सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ : – प्रागैतिहासिक युग के पश्चात कई वस्तुएं ऐतिहासिक युग के आरंभ की सूचना देती हैं। ये है – फालवाले हल से खेती करने वाली ग्रामीण समुदायों का बड़े पैमाने पर बसना , राजतंत्र का गठन , सामाजिक वर्गों का पनपना , धातु के सिक्कों का प्रयोग , लेखन – कला का प्रचलन , लिखित साहित्य का आरंभ आदि।
ईसा – पूर्व दूसरी सदी तक प्रायद्वीप के उच्च भागों में वे लोग बसते थे जो ‘ महापाषाण ‘ निर्माता कहलाते हैं। इन लोगों के बारे में जानकारी उनकी कब्रों से होती है जिसें ‘ महापाषाण ‘ कहा जाता है।
इन कब्रों को ‘ महापाषाण ‘ इसलिए कहते हैं कि इन्हें बड़े-बड़े पत्थरों के टुकड़ों से घेर दिया जाता था।
इन कब्रों में दफनाए गए लोगों के अस्थिपंजर , मृदभांड और लोहे की वस्तुएं मिलती हैं।
ये लोग कई तरह के मृदभांडों का प्रयोग करते थे जिनमें ‘ लाल मृदभांड ‘ भी शामिल था। परंतु ‘ काला व लाल मृदभांड ‘ उनके सबसे प्रिय मृदभांड थे।
महापाषणों में हमें बाणाग्र , बरछे की नोक , फावड़े तथा हंसिया पाते हैं जो लोहे के बने हैं। कब्रों में ‘ त्रिशूल ‘ भी पाते हैं जो बाद में शिव के साथ जुड़ गया। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
इन कब्रों में खेती के औजारों की तुलना में लड़ाई और शिकार के हथियार अधिक पाए गए हैं। इससे लक्षित होता है कि महापाषाणिक लोग उन्नत खेती नहीं करते थे।
महापाषाणिक लोग प्रायद्वीप के सारे ऊंचे इलाकों में पाए जाते हैं , लेकिन उनका जमाव पूर्वी आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अधिक प्रतीत होता है।
महापाषाणिक संस्कृति का आरंभ लगभग 1000 ईसा – पूर्व से माना जा सकता है , लेकिन कई मामलों में महापाषाण अवस्था ईसा – पूर्व पांचवी सदी से लेकर ईसा – पूर्व पहली सदी तक कायम रही मालूम पड़ती है। कुछ स्थानों में तो यह अवस्था ईस्वी सन की आरंभिक सदियों तक टिकी सी लगती है।
अशोक के अभिलेखों में उल्लेखित चोल , पाण्ड्य और केरलपुत्र ( चेर ) शायद भौतिक संस्कृति की उत्तर महापाषाणिक अवस्था के लोग थे। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में रहने वाले महापाषाणिक लोग अपने मृतकों के अस्थिपंजर को लाल कलश में डालकर गढ्ढों में दफनाते थे। कई मामलों में ये अस्थिपंजर पत्थरों से घिरे नहीं थे , और दफन की वस्तुएं अधिक नहीं थी।
कृष्णा – गोदावरी घाटी क्षेत्र में पत्थर के घेरे वाले ताबूत शवाधान या गर्त शवाधान ( सिस्ट बेरियल या पिट बेरियल ) का प्रचलन था।
महापाषणिक लोग बसने और शवों को दफनाने के लिए पहाड़ियों की ढलानों पर निर्भर करते थे।
महापाषणिक लोग बहुत ही कम जमीन पर धान और रागी उपजाते थे। वे लोग घने जंगलों की वजह से मैदानों या निचली भूमियों में नहीं बस पाए। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
राज्य का बना और सभ्यता का उदय
ईसा – पूर्व तीसरी सदी में महापाषणिक लोग ऊंची भूमि से उतरकर उर्वर नदी घाटियों में आए और कछारी डेल्टा क्षेत्रों को तोड़कर कृषि योग्य बनाया।
