाढ़ आदि के कारण फसलें नष्ट हो जाती थी तो किसान को भूराजस्व में छूट दी जाती थी। पैमाइश की इस प्रणाली और इस पर आधारित राजस्व निर्धारण को ‘ जब्ती ‘ कहा जाता था। अकबर ने इस प्रणाली को लाहौर से इलाहाबाद तक और मालवा तथा गुजरात में लागू किया। दहसाला प्रणाली जब्ती प्रणाली का और भी सुधार रूप था।
अकबर के अधीन राजस्व निर्धारण की और प्रणालियों का भी इस्तेमाल किया जाता था। सबसे आम और शायद सबसे पुरानी प्रणाली का नाम था ‘ बटाई ‘ या ‘ गल्ला – बक्शी ‘। इस प्रणाली में उपज निर्धारित अनुपात में किसानों और राज्य के बीच बाँट दी जाती थी। फसल दोनी के बाद या काटकर बोझा बांधने के बाद अथवा जब खेत में खड़ी होती थी उसी समय बाँट ली जाती थी।
कुछ परिस्थितियों में किसानों को जब्ती और बटाई के बीच चुनाव करने की छूट होती थी। उदाहरण के लिए , फसल बर्बाद हो जाने पर उसके सामने ये विकल्प रखे जाते थे।
कपास , तिलहनों , गन्ना आदि की फसलों के मामले में राज्य आमतौर पर नगद अदायगी चाहता था। इसलिए इन्हें ‘ नकदी फसल ‘ कहा जाता था।
अकबर के अधीन व्यापक रूप से प्रचलित एक तीसरी प्रणाली का नाम था ‘ नसक ‘। मालूम होता है , इसका मतलब किसान द्वारा अतीत में अदा किए जाने वाले राजस्व के आधार पर उसकी मौजूदा देनदारी के बारे में लगाया गया मोटा हिसाब होता था। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
जिस जमीन पर लगभग हर साल खेती की जाती थी उसे ‘ पोलज ‘ कहा जाता था। जब उसमें खेती नहीं की जाती थी तो उसे परती कहते थे। जब परती जमीन में खेती की जाती थी तब उस पर पूरा राजस्व देना पड़ता था। जो जमीन लगातार दो-तीन साल परती रहती थी उसे ‘ चाचर ‘ कहा जाता था और इससे ज्यादा समय तक परती रहने वाली जमीन को ‘ बंजर ‘ कहते थे।
इसके अलावा जमीन को उत्तम , मध्यम और निम्न कोटियों में भी विभाजित किया जाता था। राज्य का दवा एक तिहाई उपज पर होता था , लेकिन जमीन की उत्पादकता , राजस्व – निर्धारण की पद्धति आदि के अनुसार इससे फर्क भी पड़ता था।
कृषि के सुधार और विस्तार में अकबर की गहरी दिलचस्पी थी। उसने अमलों को किसानों से पितृवत व्यवहार करने को कहा। उसे जरूरत के वक्त किसानों को बीज, औजारों , पशुाओं आदि के लिए ऋण ( ताक्कावी ) देना था और आसान किस्तों में उसकी वसूली करनी थी।
जमीदारों को उपज में से एक हिस्सा लेने का मौरूसी ( वंशानुगत ) हक था। किसानों को भी अपनी जमीन जोतने का मौरूसी हक था और जब तक वे राजस्व अदा करते रहते थे तब तक उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता था।
दहसाला प्रणाली दहसाला बंदोबस्त नहीं थी और न वह स्थायी बंदोबस्त ही थी। राज्य को उसमें परिवर्तन करने का अधिकार था।
जब्ती प्रणाली का संबंध राजा टोडरमल से जोड़ा जाता है, और कभी-कभी उसे ‘ टोडरमली व्यवस्था ‘ भी कहा जाता है। टोडरमल एक मेधावी राजस्व अधिकारी था जिसने कुछ समय तक शेरशाह के अधीन भी काम किया था। परंतु वह अकबर के अधीन उभरने वाले कुशल राजस्व अधिकारियों में से एक था। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
मनसबदारी पद्धति और सेना
साम्राज्य का विस्तार और उसे पर नियंत्रण स्थापित रखने के लिए अपने अधिकारियों के वर्ग और सेना को संगठित करना उसके लिए जरूरी था। अकबर ने मनसबदारी पद्धति के द्वारा इन दोनों लक्ष्यों को सिद्ध किया। इस पद्धति के अधीन प्रत्येक अधिकारी को एक ‘ दर्जा ‘ या ‘ मनसब ‘ दिया जाता था।
सबसे निचला दर्ज 10 का था और सबसे ऊपर का दर्जा 500 का था , जो सरदारों ( अमीरों ) के वर्ग के लिए था। शाही घराने के लोगों को इससे ऊँचा मनसब दिया जाता था।
अकबर के शासनकाल के अंतिम दौर में पाँच हजारी मनसब को बढ़ाकर सात हजारी बना दिया गया , और मिर्जा अजीज कोका तथा राजा मानसिंह – इन दो सरदारों को इस उच्चतम मनसब से सम्मानित किया गया।
ये दर्जे मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त हुआ करते थे – ‘ जात ‘ और ‘ सवार ‘। ‘ जात ‘ का मतलब था ‘ व्यक्तिगत ‘। ‘ जात ‘ से व्यक्ति का व्यक्तिगत दर्जा निर्धारित होता था और वेतन भी तय होता था। ‘ सवार ‘ दर्जा सूचित करता था कि उससे कितने सवार रखना अपेक्षित था।
जिस व्यक्ति से अपने ‘ जात ‘ या व्यक्तिगत दर्जे के अनुरूप सवार रखने की अपेक्षा की जाती थी उसे पहले दर्जे की पहली कोटि में रखा जाता था। जिससे आधे सवार रखना अपेक्षित हुआ करता था उसे दूसरी कोटि में और जिससे उससे भी कम सवार रखना अपेक्षित होता था उसे तीसरी कोटि में रखा जाता था। इस प्रकार हर मनसब की तीन कोटियाँ हुआ करती थी। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
सिपाहियों की एक विवरणिका ( चेहरा ) रखी जाती थी और उसके घोड़े को शाही निशान से दाग दिया जाता था। इसे ‘ दाग प्रणाली ‘ कहते थे।
आदर्श स्थिति यह थी कि हर 10 घुड़सवारों के लिए मनसबदार 20 घोड़े रख सकता था। यह इसलिए जरूरी था कि कूच के दौरान घोड़े बदलने पड़ते थे। ऐसा लड़ाई में भी करना पड़ता था। केवल एक घोड़े वाले सवार को आधा सवार माना जाता था। जब तक 10 : 20 के अनुपात के नियम का पालन किया जाता रहा , मुगल अश्वारोही सेना प्रभावकारी बनी रही।
ऐसी व्यवस्था की गई कि हर अमीर या सरदार की टुकड़ी में मुगल , पठान , हिंदुस्तानी और राजपूत – चारों जातियों के सवार हो। मुगल और राजपूत सरदारों को केवल मुगल या राजपूत सैनिकों की टुकड़ियां रखने की सुविधा दी गई , लेकिन बाद में मिश्रित टुकड़ी का आम नियम बन गया।
सावर का औसत वेतन 20 रुपए माहवारी था। ईरानियन और तूरानियों को कुछ ज्यादा दिया जाता था। पैदल सैनिक को मासिक 3 रुपए मिलते थे। सैनिक को देय वेतन की राशि मनसबदार के व्यक्तिगत वेतन में जोड़ दी जाती थी। मानसबदारों को नगद के बदले जागीरें दे दी जाती थी। कभी-कभी उन्हें नगद वेतन भी दिया जाता था।
