सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम :- पुरातत्व से प्रकट होता है कि पुरापाषाण युग के लोग पहाड़ी इलाकों में छोटे-छोटे समूह में रहते थे | जीवन -निर्वाह के लिए भी शिकार करते थे या वनों से कंदमूल और फल बटोर कर लाते थे |

मानव ने प्रस्तर – युग के अंत और धातु – युग के आरंभ में खाद्य उपजाना और घर में रहना सीखा |

नवपाषाण और ताम्रपाषण युग के लोग जमीन के ऊँचाई वाले भाग पर रहते थे जो पहाड़ियों और नदियों से अधिक दूर नहीं होते थे |

हड़प्पाई सभ्यता लुप्त हो जाने के बाद लगभग हजार वर्षों तक भारतीय उपमहादेश में शहरी सभ्यता का पुनर्जन्म नहीं हो सका | सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

जनजातीय और पशुाचरण अवस्था

ऋग्वैदिक काल में समाज के इतिहास के लिए हमें लिखित स्रोत मिलने लगते है |

ऋग्वैदिक समाज प्रधानत: पशुचारक था और लोग अर्द्धखानाबदोश थे | ‘ मवेशी ‘ धन का पर्याय माना जाता था और ‘ गोमत ‘ का अर्थ होता था धनवान |

वैदिक समाज में गाय – बैल के लिए लड़ाइयां होती थी और गायों की रक्षा करना राजा का मुख्य धर्म होता था , इसलिए राजा ‘ गोप ‘ या ‘ गोपति ‘ कहलाता था |

बेटी को ‘ दुहितृ ‘ अर्थात दुहने वाली कहा जाता था |

वैदिक आर्यों को गाय से इतनी घनिष्ठता थी कि जब उन्होंने भारत में पहली बार भैंस को देखा तो वे उसे ‘ गोवाल ‘ अर्थात गाय जैसी बालों वाली कहने लगे |

ऋग्वेद में , गाय और वृषभ की चर्चा की तुलना में कृषि की चर्चा कम है , जो है वह भी अधिकांशतः उत्तरकालीन सूक्तों में ही है | सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

राजा को दिए जाने वाला नजराना बलि कहलाता था | कबीले के सामान्य लोग जो हिस्सा पाते थे वह ‘ अंश ‘ या ‘ भाग ‘ कहलाता था |

यद्यपि शिल्पी , किसान , पुरोहित और योद्धा ऋग्वेद के पुराने भागों में भी मिलते हैं , तथापि समाज कुल मिलाकर जनजातीय , पशुचारक , अध्यायावर , और समतानिष्ट ही था |

युद्ध में लूट और पशु , सम्पति का मुख्य रूप था | पशु और दासियाँ अक्सर दान में दी जाती थी | अन्नदान की चर्चा शायद ही हुई है |

युद्धों में होने वाली लूट के सिवा राजाओं और पुरोहितों के भरण – पोषण का कोई दूसरा साधन नहीं था |

उच्च पद पाना संभव था , पर उच्च सामाजिक वर्ग पाना संभव नहीं था |

ऋग्वेदिक समाज में सेवकवर्ग के रूप में शूद्र का अस्तित्व नहीं था | सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

कृषि और उच्च वर्गों का उद्भव

जब वैदिक जन अफगानिस्तान और पंजाब से उत्तर भारत की ओर बढ़े तब वे अधिकतर कृषक हो गए।

उत्तर वैदिक किसान उतना पैदा नहीं करते थे जिससे व्यापार और नगर का उदय होता जो बाद में बुद्ध के युग में आकर हुआ।

वैदिक समुदाय में न तो कर – प्रणाली स्थापित हुई थी , और न वैतनिक सैन्यव्यवस्था ही। राजा के नातेदारों के सिवा , कर वसूलने वाला कोई अधिकारी नहीं था।

पशुचारक समाज की जन – सेवा के बदले बाद में कृषक समाज की किसान – सेना तैयार हुई। ‘ विश ‘ अर्थात जनजातीय किसान – वर्ग ही सेना या सशस्त्र दल का काम करता था।

उत्तर वैदिक काल में किसान – वर्ग ‘ बल ‘ अर्थात सैन्य – शक्ति कहलाने लगा। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

अश्वमेध के घोड़े की रक्षा के लिए जो सेना चलती थी उसमें क्षत्रिय और विश दोनों रहते थे।

राजा से कहा गया है कि वे विजय के लिए विश के साथ एक थाली में भोजन करें।

हल में लकड़ी के फाल होने और यज्ञों में पशुओं का अन्धाधुन्ध वध होने के कारण किसान लोग अपनी आवश्यकता से अधिक शायद ही उपजा पाते थे।

जनजातीय परंपरा के अनुसार कृषि के विस्तार में राजा का योगदान आवश्यक होता था। इतना ही नहीं , राजाओं को अपने हाथ से हल भी चलाना पड़ता था।