व्यापारियों , विजेताओं , जैन , बौद्ध और ब्राह्मण धर्म – प्रचारकों के साथ आने वाली उत्तर की भौतिक संस्कृति से महापाषाणिक लोगों का संपर्क हुआ और उन्होंने भी धान की रोपनी को अपनाया , गांव और नगर बसाए और उनके बीच भी सामाजिक वर्ग बन गए।
उत्तर और सुदूर दक्षिण जो ‘ तमिलकम ‘ या ‘ तमिषकम ‘ कहलाता है , के बीच संस्कृति और आर्थिक संबंध की स्थापना ईसा – पूर्व चौथी सदी से नितांत महत्वपूर्ण हो गई।
दक्षिणापथ अर्थात दक्षिण को जाने वाला रास्ता उत्तर वालों के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ क्योंकि दक्षिण से उन्हें सोना , मोती और विविध रत्न प्राप्त होते थे।
आरंभिक संगम ग्रंथ के लेखकों को गंगा नदी , सोन नदी तथा मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र भी ज्ञात थी।
अशोक के अभिलेखों में साम्राज्य की सीमा पर बसने वाले चोलों , पांड्यों , केरलपुत्रों और सतियपुत्रों का उल्लेख है , जिनमे केवल सतियपुत्रों की पहचान अभी तक स्पष्ट रूप से नहीं हो पाई है। ताम्रपर्णियों या श्रीलंका के निवासियों का भी उल्लेख है।
अशोक की उपाधि ‘ देवों का प्यार ‘ को एक तमिल राजा ने अपनाया। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
ईशा की चौथी शताब्दी में ब्राह्मणिक प्रभाव भारी मात्रा में ‘ तमिलकम ‘ में पहुंचा।
कालक्रमेण , तमिल संस्कृति के बहुत से तत्व उत्तर में फैले और ब्राह्मण धर्म संबंधी ग्रंथों में कावेरी की गणना देश की पवित्र नदियों में होने लगी।
दक्षिण राज्यों के कुछ क्षेत्रों में ‘ जनपद ‘ और मगध – साम्राज्य प्रकार की आहत – मुद्राएं मिली हैं जिससे उत्तर – दक्षिण व्यापार का पता चलता है।
चोल , चेर और पाण्ड्य इन तीनों राज्यों के उदय में रोमन साम्राज्य के साथ बढ़ते हुए व्यापार का भी हाथ है। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
तीन आरंभिक राज्य
भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर , जो कृष्णा नदी के दक्षिण में पड़ता है , तीन राज्यों में विभक्त था – चोल , पाण्ड्य और चेर या केरल।
पांड्यों का उल्लेख सर्वप्रथम मेगास्थनीज ने किया है उसके अनुसार पाण्ड्य राज्य मोतियों के लिए मशहूर था तथा इसका शासन स्त्री के हाथ में था। इससे पाण्ड्य समाज में कुछ मातृतन्त्रात्मक प्रभाव का पता चलता है।
पाण्ड्य राज्य भारतीय प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण और दक्षिण – पूर्वी भाग में था , और उसमे मोटे तौर पर तमिलनाडु के आधुनिक तिन्नवेल्ली , रामनद और मदुरा जिले शामिल है। उसकी राजधानी ‘ मदुरै ‘ थी।
ईशा की आरंभिक सदियों में तमिल – परिषदों में संकलित संगम – साहित्य में पाण्ड्य राजाओं का उल्लेख है। संगम साहित्य से प्रकट होता है कि पाण्ड्य राज्य धनवान और समृद्ध था।
पाण्ड्य राजाओं को रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार में लाभ होता था और उन्होंने रोमन सम्राट ‘ ऑगस्टस ‘ के दरबार में राजदूत भेजे।
पाण्ड्य राजा ने ईसा की आरंभिक सदियों में वैदिक यज्ञ किए। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
चोल राज्य जो मध्य काल के आरंभ में ‘ चोलमण्डलम ( कोरोमंडल ) कहलाता था। पाण्ड्य राज्य पेन्नार और वेलार नदियों के बीच में पाण्ड्य राज्यक्षेत्र के पूर्वोत्तर कोण में था।