जागीर जागीरदार को कोई वंशानुगत अधिकार प्रदान नहीं करती थी और संबंधित क्षेत्र में मौजूद अलग-अलग वर्गों के अधिकारों में दखल नहीं देती थी , इसलिए उसका मतलब सिर्फ यह था कि जो भूराजस्व राज्य को अदा किया जाना था वह जागीरदार के पास चला जाता था। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
मनसबदारी प्रथा का मूल चंगेज खान की व्यवस्था में देखा जा सकता है जिसने अपनी सेना का संगठन दाशमिक प्रणाली के आधार पर किया था। कमान की सबसे छोटी इकाई 10 की हुआ करती थी और सबसे बड़ी ‘ तोमान ‘ दस हजार की जिसके सेनापति को ‘ खान ‘ कहा जाता था।
सल्तनत काल में हमें क्रमशः सौ और हजार के नायक के बारे में सुनने को मिलता है। सौ सिपाहियों का नायक ‘ सादी ‘ और हजार का ‘ हजारा ‘ कहलाता था।
मनसबदारी प्रथा कब आरंभ हुई , इस संबंध में काफी विवाद है। परंतु वर्तमान खोजें बताती हैं कि जात और सवार की दोहरी व्यवस्था शासन के 40 वे वर्ष ( 1595 – 96 ) में लागू की गई थी।
500 जात से नीचे के दर्जे वाले लोग मनसबदार, 500 से लेकर 2500 तक की जात वाले लोग अमीर और 2500 से ऊपर की जात वाले लोग ‘ अमीर – ए – उम्दा ‘ या ‘ उम्दा – ए – आज़म ‘ कहलाते थे। लेकिन कभी-कभी मनसबदार शब्द का प्रयोग तीनों दर्जों के लिए भी हुआ है।
‘ अमीर या अमीर – ए – उम्दा के अधीन दूसरा अमीर या मनसबदार काम कर सकता था, लेकिन मनसबदार के अधीन नहीं। इस प्रकार पाँच हजारी जात वाले व्यक्ति के अधीन 500 की जात वाला अमीर या मनसबदार काम कर सकता था और चार हजारी दर्जे वाले व्यक्ति के अधीन 400 तक की जात वाला मनसबदार काम कर सकता था। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
यह कोटियाँ कठोर नहीं थी। लोग आम तौर पर निम्न मनसब पर नियुक्त किए जाते थे और अपनी योग्यता या बादशाह की कृपा के बल पर धीरे-धीरे तरक्की करके ऊंचे मनसब प्राप्त कर सकते थे। सजा के तौर पर मनसबदार का दर्जा नीचे भी गिराया जा सकता था। इस प्रकार वस्तुतः सैनिक और असैनिक अधिकारियों का एक ही सेवा – संवर्ग था।
योग्य व्यक्ति के लिए सरकारी सेवा में तरक्की का रास्ता खुला हुआ था। मनसबदार से यह आशा की जाती थी कि अपनें वेतन में से वह निर्धारित संख्या में रखे जाने वाले घोड़ों , हाथियों और भारवाही पशुओं ( ऊंटों , खच्चरों , गाड़ियों आदि ) पर होने वाला खर्च भी पूरा करेगा।
घोड़े छः वर्गों में बांटे गए थे और हाथी पांच वर्गों में। इस वर्गीकरण का आधार उनकी खूबियाँ थी। अच्छी नस्लों के घोड़ों और हाथियों को बहुत महत्व दिया जाता था और उन्हें सैनिक तंत्र का अनिवार्य अंग माना जाता था।
मुगल मनसबदार विश्व में के सबसे अधिक वेतन पाने वाले सरकारी सेवा संवर्ग का सदस्य होता था। अकबर अपने पास भद्र सवारों का एक दल रखता था। ये कुलीन घरानों के ऐसे लोग होते थे , जिनके पास सैनिक टुकड़ी खड़ी करने के साधन नहीं थे या फिर उन्होंने बादशाह को प्रभावित कर लिया था।
यह दल केवल बादशाह के प्रति जिम्मेदार होता था। उनकी हाजिरी एक अलग अधिकारी लेता था। इन लोगों की तुलना मध्यकालीन यूरोप के नाइटों से की जा सकती है।
अकबर घोड़ों और हाथियों का बहुत शौकीन था। वह तोपखाने का एक शक्तिशाली दस्ता भी रखता था। तोपों के में उसकी खास दिलचस्पी थी। उसने ऐसी तोपें बनवाई जिनके हिस्सों को अलग करके उन्हें हाथियों या ऊंटों पर ढोया जा सकता था। बादशाह जब अपनी राजधानी से बाहर निकलता था , उसके साथ एक तोफखाना भी चलता था।
एक सशक्त नौसेना का अभाव हमेशा मुगल सेना की भारी कमजोरी बना रहा। अकबर ने युद्ध नौकाओं का एक मजबूत बेड़ा अवश्य बनाया बनवाया था जिसका बंगाल को जीतने के लिए उपयोग भी किया गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
सरकार का संगठन
स्थानीय शासन के संगठन में अकबर ने कोई परिवर्तन नहीं किया। सरकार के मुख्य अधिकारी फौजदार और अमलगुजार होते थे। फौजदार शांति – व्यवस्था के लिए जिम्मेदार होता था और अमलगुजार का काम भूराजस्व निर्धारित करना और उसे वसूल करना होता था।
साम्राज्य के प्रदेश जागीर ‘ खालिसा ‘ और ‘ इनाम ‘ में विभाजित थे। खालिसा गांवों की आमदनी सीधे शाही खजाने से में जाती थी। इनाम भूमि वह होती थी जो विद्वानों और धर्मतत्वों को आवंटित की जाती थी। जागीरें सरदारों और रानियों सहित शाही परिवारों के सदस्यों के बीच आवंटित होती थी।
अकबर ने केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के संगठन पर विशेष ध्यान दिया। उसकी केंद्रीय शासन प्रणाली दिल्ली सल्तनत के काल में विकसित शासन – संरचना पर ही आधारित थी , लेकिन विभिन्न विभागों के कार्यों को सावधानी के साथ पुनर्गठित किया गया और राज – काज के संचालन के लिए बारीकी से नियम बनाए गए।
मध्य एशियाई और तैमूरी परंपरा एक सर्वशक्तिमान वजीर रखने की थी जिसके अधीन विभिन्न विभागों के प्रधान काम करते थे। वह राजा और प्रशासन के बीच की मुख्य कड़ी होता था। व्यवहारतः सर्वशक्तिमान वजीर की अवधारणा का त्याग कर दिया गया था। तथापि वकील की हैसियत से बैरम खां सर्वशक्तिमान वजीर की ही सत्ता का उपभोग करता रहा था।
अकबर ने केंद्रीय प्रशासन तंत्र को विभिन्न विभागों के बीच सत्ता के विभाजन के सिद्धांत पर पुनर्गठित किया और विभागों के बीच पारस्परिक अंकुश और प्रति – संतुलन के उसूल को लागू किया। वकील के पद को समाप्त नहीं किया गया लेकिन उसकी सारी सत्ता खत्म कर दी गई और वह मुख्य रूप से सजावटी पद बन गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
राजस्व विभाग का प्रधान वजीर ही रहा परंतु आमतौर पर वह ऐसा व्यक्ति नहीं होता था जिसका सरदारों के बीच कोई खास ऊंचा स्थान होता हो। बहुत – से सरदारों के मनसब वजीर के मनसब से ऊंचे होते थे। अकबर इस पदाधिकारी को वजीर की बजाय आमतौर पर दीवान या दीवान – इ – आला कहा करता था। दीवान सभी आय – व्यय के लिए जिम्मेदार होता था और खालिसा जागीर और इनाम भूमि पर नियंत्रण रखता था।
