प्रतिहार वंश
प्रतिहार वंश – प्रतिहारों को गुर्जर – प्रतिहार भी कहते है जिसका कारण शायद यह है कि उनका उदभव गुर्जराष्ट्र या दक्षिण – पश्चिम राजस्थान में हुआ था।
वे आरंभ में संभवतः स्थानीय ओहदेदार थे जिन्होंने मध्य और पूर्वी राजस्थान में कई इलाकों पर अपना स्वतंत्र अधिकार स्थापित कर लिया था।
उन्हें सिंध से राजस्थान पर होने वाले अरबों के छिट – पुट हमलों का मुकाबला करने के कारण प्रतिष्ठा मिली।
लेकिन 730 ईस्वी में गुजरात के चालुक्य शासकों ने अरबों को निर्णायक रूप से परास्त कर दिया जिसके बाद उनकी ओर से कोई वास्तविक खतरा नहीं रह गया। प्रतिहार वंश
प्रारंभिक प्रतिहारों शासकों ने ऊपरी गंगा घाटी और मालवा पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न किया।
लेकिन राष्ट्रकूट राजा ध्रुव और तृतीय गोबिंद ने उनकी कोशिशों को नाकाम कर दिया। राष्ट्रकूटों ने पहले तो 790 ईस्वी में और फिर 806 – 7 ईस्वी में उन्हें हराया। प्रतिहार वंश
प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक और इस राजवंश का महानतम शासक भोज था। उसने प्रतिहार साम्राज्य का पुननिर्माण किया और 836 ईस्वी के आसपास कन्नौज पर फिर से कब्जा कर लिया। और यह नगर लगभग एक सदी तक प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी रहा। प्रतिहार वंश
भोज ने पूर्व की ओर अपने प्रभुत्व का विस्तार करने का प्रयत्न किया लेकिन पालों ने उसे परास्त करके उसकी महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगा दिया। फिर उसने मध्य भारत और दकन तथा गुजरात की ओर रुख किया।
इससे राष्ट्रकूटों से प्रतिहारों का संघर्ष फिर से प्रारम्भ हो गया। जिसके कारण वह उस दिशा में आगे नहीं बढ़ सका। प्रतिहार वंश
एक अभिलेख के अनुसार उसके राज्य – प्रदेश सतलुज नदी के पूर्वी किनारे तक फैले हुए थे। अरब यात्रियों के वृतांतों से मालूम होता है कि प्रतिहारों के पास भारत में सबसे में सबसे अच्छी अश्वारोही सेना थी। प्रतिहार वंश
भोज विष्णु का भक्त था और उसने ” आदिवराह ” का विरुद धारण किया था। उसके कुछ सिक्कों पर ” आदिवराह ” शब्द अंकित है।
उज्जैन के भोज परमार से उसका अंतर बताने के लिए उसे मिहिर भोज भी कहा जाता है। वस्तुतः भोज परमार ने मिहिर भोज के कुछ कल बाद शासन किया था। प्रतिहार वंश
भोज की मृत्यु के बाद उसका बेटा प्रथम महेन्द्रपाल राजा बना। अपने 908 – 9 ईस्वी तक के शासनकाल में महेन्द्रपाल ने भोज के साम्राज्य को कायम तो रखा ही , उसने उसकी सीमाओं का विस्तार मगध और उत्तर बंगाल तक कर लिया।
उसके अभिलेख काठियावाड़ , पूर्वी पंजाब और अवध में भी मिले है। महेन्द्रपाल ने एक लड़ाई कश्मीर के राजा के खिलाफ भी लड़ी जिसमे उसे हार का मुँह देखना पड़ा। प्रतिहार वंश
नवीं सदी के प्रथम चतुर्थाश से लेकर दसवीं सदी के मध्य तक के लगभग सौ सालों की अवधि में उत्तर भारत में प्रतिहारों का बोलबाला रहा। बगदाद – निवासी अल – मसूदी ने 915 – 16 ईस्वी में गुजरात की यात्रा की थी।
उसके विवरण से प्रतिहार शासकों की शक्ति और मन – प्रतिष्ठा तथा उनके साम्राज्य की विशालता की पुष्टि होती है। प्रतिहार वंश
उसने गुर्जर – प्रतिहार राज्य को अल – जुजर कहा है। जुजर शायद गुर्जर का विकृत रूप है। इसी तरह वह राजा को बोरा कहता है।
बोरा शायद आदिवराह का बिगड़ा हुआ रूप है। अल – मसूदी के गुजरात आने के पूर्व ही भोज की मृत्यु हो चुकी थी। प्रतिहार वंश
प्रतिहार शासक ज्ञान – विज्ञान और साहित्य के उदार संरक्षक थे। संस्कृत का महान कवि और नाटककार राजशेखर भोज के पौत्र महिपाल के दरबार में रहता था।
प्रतिहार सिंध के अरब शासकों के प्रति अपने वैर – भाव के लिए प्रसिद्ध थे। 915 ईस्वी और 918 ईस्वी के बीच राष्ट्रकूट राजा तृतीय इंद्र ने फिर कन्नौज पर आक्रमण किया और नगर को तहस – नहस कर दिया। प्रतिहार वंश
इससे प्रतिहार साम्राज्य कमजोर पड़ गया। 963 में एक अन्य राष्ट्रकूट राजा तृतीय कृष्ण ने उत्तर भारत पर आक्रमण करके प्रतिहार शासक को परास्त कर दिया। इसके बाद प्रतिहार साम्राज्य तेजी से बिखर चला। प्रतिहार वंश
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