संगम साहित्य से चोलो के राजनीतिक इतिहास का कुछ आभास मिलता है। उनकी राजनीतिक सत्ता का केंद्र ‘ उरैयूर ‘ था जो सूती कपड़े के व्यापार के लिए मशहूर है।
लगता है कि ईसा – पूर्व दूसरी सदी के मध्य में ‘ एलारा ‘ नमक चोल राजा ने श्रीलंका पर विजय की और लगभग 50 वर्षों तक वहां शासन किया।
चोलो का अधिक सुनिश्चित इतिहास ईसा की दूसरी सदी में उनके विख्यात राजा ‘ कारैकाल ‘ से शुरू होता है। उसने पुहार की स्थापना की और कावेरी नदी के किनारे 160 किलोमीटर लंबा बांध बनाया। इसका निर्माण श्रीलंका से बंदी बनाकर लाये गुलामों से कराया गया।
पुहार की पहचान ‘ कावेरीपट्टनम ‘ से की गई है , जो चोलो की राजधानी थी। यह व्यापार और वाणिज्य का बहुत बड़ा केंद्र था और उत्खननों से पता चलता है कि उसका गोदीबाड़ा बहुत विशाल था।
चोलों की समृद्धि का मुख्य स्रोत सूती कपड़े का व्यापार था। उनके पास कुशल नौसेना भी थी।
कारैकाल के उत्तराधिकारियों के समय चोल सत्ता का तेजी से हास हुआ। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
चेरों और पांड्यों ने चोलों के राज्य में घुसकर अपना – अपना राज्य फैलाया। चोलों की बची – खुची सत्ता को उत्तर से पल्लवनों ने हमला करके लगभग समाप्त कर दिया।
ईशा की चौथी से नौवीं सदी तक के दक्षिण भारतीय इतिहास में चोलों की भूमिका नगण्य रही।
चेर या केरल देश पाण्ड्य क्षेत्र के पश्चिम और उत्तर में था।
चेरों का महत्व रोमन लोगों के साथ व्यापार के कारण था। रोमानों ने अपने हित की रक्षा के लिए सेना की दो टुकड़ियाँ ‘ मुजिरीस ‘ में स्थापित की थी , जिसकी पहचान चेर क्षेत्र में ‘ क्रांगनोर ‘ से की जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने वहां ऑगस्टस का मंदिर भी बनवाया था।
चेरों का इतिहास चोलों और पांड्यों के साथ निरंतर युद्ध का इतिहास है।
चेरों ने चोल नरेश ‘ कारैकाल ‘ के पिता का वध कर दिया लेकिन चेर नरेश को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। बाद में दोनों राज्य कुछ समय के लिए मित्र बन गए और अंतत: दोनों वैवाहिक संबंधों से भी जुड़ गए। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
आगे चलकर चेर राजा ने चोलों के खिलाफ पाण्ड्य शासकों से गठजोड़ किया। लेकिन चोलों ने दोनों को हरा दिया। कहा जाता है कि चेर राजा ने पीठ में घाव लगने के कारण लज्जावश आत्महत्या कर ली।
चेर कवियों के अनुसार उनका सबसे बड़ा राजा ‘ सेनगुट्टुवन ‘ था , जो लाल या भला चेर भी कहा जाता था।
कहा जाता है कि सेनगुट्टुवन ने उत्तर दिशा में चढ़ाई की और गंगा को पार किया। लेकिन यह अतिरंजित लगता है।
ईसा की दूसरी सदी के बाद चेर शक्ति का हास हुआ और उसके बाद ईसा की आठवीं सदी तक उनके इतिहास के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है।
तीनों राज्यों ने अपने प्राकृतिक संसाधनों और विदेश व्यापार से काफी लाभ उठाया। वे मसाले , विशेषकर गोलमिर्च उपजाते थे , जिनकी पश्चिमी दुनिया में काफी माँग थी। हाथी दांत , मोती रत्न आदि का भी निर्यात पश्चिमी देशों में होता था। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
ये लोग मलमल और रेशम भी पैदा करते थे। कहा जाता है कि उनका सूती कपड़ा सांप के केंचुल जैसा पतला होता था।