सैनिक विभाग का प्रधान मीरबख्शी कहलाता था। सरदारों के संगठन का प्रधान दीवान नहीं बल्कि मीरबख्शी माना जाता था। इसलिए इस पद पर सिर्फ प्रमुख सरदारों को ही नियुक्त किया जाता था। मनसबों पर नियुक्ति या तरक्की के लिए सिफारिश मीरबख्शी के जरिए की जाती थी। राजा द्वारा सिफारिश स्वीकार कर लेने पर वह पुष्टि के लिए दीवान के पास भेजी जाती थी जो नवनियुक्ति मनसबदार के नाम जागीर भी आवंटित करता था।
साम्राज्य की खुफिया और सूचना एजेंसियों का प्रधान भी मीरबख्शी ही होता था। खुफिया अधिकारी ( बरीद ) और सूचना अधिकारी ( वाक़ियानवीस ) साम्राज्य के सभी हिस्सों में तैनात किए जाते थे। मीरबख्शी उनकी रिपोर्ट दरबार के सम्राट के समक्ष पेश करता था। इस तरह देखा जा सकता है कि दीवान और मीरबख्शी लगभग एक – दूसरे के समकक्ष होते थे और एक – दूसरे पर अंकुश रखने का काम करते थे।
तीसरा महत्वपूर्ण पदाधिकारी मीर सामान होता था। वह सम्राट की गृहस्थी का प्रबंध करने वाला प्रधान अधिकारी होता था। जिन सरदारों पर सम्राट को पूर्ण विश्वास होता था वही इस पद पर नियुक्त किए जाते थे। राजदरबार में शिष्टाचार का पालन , शाही अंगरक्षकों का नियंत्रण आदि इसी अधिकारी की सामान्य देख-रेख में हुआ करते थे। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
न्याय विभाग चौथ महत्वपूर्ण विभाग था। इसका प्रधान आला काजी होता था। कभी-कभी एक ही व्यक्ति को आला काजी और आला सदर – इन दोनों पदों पर नियुक्त किया जाता था। आला सदर सभी धमार्थ अनुदानों के लिए जिम्मेदार होता था। अकबर के आला काजी अब्दुन्नबी के भ्रष्टाचार और धन – लोलुपता के कारण यह पद काफी बदनाम हो गया था।
अकबर ने इनाम की भूमि को जागीर और खालिसा भूमि से अलग कर दिया और इनाम की जमीनों के दान और उनके प्रबंध के लिए साम्राज्य को छह हलकों में बांट दिया गया।
इनाम भूमि के दानों की दो विशेषताएं उल्लेखनीय है। एक तो यह कि अकबर ने अपनी यह सुनिश्चित नीति बना ली थी कि इनाम भूमि सभी सुपात्रों को दी जाए, चाहे वे किसी भी धर्म के हो। दूसरे , अकबर ने यह नियम बना दिया था कि इनाम भूमि में आधी ऐसी परती जमीन होगी जो खेती-बाड़ी के लायक हो।
1580 ईस्वी में अकबर ने अपने साम्राज्य को 12 सूबों में बांट दिया था। ये थे – बंगाल , बिहार , इलाहाबाद , अवध , आगरा , दिल्ली , लाहौर , मुल्तान , काबुल , अजमेर , मालवा और गुजरात। हर सूबे में एक – एक सूबेदार , दीवान बख्शी , सदर , काजी और वाकिया नवीस नियुक्त कर दिया गया था। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
राजपूतों से संबंध
जमाल खां मेवाती के हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर लेने पर बादशाह ने उसकी एक सुंदर कन्या से स्वयं विवाह कर लिया और उसकी छोटी बहन की शादी बैरम खां से करवा दी। कालांतर में अकबर ने इस नीति का विस्तार किया।
अकबर के गद्दी पर बैठते ही आमेर का राजा भारमल उसके दरबार में आया था। बादशाह के मन पर उसके व्यक्तित्व की बहुत अच्छी छाप पड़ी थी। क्योंकि जब एक पागल हाथी के भय से लोग इधर-उधर भाग रहे थे , उस समय भारमल की अगुवाई में राजपूत दृढ़ता के साथ वहां डटे रहे।
1562 ईस्वी में जब अकबर अजमेर जा रहा था , तो भारमल ने व्यक्तिगत रूप से अकबर से मिलकर उसके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया और अपनी छोटी लड़की हरखाबाई का विवाह अकबर से करके उसके साथ अपनी संधि को पुख्ता किया।
मुसलमान शासको और हिंदू राजाओं की बेटियों के बीच विवाह कोई असामान्य बात नहीं थी। जोधपुर के शक्तिशाली राजा मालदेव ने अपनी बेटी बाई कनका का विवाह गुजरात के सुल्तान महमूद के साथ लालबाई का विवाह सूर बादशाह इस्लाम शाह से कर दिया था।
खुद भारमल ने अपनी बड़ी लड़की का विवाह हाजी खां कचान से कर दिया था जो इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद अलवर का वास्तविक शासक बन बैठा था। जिन लड़कियों का इस तरह विवाह कर दिया जाता था वे आम तौर पर अपनी ससुराल की ही होकर रह जाती थी और कभी मायके नहीं लौटती थी।
अकबर ने इससे कुछ भिन्न नीति अपनाई। उसने अपनी हिंदू पत्नियों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता दी और उनके माता-पिताओं और सगे – संबंधियों को सरदारों की जमात में सम्मानजनक स्थान दिया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
भारमल का एक बड़ा सरदार बना दिया गया। उसका बेटा भगवान दास पांच हजारी दर्जे तक पहुंच गया था और पोते मानसिंह को तो अकबर ने सबसे ऊंचा सात हजारी दर्जा दे दिया था। यह दर्जा अकबर ने केवल एक और सरदार को दिया था। वह था अजीत खां कूका जो उसका दूध भाई था।
शिशु शहजादा दानियाल को आमेर भेज दिया गया ताकि भारमल की पत्नियां उसका लालन – पालन करें। जब 1572 ईस्वी में अकबर ने जल्दबाजी में गुजरात के लिए कूच किया तो भारमल को आगरा की जिम्मेदारी सौंप गया।
अकबर ने मैत्री संबंध की शर्त के तौर पर वैवाहिक संबंधों पर जोर नहीं दिया। रणथंभौर के हाड़ाओं के साथ उसका कोई वैवाहिक संबंध नहीं था , फिर भी अकबर सदा उसका सम्मान करता था। इसी प्रकार बाद में अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाले सिरोही और बांसवाड़ा के राजाओं के साथ उसने कोई रिश्तेदारी कायम नहीं की।
1564 ईस्वी में अकबर ने जजिया कर उठा लिया। अकबर ने तीर्थ कर इससे पहले ही समाप्त कर दिया था। इसी प्रकार युद्ध बंदियों को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने के चलन को भी समाप्त कर दिया गया था।
जैसलमेर और बीकानेर के राजाओं ने भी अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित किए थे। एकमात्र राज्य जो मुगल प्रभुता स्वीकार न करने पर अड़ा हुआ था , वह था – मेवाड़। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
1572 ईस्वी में राणा उदय सिंह का बेटा राणा प्रताप गद्दी पर बैठा। अकबर ने एक – के – बाद – एक कई दूतमंडल भेजकर राणा को इस बात पर राजी करने की कोशिश की कि वह मुगल प्रभुता को स्वीकार कर ले। इन दूतमंडलों में से एक का नेता स्वयं मानसिंह था।