शासन , शत्रुओं से लड़ने में किसानों की सेवा पर निर्भर थे और वे जनजातीय किसान – वर्ग की सहमति के बिना किसी को जमीन नहीं दे सकते थे। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

उत्पादन और शासन की वर्णमूलक व्यवस्था

शिल्प और कृषि में लोहे के औजारों के प्रयोग से ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई जिससे ईसा – पूर्व छठी सदी में आकर , अपेक्षाकृत समताश्रित वैदिक समाज का रूपांतरण पूर्णत : कृषि – आधारित वर्ग – विभाजित समाज के रूप में हो गया।

मध्य गंगा के मैदानों के जंगली इलाकों में आग और लोहे की कुल्हाड़ी के सहारे जंगलों को साफ किया गया। 500 ईसा – पूर्व से यहां असंख्य गांव और नगर बसने लगे।

किसान अब लोहे की फालों , हंसियों और अन्य औजारों की मदद से अपने जीवन – निर्वाह के लिए अपेक्षित मात्रा से कहीं अधिक अनाज पैदा करने लगे।

वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में कृषि की तकनीक कहीं अधिक विकसित हो गयी थी।

वैदिक काल में लोग अपने परिवार के लोगों की मदद से खेत आबाद करते थे। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

बुद्ध के युग में आकर खेती का काम दासों और मजदूरों से कराना आम बात हो गई थी।

कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र से पता चलता है कि मौर्य काल में दास और मजदूर बड़े-बड़े राजकीय कृषिक्षेत्रों में काम करते थे।

प्राचीन भारत में दासों से सामान्य केवल घरेलू काम लिया जाता था।

‘ द्विज ‘ अर्थात ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य वेद पढ़ने और यज्ञोपवीत संस्कार पाने के अधिकारी माने गए परंतु शूद्र इससे वंचित कर दिए गए। शूद्रों का कर्तव्य अपने से ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करना निर्धारित किया गया।

कुछ स्मृतिकारों ने शूद्रों के लिए केवल दासता रख छोड़ी। इस स्थिति में द्विजों को नागरिक और शूद्रों को अनागरिक की संज्ञा दी जा सकती है। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

द्विजों के बीच भी नागरिकों की श्रेणी के आधार पर अंतर आ गया। ब्राह्मणों के लिए हल जोतना निषेध हो गया। शारीरिक श्रम इतना तुच्छ माना जाने लगा कि उन लोगों से भी घृणा की जाने लगी जो हाथ से शिल्पकर्म करते थे और इस प्रकार कुछ श्रमजीवी तो अछूत तक बना दिए गए।

जो लोग शारीरिक श्रम से जितना ही हटे रहे उन्हें उतना ही अधिक पवित्र समझा जाने लगा। वैश्य द्विज होते हुए भी कृषि , पशुपालन और दस्तकारी करते थे और बाद में व्यापार भी करने लगे।

वर्णव्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों को किसानों से कर और व्यापारियों एवं शिल्पियों से शुल्क वसूलने का अधिकार मिला।

हर वर्ण के लिए भुगतान की दर और आर्थिक सुविधा अलग-अलग निश्चित हो गई। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

पुरोहित और योद्धा दोनों ही किसानों से उगाहे गए करों , नजरानों , राजांशों और श्रमों पर जीते थे , इसलिए इन दोनों वर्गों के बीच कभी-कभी सामाजिक अधिशेष के बंटवारे में झगड़े हो जाया करते थे। लेकिन , वैश्यों और शूद्रों के साथ विरोध होने पर ब्राह्मण और क्षत्रिय आपसी विरोध भूलकर एक हो जाते थे।

प्राचीन ग्रंथो में कहा गया है कि ब्राह्मणों के सहयोग के बिना क्षत्रियों का कल्याण नहीं होगा और क्षत्रियों के सहयोग के बिना ब्राह्मणों का कल्याण नहीं होगा , दोनों परस्पर सहयोग से ही फल – फूल सकेंगे और संसार पर शासन करेंगे। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

सामाजिक संकट और भूस्वामी वर्ग का उदय

कलियुग का लक्षण विभिन्न वर्णों के मिश्रण का होना बताया गया है , जिसे ‘ वर्णसंकर ‘ कहा गया। इसका आशय यह था कि वैश्यों और शूद्रों ने अपने ऊपर सौंप गए उत्पादन – कार्य करने बंद कर दिए अर्थात वैश्य किसानों ने कर चुकाना बंद कर दिया और शूद्रों ने मजदूरी करना छोड़ दिया। वे विवाह और सामाजिक संबंधों में वर्ण – संबंधी प्रतिबंधों की उपेक्षा करने लगे।

रामायण और महाभारत में वर्णसंकर को रोकने के लिए दंड या दमन – नीति पर जोर दिया गया और मनु ने बताया कि वैश्यों शूद्रों को अपने -अपने कर्तव्यों से विचलित नहीं होने दिया जाना चाहिए।