उरैयूर अपने सूती कपड़े के व्यापार के लिए जाना जाता था।
व्यापार के फलस्वरुप चावल , अदरक , दालचीनी आदि कई वस्तुओं के नाम यूनानी भाषा में तमिल भाषा से लिए गए हैं।
ईसा की पहली सदी के आसपास मिस्र रोम का प्रान्त हो गया और मानसून का पता लगा।
ईशा की आरंभिक ढाई सदियों तक रोम के साथ दक्षिण के राज्यों का लाभप्रद व्यापार चलता रहा। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
धन और तलवार
व्यापार के अलावा चुंगी और पारगमन शुल्क से भी राज्यों को आय होती थी। युद्ध में हाथ लगे माल से भी राजकोष में वृद्धि होती थी।
सौदागरों की सुरक्षा के लिए तथा तस्करी रोकने के लिए सड़कों पर सैनिक लगातार चौकसी करते रहते थे।
युद्ध और राजव्यवस्था का वास्तविक आधार कृषि से होने वाले नियमित आय ही थी।
प्रायद्वीपीय सिरा और उससे लगे क्षेत्र बहुत ही उपजाऊ थे। खेतों में धान , रागी और ईंख की उपज होती थी।
कावेरी डेल्टा के बारे में कहावत है कि जितनी जमीन में एक हाथी लेट सकता था उतनी जमीन सात आदमियों का पेट भर सकती है।
इन सभी के अतिरिक्त , तमिल प्रदेश में अनाज , फल , गोल मिर्च और हल्दी की उपज होती थी।
राज्य की सेना में बैल जुते रथ , हाथी , घुड़सवार और पैदल सिपाही रहते थे।
पाण्ड्य राज्य में घोड़े बाहर से समुद्री रास्ते से मँगाए जाते थे। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
सामाजिक वर्गों का उदय
तमिल भूमि में ब्राह्मण का दर्शन सबसे पहले संगम युग में होता है।
आदर्श राजा वह होता था जो ब्राह्मण को कभी सताए नहीं।
कवियों को भाटों को स्वर्ण , नगद , भूमि , रथ , घोड़े और हाथी भी दिए जाते थे।
तमिल ब्राह्मण मदिरा पीते और मांस खाते थे।
क्षत्रिय और वैश्य संगम साहित्य में नियमित वर्ण के रूप में दिखाई देते हैं।
सेनाध्यक्षों को औपचारिक अनुष्ठान के साथ ‘ एनाडि ‘ की उपाधि दी जाती थी। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
चोल और पाण्ड्य दोनों राज्यों में असैनिक और सैनिक दोनों तरह के अधिकारियों के पद पर ‘ वल्लाल ‘ या धनी किसान रखे जाते थे।
शासक वर्ग को ‘ अरसर ‘ कहा जाता था और उस वर्ग के लोगों का ‘ वल्लालों ‘ वालो से वैवाहिक संबंध होता था , जबकि वल्लाल चौथी जाति में आती थे।
अधिकतर भूमि वल्लालों के हाथों में थी और उन्हीं से किसन वर्ग बना था।
खेत – मजदूर का काम सबसे निचले वर्ग के लोग ‘ कडैसियर ‘ करते थे , जिनकी हैसियत , करीब – करीब गुलाम जैसी थी।
कुछ कारीगर खेत मजदूर वर्ग के भी थे। ‘ परियार ‘ लोग खेत – मजदूर थे , लेकिन पशु की खाल या चर्म का काम करते थे।
संगम युग में हम सुस्पष्ट सामाजिक विषमताएं पाते हैं। लेकिन यह ज्ञात नहीं है कि सामाजिक विषमता बनाए रखने में धर्म और अनुष्ठान का हाथ था या नहीं सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
ब्राह्मण संस्कृति का आरंभ
तमिल देश में ईसा सन की आरंभिक सदियों में जो राज्य और समाज स्थापित हुए उनका विकास ब्राह्मण संस्कृति के प्रभाव से हुआ। लेकिन ब्राह्मण संस्कृति का यह प्रभाव तमिल भूमि के एक छोटे से भाग और समाज के ऊपरी वर्गों तक सीमित था।