राणा ने सभी दूतमंडलों का पूरा स्वागत – सत्कार किया। मानसिंह के बाद एक दूतमंडल भगवान दास के नेतृत्व में और एक राजा टोडरमल की अगुआई में भेजा गया। एक समय तो लगने लगा था कि राणा समझौते के लिए तैयार हो गया है।
अकबर ने उसे जो शाही पोशाक भेजी थी उसे उसने धारण कर लिया था और अपने बेटे अमर सिंह को अकबर के प्रति व्यक्तिगत रूप से सम्मान व्यक्त करने और उसकी सेवा स्वीकार कर लेने के लिए भगवान दास के साथ दरबार में भेज दिया था।
लेकिन अंतिम समझौता नहीं हो पाया क्योंकि स्वाभिमानी राणा अकबर का यह आग्रह स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर शहंशाह के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करें।
1576 ई के आरंभ में अकबर अजमेर पहुंचा और मानसिंह को 5000 की एक फौज लेकर राणा पर आक्रमण करने का काम सौंपा गया। राणा की तत्कालीन राजधानी कुंभलगढ़ तक जाने वाले रास्ते पर पड़ने वाली तंग घाटी में , जो कि हल्दीघाटी के नाम से जानी जाती थी , दोनों पक्षों के बीच घमासान लड़ाई हुई। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
राजपूत योद्धाओं के अलावा राणा की सेना के अग्रभाग का नेतृत्व अफगानों की एक टुकड़ी के साथ हकीम खां सूर कर रहा था। इस प्रकार हल्दीघाटी की लड़ाई हिंदूओं और मुसलमानों या भारतीयों और विदेशियों के बीच की लड़ाई नहीं थी।
भीलों से राणा ने अच्छा मैत्री – संबंध स्थापित कर लिया था , सो उसकी इस सेना में भीलों की भी एक छोटी – सी टुकड़ी शामिल थी। राजपूतों और अफगानों ने जो धावा बोला तो मुगल सेना बिखर गई। लेकिन तभी यह अफवाह फैल गई की अकबर स्वयं वहां पहुंच गया है। इससे मुगल सेना संभल गई।
मुगल कुमुक के पहुंचने पर युद्ध का रुख पलट गया और राजपूतों के पैर उखड़ने लगे। यह देखकर राणा बचकर भाग निकला। यह राणा की मुगलों के साथ आमने-सामने की आखिरी मुठभेड़ थी। आगे उसने छापामार युद्ध का सहारा लिया।
बंगाल और बिहार में अकबर द्वारा किए गए कुछ सुधारो के खिलाफ 1579 ईस्वी में विद्रोह भड़क उठा। 1585 ईस्वी में अकबर ने उत्तर पश्चिम की खतरनाक स्थिति पर निगाह रखने के लिए पंजाब में डेरा डाल दिया। अगले 12 वर्षों तक वह वही रहा और राणा प्रताप के खिलाफ कोई मुगल सुना नहीं भेजी गई।
इस स्थिति का लाभ उठाकर राणा प्रताप ने अपने कई प्रदेशों पर फिर से कब्जा कर लिया जिनमें कुंभलगढ़ और चित्तौड़ के आसपास के इलाके भी शामिल थे। इस दौर में उसने आधुनिक डूंगरपुर के निकट ‘ चावंड ‘ में एक नई राजधानी बसाई। एक गहरा चुभा तीर निकालने में अंदर घाव लग जाने से 1597 ईस्वी में मात्र 51 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई।
मेवाड़ के अलावा अकबर को मारवाड़ में भी विद्रोह का सामना करना पड़ा। मालदेव की मृत्यु ( 1562 ईस्वी ) के बाद उसके बेटों के बीच उत्तराधिकार के लिए झगड़ा शुरू हो गया। मालदेंव का कनिष्ठ पुत्र चंद्रसेन , गद्दी पर बैठा। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
मुगलों के दबाव के कारण उसे अपने राज्य के कुछ हिस्से अपने बड़े भाइयों को जागीर के तौर पर देने पड़े। लेकिन चंद्रसेन को यह बात अच्छी नहीं लगी और कुछ समय बाद उसने विद्रोह कर दिया। इस पर अकबर ने मारवाड़ पर अपना प्रत्यक्ष प्रशासन स्थापित कर दिया।
जोधपुर पर कब्जा करने के बाद अकबर ने उसकी देख – रेख के लिए रायसिंह बीकानेरी को नियुक्त किया। परंतु चंद्रसेन छापामार लड़ाई की पद्धति अपना कर प्रतिरोध जारी रखा। आखिर 1581 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गई। एक-दो साल बाद अकबर ने जोधपुर का प्रशासन चंद्र सेन के बड़े भाई उदय सिंह को सौंप दिया।
अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उदय सिंह ने अपनी बेटी जगत गोसाई या जोधाबाई ( जिस नाम से उसे जाना जाता है ) का विवाह अकबर के ज्येष्ठ सलीम से कर दिया।
इस विवाह में इस तरह के पहले विवाहों की भांति सिर्फ लड़की का डोला नहीं उठा , बल्कि बारात राजा के घर गई जहां विवाह में कई हिन्दू विधि – विधानों को अपनाया गया।
बीकानेर और बूंदी के राजाओं से भी अकबर की नजदीकी संबंध थे। 1593 ईस्वी में जब राय सिंह बीकानेरी के दामाद की पालकी से गिरकर मृत्यु हो गई तो राजा से संवेदना प्रकट करने अकबर खुद ही उसके पास गया। राजा की बेटी सती होना चाहती थी , लेकिन अकबर ने उसे अपने छोटे-छोटे बच्चों के खातिर ऐसा न करने पर राजी कर लिया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
अकबर की राजपूत नीति मुगल साम्राज्य और राजपूतों – दोनों के लिए लाभदायक सिद्ध हुई। अकबर की राजपूत नीति को उसके उत्तराधिकारी जहांगीर और शाहजहां ने भी जारी रखा।
जहांगीर की मां एक राजपूत राजकुमारी थी और स्वयं जहांगीर ने भी कच्छवाहा कुल की एक कन्या और साथ ही जोधपुर की राजकुमारी से शादी की थी। जैसलमेर और बीकानेर की राजघरानों की राजकुमारियां भी उससे ब्याही हुई थी।
जहांगीर की मुख्य उपलब्धि यह थी कि उसने मेवाड़ के साथ चले आ रहे लंबे झगड़े को खत्म कर दिया। राणा प्रताप के बाद उसका बेटा अमर सिंह गद्दी पर बैठा। अकबर ने अमर सिंह से अपनी शर्ते मनवाने के लिए कई बार उसके खिलाफ सेना भेजी थी। दो अवसरों पर तो मुगल सेना का नेतृत्व स्वयं जहांगीर ने किया था , लेकिन उसे कोई कामयाबी हासिल नहीं हो पाई थी।
1605 ईस्वी में गद्दीनशीन होने के बाद जहांगीर ने एक के बाद एक करके तीन आक्रमण किए लेकिन इनसे राणा का संकल्प नहीं डिगा। शहजादे खुर्रम ( बाद में शाहजहां ) को मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों पर आक्रमण करने के लिए एक बड़ी सेना के साथ भेजा गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
मुगल सेना के भारी दबाव से बहुत से सरदार मुगलों से जा मिलें और बाकी ने राणा पर सुलह के लिए दबाव डाला। राणा के बेटे करण सिंह और जहांगीर के दरबार में भेजने का निश्चय किया गया।