राज्य ने अब भूमि भोगने का अधिकार सीधे पुरोहितों , सेनापतियों , प्रशासकों आदि को सौंप दिया। इस उपाय से वित्तीय और प्रशासनिक समस्याओं का समाधान कर लिया गया।

पिछड़े हुए इलाकों में ब्राह्मणों और दूसरों को भूमि अनुदान देने से कृषि – पंचांग का ज्ञान फैला और आयुर्वेद का प्रचार हुआ जिस कृषि – उत्पादन में समग्र रूप से वृद्धि हुई। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

लेखन – कला तथा प्राकृत और संस्कृत भाषाओं के व्यवहार का भी प्रसार हुआ।

भूमि अनुदानों से सुदूर दक्षिण और सुदूर पूर्व में सभ्यता फैली , हालांकि इस दिशा में कुछ काम व्यापारियों ने तथा जैनों और बौद्धों ने पहले भी कर रखा था।

भूमि अनुदानों से जनजातीय किसान भारी संख्या में ब्राह्मणीय समाज में आ गए , जिन्हें शूद्र वर्ग में रखा गया। इसलिए पूर्व मध्यकाल के ग्रंथों में शूद्रों को किसान और कृषक कहा जाने लगा।

दूसरी ओर भूमि अनुदान से , खासकर विकसित क्षेत्रों में , स्वतंत्र वैश्य किसानों की दशा गिर गई। इस प्रकार गुप्त काल के बाद वैश्य और शूद्र सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टि से एक दूसरे के निकट आ गए। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

भूमि – अनुदान का सबसे अधिक महत्व का परिणाम हुआ किसानों की उपज पर पलने वाले भू – स्वामियों के नए वर्ग का उदय। इसने पांचवी – छठी सदियों के आस – पास ऐसी पृष्ठभूमि बनाई जिस पर सामंती ढंग का सामाजिक ढांचा खड़ा हुआ।

सामंती ढांचें में भू- स्वामियों और योद्धाओं के वर्ग की स्त्रियों की दशा बिगड़ी। पूर्व मध्यकाल में राजस्थान में सतीप्रथा जोर से चल पड़ी। लेकिन, निचले वर्गों की स्त्रियों को आर्थिक क्रियाकलाप में भाग लेने और पुनर्विवाह करने की छूट थी। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

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सारांश

प्राचीन भारत का समाज विभिन्न चरणों से गुजरा। पहले पुरापाषाण युग में खाद्य – संग्राहक समाज था , तब उसकी जगह नवपाषाण युग और ताम्रपाषाण युग में खाद्य – उत्पादक समाज बने।

उपरोक्त के बाद धीरे-धीरे किसान समुदाय विकास करते-करते हड़प्पाई नगर समाजों के रूप में परिणत हो गए।

फिर अश्वरोही और पशुपालक समाज बना। ऋग्वेद में जो सामाजिक ढांचा दिखाई देता है वह अधिकांशत: पशुचारक और जनजातीय था।

उत्तर वैदिक काल में जाकर पशुचरक समाज बदलकर कृषिमूलक समाज हो गया।

वर्ग – विभाजित समाज वैदिकोत्तर काल में पूरा – पूरा निखरा। यह वर्णव्यवस्था के नाम से विदित हुआ। मोटे तौर पर यह सामाजिक व्यवस्था बुद्ध काल से गुप्त काल तक भली – भांति चलती रही।

आगे चलकर पुरोहितों और अधिकारियों को उनके भरण – पोषण के लिए भूमि अनुदान दी जाने लगी और धीरे-धीरे भूस्वामियों का वर्ग किसान और राज्य के बीच खड़ा हो गया। सामाजिक परिवर्तनों का अनुक्रम

MCQ

प्रश्न 1 – ऋग्वैदिक समाज प्रधानत: था –

उत्तर – पशुचारक

प्रश्न 2 – ऋग्वैदिक काल में ‘ गोमत ‘ शब्द का क्या अर्थ था ?

उत्तर – धनवान

प्रश्न 3 – ऋग्वैदिक काल में धन का पर्याय माना जाता था –

उत्तर – मवेशी

प्रश्न 4 – ऋग्वैदिक काल में गोप या गोपति किसे कहा जाता था ?

उत्तर – राजा को

प्रश्न 5 – ऋग्वैदिक काल में ‘ दुहितृ ‘ किसे कहा जाता था ?

उत्तर – पुत्री को

प्रश्न 6 – ऋग्वैदिक काल में ‘ गोवाल ‘ शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है ?

उत्तर – भैंस

प्रश्न 7 – ऋग्वैदिक काल में राजा को दिए जाने वाला नजराना क्या कहलाता था ?

उत्तर – बलि

प्रश्न 8 – उत्तर वैदिक काल में किसान – वर्ग कहलाने लगा –

उत्तर – ‘ बल ‘ अर्थात सैन्य – शक्ति

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