पहाड़ी प्रदेश के लोगों के मुख्य स्थानीय देवता ‘ मुरुगन ‘ थे जो , आरंभिक मध्य काल में सुब्रमनियम या सुब्रहमण्यम कहलाने लगे।
विष्णु की पूजा का भी उल्लेख है , लेकिन यह परंपरा बाद में चली होगी। लोग मृतक को धान चढ़ाते थे।
शवदाह की प्रथा आरंभ हुई , परंतु महापाषाण अवस्था से चली आ रही दफनाने की प्रथा समाप्त नहीं हुई। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
तमिल भाषा और संगम साहित्य
ऐतिहासिक काल के आरंभ में तमिल लोगों के जीवन के संबंध में ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका आधार ‘ संगम ‘ साहित्य है।
‘ संगम ‘ तमिल कवियों का संघ या सम्मेलन था , जो संभवत: किसी सामंत या राजा के आश्रय में आयोजित होता था।
ईसा की आठवीं सदी में लिखी गई संगम की तमिल टिकाओं में कहा गया है कि तीन संगम 9990 वर्ष तक चले जिनमें 8598 कवि जुटे और एक 197 पाण्ड्य राजा इसके संरक्षक थे।
उपरोक्त बात चरम सीमा का अतिरंजन मात्र है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि मुदरै में संगम राजाश्रय में आयोजित होते थे।
इन सम्मेलनों द्वारा रचित और उपलब्ध संगम साहित्य लगभग 300 ई और 600 ई के बीच संकलित किया गया। परंतु , इसके कुछ भाग बहुत पुराने , कम – से – कम ईसा – पूर्व दूसरी सदी के प्रतीत होते हैं।
संगम साहित्य दो समूहों में बांटा जा सकता है – आख्यानात्मक और उपदेशात्मक। आख्यानात्मक ग्रंथ ‘ मेलकणक्कु ‘ अर्थात 18 मुख्य ग्रंथ कहलाते हैं। जिनमें 8 पद्य संकलन और 10 ग्राम्य गीत है। उपदेशात्मक ग्रंथ ‘ कीलकणक्कु ‘ अर्थात 18 लघु ग्रंथ कहलाते हैं। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
संगम ग्रंथों में सामाजिक विकास की झलक
आख्यानात्मक ग्रंथों को ‘ वीरगाथा काव्य ‘ कहते हैं , जिनमें वीर पुरुषों की कीर्ति गाई गई है और निरंतर चल रहे युद्धों और पशुहरणों का बारंबार उल्लेख है। इसे पता चलता है कि तमिल लोग आरंभ में पशुचारक थे।
सबसे पुरानी महापाषाणिक लोग मूलत: पशुचारक , शिकारी या मछुए मालूम होते हैं , हालांकि वे चावल भी पैदा करते थे।
प्रायद्वीपीय भारत में कई पुरास्थलों से हंसिया और फावड़े तो मिले हैं परंतु फाल का अभाव है।
लोहे की जो अन्य वस्तुएं खुदाई में मिली है वे मुख्यत: युद्ध और शिकार की है।
संगम ग्रंथों से प्रकट होता है कि युद्ध की लूट से लोगों का अच्छा निर्वाह होता था। उनमें यह भी कहा गया है कि जब वीर मरता है तो वह पत्थर के टुकड़े के तुल्य हो जाता है।
गाय या अन्य वस्तुओं के लिए लड़ते-लड़ते मरने वाले वीरों के सम्मान में ‘ वीराकल ‘ अर्थात स्मारक स्वरूप वीर – प्रस्तर खड़ा किया जाता था। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
संभव है कि संगम साहित्य मे वर्णित सामाजिक विकास की आरंभिक अवस्था आरंभिक महापाषाण अवस्था से संबंद्ध हो।
संगम ग्रंथों का बहुत कुछ अंश , संस्कृत और प्राकृत जानने वाले ब्राह्मण पंडितों की रचना है।
उपदेशात्मक ग्रंथों में ईस्वी सन की आरंभिक सदियों का प्रतिबिंब है। उनमें न केवल राजा और राज्यसभा के लिए , बल्कि विविध सामाजिक और व्यावसायिक वर्गों के लिए भी अचार – नियम बताए गए हैं।