राजकुमार दरबार में पहुंचा तो उसका सम्मान पूर्वक स्वागत किया गया। जहांगीर ने गद्दी से उठकर दरबार में उसे गले लगा लिया और उसे उपहारों से लाद दिया। राणा की प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए जहांगीर ने यह आग्रह छोड़ दिया कि वह स्वयं उसके समक्ष उपस्थित होकर उसके प्रति सम्मान का प्रदर्शन करें और उसकी सेवा में शामिल हो।
राजकुमार कारण को पांच हजारी मनसबदारी दी गई जो पहले जोधपुर , बीकानेर और आमेर के राजाओं को दी गई थी। उसे 1500 सवारों की टुकड़ी से मुगल शहंशाह की सेवा करनी थी। राणा के सारे प्रदेश जिनमे चित्तौड़ भी शामिल था उसे वापस दे दिए गए। परंतु चित्तौड़ के सामरिक महत्व को देखते हुए यह शर्त लगा दी गई कि उसके किले की मरम्मत नहीं करवाई जाएगी। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
विद्रोह तथा मुगल साम्राज्य का और विस्तार
बंगाल और बिहार के विद्रोह का मुख्य कारण जागीरदारों के घोड़ों को दागने की प्रणाली और उनकी आमदनी का कड़ा लेखा – जोखा था। काबुल के शासक और अकबर के पोषक भाई मिर्जा हकीम ने भी इस विद्रोह को शह दी। इस विद्रोह ने साम्राज्य को 2 साल ( 1580 ई – 81 ई ) तक अस्त – व्यस्त अवस्था में रखा।
स्थानीय अधिकारियों ने स्थिति से जिस गलत तरीके से निबटने की कोशिश की उसका नतीजा यह हुआ कि बंगाल और लगभग पूरा बिहार विद्रोहियों के हाथों में चला गया जिन्हेंने मिर्जा हकीम को अपना बादशाह घोषित कर दिया था। यहां तक की उन्होंने एक उलेमा से यह फतवा भी जारी करवा दिया कि सभी मुसलमान अकबर के खिलाफ मैदान में उतर जाए।
लेकिन अकबर परिस्थितियों से घबराए नहीं। अकबर ने राजा टोडरमल के नेतृत्व में एक सेना बंगाल और बिहार के खिलाफ भेजी और दूसरी राजा मानसिंह के सेनापतित्व में मिर्जा हकीम के विरुद्ध।
अकबर ने काबुल पर आक्रमण कर दिया ( 1581 ई )। यह पहला अवसर था जब किसी भारतीय शासक ने इस शहर में कदम रखा था। चूँकि मिर्जा हकीम ने अकबर की प्रभुता स्वीकार करने या व्यक्तिगत रूप से उसके प्रति अपनी अधीनता का प्रदर्शन करने के लिए उसके पास आने से इनकार कर दिया इसलिए अकबर काबुल की जिम्मेदारी अपनी बहन को सौंपकर भारत लौट आया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
एक स्त्री को राज्य सौंपना अकबर की विशाल ह्रदयता और उदारता का परिचायक था। अपनें विरोधियों पर अकबर की विजय न केवल उसकी व्यक्तिगत सफलता थी बल्कि उससे यह भी साबित हुआ कि नहीं प्रणाली की जड़े जम रही थी।
मुगलों का बैरी अब्दुल्ला खां उजबेक मध्य एशिया में धीरे – धीरे अपनी शक्ति बढ़ाता जा रहा था। 1584 ईस्वी में उसने बदखनशा को , जिस पर तैमूरियों का शासन था जीत लिया। उसका अगला लक्ष्य काबुल था। अकबर ने मानसिंह से काबुल पर आक्रमण करने को कहा और खुद ‘अटक ‘ की ओर चल पड़ा।
उजबेकों के सभी रास्तों को रोक देने के ख्याल से उसने कश्मीर के खिलाफ ( 1586 ई ) और बलूचिस्तान के विरुद्ध सेनाएं भेजी। लद्दाख तथा बल्टिस्तान ( जिन्हें तिब्बत खुर्द और तिब्बत बुजुर्ग कहा जाता था ) सहित पूरे कश्मीर पर मुगल प्रभुत्व स्थापित हो गया।
विद्रोहियों काबाइलियों ने खैबर दर्रे में रुकावट डाल रखी थी। उन पर भी हमले किए गए। इन्हीं में से एक हमले में अकबर का प्रिया पात्र और सेनापति बीरबल मारा गया।
उत्तर – पश्चिम के प्रदेशों पर साम्राज्य के प्रभुत्व को एक सुस्थित आधार प्रदान करना और उस ओर साम्राज्य की एक प्राकृतिक सीमा स्थापित करना अकबर द्वारा संपादित दो महत्वपूर्ण कार्य थे। अकबर की सिंध विजय ( 1590 ईस्वी ) में सिंधु नदी से होकर पंजाब के व्यापार का रास्ता खुल गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
अकबर 1598 ई तक लाहौर में ही जमा रहा उसी साल अब्दुल्ला उजबेक की मृत्यु हो गई उसके साथ ही मुगल साम्राज्य के लिए उजबेकों का खतरा समाप्त हो गया। उत्तर – पश्चिम से लौटकर अकबर ने पूर्वी और पश्चिमी भारत तथा दकन पर अपना ध्यान केंद्रित किया।
उड़ीसा पर अफगान सरदारों का प्रभुत्व था , लेकिन बंगाल के मुगल सूबेदार राजा मानसिंह ने उसे जीत लिया। मानसिंह ने कूच बिहार और ढाका सहित पूर्वी बंगाल के कुछ हिस्सों को भी जीता।
अकबर के पोषक भाई मिर्जा अजीज कोका ने पश्चिम में काठियावाड़ को जीता। खान – ए – खानान मुनीम खां को शहजादे मुराद के साथ दक्कन की जिम्मेदारी सौंपी गई।
16वीं सदी का अंत होते-होते अहमदनगर तक मुगलों का नियंत्रण स्थापित हो चुका था जिससे अब मुगल मराठों के प्रत्यक्ष संपर्क में आ गए थे। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण

राज्य , धर्म और सामाजिक सुधार
अकबर ने मुस्लिम राज्य में गैर – मुसलमानों पर लगाए जाने वाले जजिया नामक व्यक्ति – कर को उठा लिया। साथ ही अकबर ने प्रयाग , बनारस आदि पवित्र स्थलों में स्नान करने के लिए जाने वाले लोगों पर लगाए जाने वाला तीर्थं – कर भी समाप्त कर दिया। उसने युद्धबंधियों को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने का रिवाज भी मिटा दिया।
सुयोग्य हिंदुओं को सरदारों के वर्ग में स्थान देकर साम्राज्य के उदार सिद्धांतों को मजबूत किया गया। गैर – राजपूत मानसबदारों में राजा टोडरमल और राजा बीरबल अति प्रमुख थे इनमें से पहला राजस्व के मामलों का विशेषज्ञ था और तरक्की करके वह दीवान के पद तक पहुंच गया था। बीरबल बादशाह के सबसे अधिक कृपापात्र दरबारी में से एक था।
अकबर की जीवनीकार अबुल फजल के अनुसार सच्चे बादशाह का पद बहुत जिम्मेदारी का पद था , जो देवी ज्ञान पर निर्भर करता है। इसलिए अल्ला और सच्चे बादशाह के बीच कोई भी बाधा बनकर खड़ा नहीं हो सकता। सच्चे बादशाह की खूबी यह है कि वह अपनी प्रजा को पिता के समान प्यार करता है और उसमें धर्म या संप्रदाय के नाम पर भेदभाव नहीं करता।
उसका हृदय विशाल होता है जिससे वह छोटे-बड़े सभी की इच्छाओं और कामनाओं पर ध्यान देता है। एक तबके या पेशे के लोगों को दूसरे तबके या पेशे के लोगों के कर्तव्यों और दायित्वों में हस्तक्षेप करने से रोक कर समाज में संतुलन कायम रखना भी बादशाह का कर्तव्य है।
सबसे बड़ी बात है कि वह सांप्रदायिकता की धूल को माहौल में फैलने नहीं देता है। इन सभी खूबियों के मेल में से वह चीज बनती थी जिसे ‘ सुलहकुल ‘ या ‘ सबके लिए सलामती की नीति ‘ कहा गया है। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
राज्य के आला काजी अब्दुन्नबी खां की वह बहुत इज्जत करता था और एक अवसर पर उसकी चप्पल भी उठाई थी। बताया जाता है कि वह पूरी – पूरी रात ईश्वर के चिंतन में लीन रहता था। अपनी सफलता के लिए ईश्वर के प्रति आभार की भावना से अभिभूत होकर कई सुबह वह निपट अकेले आगरा में अपने राजमहल के निकट पड़े एक बड़े पत्थर पर बैठकर प्रार्थना और ध्यान में मग्न हो जाता था।
उसने अपने दरबार में उदार विचारों वाले मेधावी व्यक्तियों का एक अच्छा समूह इकट्ठा कर लिया। इसमें सबसे प्रमुख अबुल फजल और उसका भाई फैजी थे तथा इनके पिता को , जो की एक प्रसिद्ध विद्वान था , मुल्लाओं ने इसलिए बहुत सताया था कि इनकी सहानुभूति ‘ माहदवी’ विचारों से थी। महेश दास नाम का एक ब्राह्मण था जिसे बीरबल का खिताब दिया गया और जो अकबर के साथ हमेशा साए की तरह मौजूद रहता था।
1575 ईस्वी में अकबर ने अपनी नई राजधानी फतहपुर सीकरी में एक बड़ा कक्ष बनवाया जिसे इबादतखाना ( प्रार्थना कक्ष ) कहा जाता था। इबादतखाने में वह धर्मतत्वज्ञों , रह्स्य्वादियों और अपने दरबार के जाने-माने विद्वानों और बौद्धिक जनों की गोष्ठियां आयोजित करता। अकबर उनके साथ धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों की चर्चा किया करता था।
अकबर अक्सर कहा करता था , ” ऐ मुलाओं , मेरा एकमात्र लक्ष्य सत्य का अनुसंधान करना है , सच्चे धर्म के सिद्धांतों का पता लगाना और उन्हें उद्घाटित करना है “। बादशाह की उपस्थिति में भी मुल्ला लोग आपस में खींचतान करते थे , एक – दूसरे को दुर्वचन कहते थे। मुल्लाओं के व्यवहार, उनके अहंकार और पाखंड से अकबर को घोर विरक्ति हो गई और वह उनकी ओर से और भी विमुख हो गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
अब अकबर ने इबादतखाने के द्वारा सभी के लिए खोल दिए – न केवल ईसाइयों , जरथुस्त्रियों , हिंदुओं और जैनों के लिए बल्कि नास्तिकों तक के लिए भी। इससे चर्चाओं और बहसों का दायरा बड़ा हो गया।
इसी समय आला सदर अब्दुन्नबी की करगुजारियों की जांच की गई। अब्दुन्नबी को धर्मार्थ जमीनों ( मदद – ए – मआश ) के वितरण में घोर भ्रष्टाचार और अत्याचार का दोषी पाया गया। उसने अन्य भ्रष्ट तरीकों से भी काफी संपत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह एक धर्मांध व्यक्ति था और उसने शियाओं तथा मथुरा के ब्राह्मणों को उनके धार्मिक विश्वासों के कारण मृत्यु दंड दिए थे। अब्दुन्नबी को सत्ता – विहीन कर दिया गया और कुछ ही दिन बाद उसे बर्खास्त करके हज के लिए मक्का जाने का हुक्म दे दिया गया।
इसी समय 1579 ईस्वी – 80 ईस्वी में पूर्व में एक विद्रोह भडक उठा। काजियों ने कई फतवे देकर अकबर को काफिर करार दे दिया। अकबर ने विद्रोह को दबा दिया और काजियों को सख्त सजा दी।
मुल्लाओं के मुकाबले अपनी स्थिति को और भी मजबूत करने के लिए अकबर ने एक ‘ महजर ‘ या घोषणा जारी की। इसमें दावा किया गया था कि जिन लोगों को कुरान की व्याख्या करने का हक है उन्हें उनके बीच, अर्थात मुजतहिदों के बीच यदि मतभेद हो तो एक ” सर्वाधिक न्यायप्रिय और बुद्धिमान राजा की हैसियत से ” और ऐसे व्यक्ति के रूप में , जिसका स्थान खुदा की निगाह में मुजतहिदों से ऊंचा है , अकबर को अधिकार है कि वह उनकी व्याख्याओं में से ऐसी व्याख्या को चुन ले ” जिससे देश का लाभ होगा और जो सुव्यवस्था के हक में होगी “। उसमें यह दावा भी किया गया कि यदि अकबर ” कुरान के अनुसार और देश को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से ” कोई नया हुक्म जारी करें तो उसे सभी लोगों को बंधा हुआ होना चाहिए। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
प्रमुख उलमाओं के हस्ताक्षरों से जारी की गई इस घोषणा को ” अमोघत्व का आदेश ” ( ड्राक्ट्रिन ऑफ इनफेलिबिलिटी ) कहा गया है जो सही नहीं है। अकबर ने तो उस स्थिति में सिर्फ किसी एक व्याख्या को चुनने के अधिकार का दावा किया था जब कुरान की व्याख्या करने का हकदार लोगों में मतभेद हो। इससे संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि ‘ महजर ‘ साम्राज्य में धार्मिक परिस्थितियों को स्थिरता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ।
इबादत खाने की गोष्ठियों और बहस – मुबाहिसों से विभिन्न धर्मो के बीच सद्भाव पैदा नहीं हो पाया। अतः 1582 ईस्वी में अकबर ने इबादत खाने में बहसों का सिलसिला बंद कर दिया। लेकिन उसने सत्य की तलाश नहीं छोड़ी।
अकबर ने हिंदू धर्म के सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिए पुरुषोत्तम और देवी , और जरथुस्त्री धर्म के उसूलों का खुलासा करने के लिए महारजी राणा को निमंत्रित किया। वह कुछ पुर्तगाली पादरियों से मिला और एक दूतमंडल गोवा भेजा कि दो विद्वान मिशनरियों को उसके दरबार में भेज दिया जाए।
पुर्तगालियों ने अक्वावीवा और मौनसेरट नामक दो मिशनरियों को अकबर के दरबार में भेजा जहां वे लगभग 3 वर्ष रहे। अकबर जैनों के संपर्क में भी आया और उसके अनुरोध कर काठियावाड़ के प्रमुख जैन मुनि हीरा विजय सूरी ने भी उसके दरबार में एक – दो साल बिताए।
बदायूनी कहता है कि अकबर इस्लाम से विमुख हो गया और उसने एक नए धर्म की स्थापना की जो हिंदू धर्म , ईसाई धर्म , जरथुस्त्री धर्म आदि का मिश्रण था। लेकिन आधुनिक इतिहासकार इस दावे को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता कि अकबर ने किसी नए धर्म का उद्घोषणा की या ऐसा करने का उसका इरादा था। इसके लिए अबुल फजल और बदायूनी ने ‘ तौहीद – ए – इलाही ‘ शब्द का प्रयोग किया। जिसका मतलब है – एकेश्वरवाद। इसके साथ दीन अर्थात धर्म शब्द 80 साल बाद जोड़ा गया।
‘ तौहीद – ए – इलाही ‘ वास्तव में सूफीमत जैसा एक पंथ था। दीक्षा का दिन रविवार होता था। नव – दीक्षित व्यक्ति अपना सिर सम्राट के चरणों में रख देता था। वह उसे प्यार से उठा कर उसे एक मंत्र देता था। जिसे सूफियों के भाषा में ‘ शास्त ‘ कहा जाता था। उसे उस मंत्र और बार-बार दोहराना और उस पर अपना ध्यान केंद्रित करना होता था।
इसमें अकबर का प्रिय सिद्धांत या सूत्र ” अल्लाह – ओ – अकबर या ” अल्लाह महान है ” शामिल था। दीक्षितों को मांसाहार का त्याग करना पड़ता था , कम – से – कम अपने जन्म के महीने में। अकबर ने किसी प्रकार का बल प्रयोग नहीं किया और न लोगों को इस पंथ में शामिल करने के लिए धन का इस्तेमाल किया।
बदायूनी कहता है कि सदस्यों की निष्ठा की चार अवस्थाएं हुआ करती थी – संपत्ति का अर्पण , जीवन का अर्पण , सम्मान का अर्पण और धर्म का अर्पण। ये अवस्थाएं उसी तरह की थी जिनसे होकर सूफियों को गुजरना पड़ता था। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
तौहीद – ए – इलाही के अंतर्गत मुरीद ( शिष्य ) को भर्ती करने में अकबर का कुछ राजनैतिक उद्देश्य भी था। वह चाहता था कि सरदारों का एक दल हो जो उसके प्रति व्यक्तिगत तौर पर वफादार हो और सुलहकुल पर आधारित उसके राज्य की संकल्पना का समर्थन करें जिसमें धार्मिक भिन्नता का लिहाज किए बिना हर वर्ग के समान सहनशीलता और आदर प्राप्त हो।
बदायूनी जैसे कट्टरपंथी लोग राज्य की इस संकल्पना से सहमत नहीं थे। इसलिए अकबर की कोशिश के बारे में बदायूनी का कहना है कि बहुत – से नकारे चापलूसों और प्रशंसकों ने अकबर को अपने युग का ” इनसान – ए – कामिल ” या ” पूर्ण मानव ” कह कर उसका दिमाग फेर दिया था। उन्हीं के कहने पर अकबर ने ” पाबोस ” या शहंशाह के सामने जमीन चूमने की रस्म आरंभ की थी जबकि पहले सिर्फ अल्लाह को याद करके लोग ऐसा किया करते थे।
तौहीद – ए – इलाही का अकबर की मृत्यु के साथ ही अंत हो गया। हालांकि मुरीद बनाने की और शास्त देने की प्रथम जहांगीर ने भी अपने काल में कुछ समय तक जारी रखी।
बादशाह चमत्कारी शक्तियों से युक्त होता है जिससे लोग उसके स्पर्शमात्र से नीरोग हो सकते हैं या पानी से भरे बर्तन पर उसकें श्वास फूकने से वे स्वस्थ हो सकते हैं , इस तरह की मान्यता जारी रही और औरंगजेब जैसे रूढ़िवादी शासक भी इस विश्वास का त्याग नहीं कर पाया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
अकबर ने संस्कृत , अरबी , ग्रीक आदि की कृतियों का फारसी में अनुवाद करवाने के लिए एक विशाल अनुवाद विभाग स्थापित किया। इस तरह सबसे पहले सिंहासन बत्तीसी , अथर्ववेद और बाइबिल का अनुवाद आरंभ किया गया। उनके बाद महाभारत , रामायण और गीता का अनुवाद आरंभ करवाया गया। पंचतंत्र तथा भूगोल से संबंधित कई रचनाओं का भी अनुवाद किया गया। शायद सबसे पहली बार कुरान का भी अनुवाद किया गया।
अकबर ने कई सामाजिक और शैक्षिक सुधार भी किया उसने सती – प्रथा समाप्त कर दी। हाँ , यदि कोई स्त्री अपनी इच्छा से सती होने के आग्रह पर डट जाए तो उसे वैसा करने की छूट होती थी। जिसने अपने पति के साथ सहवास ने किया हो , ऐसी अल्पायु विधवाओं को हर हाल में सती होने की मनाही थी।
विधवा विवाह को भी कानूनी समर्थन दिया गया। यदि पहली पत्नी बाँझ न हो तो एक अधिक से अधिक स्त्रियों से विवाह करना अकबर को नामंजूर था। विवाह की उम्र को बढ़ाकर लड़कियों के मामले में 14 वर्ष और लड़कों के लिए 16 वर्ष कर दी गई।
अकबर ने शिक्षा के पाठ्यक्रम को भी संशोधित किया। उसने नैतिक शिक्षा और गणित एवं कृषि , ज्योतिष , खगोल – विज्ञान , शासन के नियम, तर्कशास्त्र , इतिहास आदि जैसे धर्मेंतर विषयों की शिक्षा पर जोर दिया।
अकबर ने कलाकारों , कवियों , चित्रकारों और संगीतज्ञों को भी प्रश्रय दिया इतना प्रश्रय दिया कि उसका दरबार नवरत्न कहे जाने वाले विभिन्न क्षेत्रों के मूर्घन्य व्यक्तियों के लिए प्रसिद्ध हो गया। मुगल साम्राज्य का दृढीकरण
Short Questions And answers
प्रश्न 1 – अकबर का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
उत्तर – 1542 ईस्वी , अमरकोट
प्रश्न 2 – किस स्थान पर अकबर के सिर पर मुगलिया वंश का ताज रखा गया ?
उत्तर – कालानौर
प्रश्न 3 – किस शासक ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त कर उसे विक्रमाजित की उपाधि प्रदान की ?
उत्तर – आदिलशाह
प्रश्न 4 – पानीपत की द्वितीय लड़ाई अफगान और मुगल सेना के मध्य कब लड़ी गयी ?
उत्तर – 5 नवंबर 1556 ई
प्रश्न 5 – अकबर को पालने वाली उसकी माता का क्या नाम था ?
उत्तर – माहम अनगा
प्रश्न 6 – वजीर की हत्या करने पर अकबर ने किसे किले के कंगूरे से फेंकवा दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई ?
उत्तर – आदम खां
प्रश्न 7 – अकबर के समय उजबेक विद्रोहियों ने किसे अपना बादशाह घोषित कर दिया ?
उत्तर – मिर्जा हकीम
प्रश्न 8 – अमनदास को ‘ संग्रामशाह ‘ का खिताब किसने दिया था ?
उत्तर – बहादुरशाह
प्रश्न 9 – अबुल फजल कहता है कि ” लूट में इतने जवाहरात , सोना और चांदी तथा दूसरी मूल्यवान वस्तुएं मिली कि उनके एक अंश का भी हिसाब लगाना असंभव था। ” यह किस राज्य की विजय से संबंधित कथन था ?
उत्तर – गढ़ – काटंगा
प्रश्न 10 – किस अभेद्य दुर्ग को मध्य राजस्थान पर अधिकार करने की कुंजी माना जाता था ?
उत्तर – चित्तौड़
प्रश्न 11 – किसके सम्मान में अकबर ने आगरा के किले के मुख्य द्वार पर हाथी पर सवार दो पत्थर की मूर्तियां स्थापित करने का आदेश दिया ?
उत्तर – शूरवीर जयमल और पन्ना के
प्रश्न 12 – अकबर ने किस स्थान पर पहली बार समुद्र देखा ?
उत्तर – कांबे में
प्रश्न 13 – अकबर ने कब दहसाला प्रणाली शुरू की ?
उत्तर – 1580 ई
प्रश्न 14 – दहसाला प्रणाली का आधार था –
उत्तर – वास्तविक उपज , स्थानीय कीमतों , उत्पादकता
प्रश्न 15 – दहसाला प्रणाली के अंतर्गत औसत उपज का कितना भाग राज्य का हिस्सा तय किया गया ?
उत्तर – एक तिहाई
प्रश्न 16 – दहसाला प्रणाली जब्ती प्रणाली का था –
उत्तर – और भी सुधार रूप
प्रश्न 17 – जिस जमीन पर लगभग हर साल खेती की जाती थी उसे क्या कहा जाता था ?
उत्तर – पोलज
प्रश्न 18 – जो जमीन लगातार दो-तीन साल परती रहती थी उसे क्या कहा जाता था ?
उत्तर – चाचर
प्रश्न 19 – किस भूराजस्व व्यवस्था को टोडरमली व्यवस्था भी कहा जाता है ?
उत्तर – जब्ती प्रणाली
प्रश्न 20 – मनसबदारी पद्धति में प्रत्येक अधिकारी को मनसब दिया जाता था। सबसे निचला दर्जा 10 का था , सबसे ऊपर का दर्जा कितने का था ?
उत्तर – 500
प्रश्न 21 – अकबर के समय किनको सात हजारी मनसब देकर सम्मानित किया गया था ?
उत्तर – मिर्जा अजीज कोका तथा राजा मानसिंह
प्रश्न 22 – मनसब मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त हुआ करते थे –
उत्तर – ‘ जात ‘ और ‘ सवार ‘
प्रश्न 23 – हर मनसब की कितनी कोटियाँ हुआ करती थी ?
उत्तर – तीन
प्रश्न 24 – सिपाहियों की एक विवरणिका ( चेहरा ) रखी जाती थी और उसके घोड़े को शाही निशान से दाग दिया जाता था। इसे कहते थे –
उत्तर – ‘ दाग प्रणाली ‘
प्रश्न 25 – 500 जात से नीचे के दर्जे वाले लोग क्या कहलाते थे ?
उत्तर – मनसबदार
प्रश्न 26 – 500 से लेकर 2500 तक की जात वाले लोग क्या कहलाते थे ?
उत्तर – अमीर
प्रश्न 27 – 2500 से ऊपर की जात वाले लोग क्या कहलाते थे ?
उत्तर – ‘ अमीर – ए – उम्दा ‘ या ‘ उम्दा – ए – आज़म ‘
प्रश्न 28 – सरकार में शांति – व्यवस्था के लिए कौन जिम्मेदार होता था ?
उत्तर – फौजदार
प्रश्न 29 – किस अधिकारी का काम भूराजस्व निर्धारित करना और उसे वसूल करना होता था ?
उत्तर – अमलगुजार
प्रश्न 30 – किस भूमि की आमदनी सीधे शाही खजाने से में जाती थी ?
उत्तर – खालिसा
प्रश्न 31 – अकबर किस पदाधिकारी को दीवान या दीवान – इ – आला कहा करता था ?
उत्तर – वजीर
प्रश्न 32 – सैनिक विभाग का प्रधान क्या कहलाता था ?
उत्तर – मीरबख्शी
प्रश्न 33 – मनसबों पर नियुक्ति या तरक्की के लिए सिफारिश किस अधिकारी के जरिए की जाती थी ?
उत्तर – मीरबख्शी
प्रश्न 34 – साम्राज्य की खुफिया और सूचना एजेंसियों का प्रधान कौन होता था ?
उत्तर – मीरबख्शी
प्रश्न 35 – किस अधिकारी को वाक़ियानवीस कहा जाता था ?
उत्तर – सूचना अधिकारी
प्रश्न 36 – किस अधिकारी को बरीद कहा जाता था ?
उत्तर – खुफिया अधिकारी
प्रश्न 37 – सम्राट की गृहस्थी का प्रबंध करने वाला प्रधान अधिकारी कौन होता था ?
उत्तर – मीर सामान
प्रश्न 38 – न्याय विभाग का प्रधान अधिकारी कौन होता था ?
उत्तर – आला काजी
प्रश्न 39 – अकबर का वह आला काजी जिसके भ्रष्टाचार और धन – लोलुपता के कारण यह पद काफी बदनाम हो गया था ?
उत्तर – अब्दुन्नबी
प्रश्न 40 – अकबर ने जजिया कर उठा लिया –
उत्तर – 1564 ईस्वी में
प्रश्न 41 – एकमात्र राज्य जो मुगल प्रभुता स्वीकार न करने पर अड़ा हुआ था , वह था –
उत्तर – मेवाड़
प्रश्न 42 – हल्दीघाटी के युद्ध में राजपूत योद्धाओं के अलावा राणा की सेना के अग्रभाग का नेतृत्व अफगानों की एक टुकड़ी के साथ कौन कर रहा था ?
उत्तर – हकीम खां सूर
प्रश्न 43 – सर्वप्रथम छापामार युद्ध प्रणाली की पद्धति किसने अपनायी थी ?
उत्तर – महाराणा प्रताप
प्रश्न 44 – महाराणा प्रताप ने अपनी नई राजधानी कहाँ बसाई थी ?
उत्तर – चावंड
प्रश्न 45 – मेवाड़ के साथ चले आ रहे लंबे झगड़े को खत्म करने का श्रेय किसे है ?
उत्तर – जहांगीर
प्रश्न 46 – वह पहला भारतीय शासक जिसने काबुल शहर में कदम रखा था ?
उत्तर – अकबर
प्रश्न 47 – अकबर किस शहर की जिम्मेदारी अपनी बहन को सौंपकर भारत लौट आया ?
उत्तर – काबुल
प्रश्न 48 – बीरबल का मूल नाम क्या था ?
उत्तर – महेश दास
प्रश्न 49 – अकबर ने अपनी नई राजधानी फतहपुर सीकरी में एक बड़ा कक्ष जिसे इबादतखाना ( प्रार्थना कक्ष ) कहा जाता था , कब बनवाया ?
उत्तर – 1575 ईस्वी में
प्रश्न 50 – मुल्लाओं के मुकाबले अपनी स्थिति को और भी मजबूत करने के लिए अकबर ने किसकी घोषणा की थी ?
उत्तर – महजर
प्रश्न 51 – अकबर ने इबादत खाने में बहसों का सिलसिला कब बंद कर दिया ?
उत्तर – 1582 ईस्वी में
प्रश्न 52 – पुर्तगालियों ने किन दो मिशनरियों को अकबर के दरबार में भेजा ?
उत्तर – अक्वावीवा और मौनसेरट
प्रश्न 53 – काठियावाड़ के किस प्रमुख जैन मुनि ने भी अकबर के दरबार में एक – दो साल बिताए ?
उत्तर – हीरा विजय सूरी
प्रश्न 54 – अबुल फजल और बदायूनी ने ‘ तौहीद – ए – इलाही ‘ शब्द का प्रयोग किया। जिसका मतलब है –
उत्तर – एकेश्वरवाद
प्रश्न 55 – कोन – सा दिन ‘ तौहीद – ए – इलाही ‘ में दीक्षा का दिन तय किया गया था ?
उत्तर – रविवार
प्रश्न 56 – ‘ तौहीद – ए – इलाही ‘ में नव – दीक्षित व्यक्ति अपना सिर सम्राट के चरणों में रख देता था। वह उसे प्यार से उठा कर उसे एक मंत्र देता था। जिसे सूफियों के भाषा में क्या कहा जाता था ?
उत्तर – शास्त
प्रश्न 57 – अकबर ने विवाह की उम्र बढ़ाकर लड़कों और लड़कियों के मामले में क्रमशः कितने वर्ष निर्धारित किया ?
उत्तर – 16 वर्ष और 14 वर्ष