ग्रंथों में ग्रामदान का तथा राजाओं के सूर्यवंश और चंद्रवंश का भी उल्लेख है। यह प्रथा उत्तर भारत में ईसा की छठी सदी के आसपास शुरू हुई।
‘ तोलकाप्पियम ‘ व्याकरण और अलंकारशास्त्र का ग्रंथ है।
‘ तिरुकुरल ‘ एक अन्य महत्वपूर्ण तमिल ग्रंथ है जिसमें दार्शनिक विचार और सूक्तियां हैं। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
तमिल में दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं – ‘ सिलप्पदिकारम ‘ और ‘ मणिमेकले ‘। इन दोनों की रचना ईशा की छठी सदी के आसपास हुई।
‘ सिलप्पदिकारम ‘ तमिल साहित्य का उज्जवलतम रत्न माना जाता है। यह एक प्रेम कथा है जिसमें ‘ कोवलन ‘ नामक एक अमीर अपनी कुलीन धर्म पत्नी ‘ कन्नगी ‘ की उपेक्षा करके कावेरीपटट्नम की ‘ माधवी ‘ नामक वेश्या से प्रेम करता है। इसका रचयिता संभवत: जैन था।
‘ मणिमेकले ‘ की रचना मदुरा के एक अनाज व्यापारी ने की। इसमें कोवलन और माधवी के संसर्ग से उत्पन्न कन्या के साहसिक जीवन का वर्णन है। यह महाकाव्य धार्मिक अधिक है , साहित्यिक कम।
दोनों महाकाव्यों की प्रस्तावना में कहा गया है कि दोनों के लेखक ईसा की दूसरी सदी में राज करने वाले चेर राजा ‘ सेनगुट्टुवन ‘ के मित्र और समकालीन थे। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
दोनों महाकाव्य ईसा की छठी सदी तक के तमिलों के सामाजिक और आर्थिक जीवन का आभास देते हैं।
तमिल लोग ईस्वी सन के आरंभ के पहले से ही लिखना जानते थे।
ब्राह्मी लिपि में लिखे 75 से भी अधिक छोटे-छोटे अभिलेख प्राकृतिक गुफाओं में विशेषकर मदुरै क्षेत्र में पाए गए हैं। इनमें प्राकृत शब्दों से मिश्रित तमिल भाषा का प्राचीनतम स्वरूप दिखाई देता है। ये ईसा -पूर्व दूसरी पहली सदियों के हैं जब जैन और बौद्ध धर्मप्रचारकों का इस इलाके में प्रवेश हुआ।
संगम साहित्य के प्रचुर – अंश ईसा सन की आरंभिक सदियों में लिखे गए हैं , हालांकि उनका अंतिम संकलन 600 ई के आस – पास हुआ। सुदूर दक्षिण में इतिहास का आरंभ
MCQ
प्रश्न 1 – ‘ महापाषाण ‘ कहलाती थी –
उत्तर – पत्थरों से घिरे कब्र
प्रश्न 2 – ईसा – पूर्व दूसरी सदी तक प्रायद्वीप के उच्च भागों में बसने वाले लोग कहलाते थे –
उत्तर – महापाषाण निर्माता
प्रश्न 3 – महापाषाण कब्रों में खेती के औजारों की तुलना में अधिक पाए गए हैं –
उत्तर – लड़ाई और शिकार के हथियार
प्रश्न 4 – महापाषाणिक लोग प्रायद्वीप के सारे ऊंचे इलाकों में पाए जाते हैं , लेकिन उनका जमाव अधिक प्रतीत होता है –
उत्तर – पूर्वी आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में
प्रश्न 5 – महापाषाणिक संस्कृति का आरंभ माना जा सकता है –
उत्तर – लगभग 1000 ईसा – पूर्व से
प्रश्न 6 – महापाषणिक लोग बसने और शवों को दफनाने के लिए निर्भर करते थे –
उत्तर – पहाड़ियों की ढलानों पर
प्रश्न 7 – उत्तर और सुदूर दक्षिण कहलाता है –
उत्तर – ‘ तमिलकम ‘ या ‘ तमिषकम ‘
प्रश्न 8 – कौन – सी शताब्दी में ब्राह्मणिक प्रभाव भारी मात्रा में ‘ तमिलकम ‘ में पहुंचा ?
उत्तर – ईशा की चौथी शताब्दी में
प्रश्न 9 – पांड्यों का उल्लेख सर्वप्रथम किसने किया है ?
उत्तर – मेगास्थनीज
प्रश्न 10 – पाण्ड्य समाज में कुछ मातृतन्त्रात्मक प्रभाव का पता चलता है। पाण्ड्य राज्य की राजधानी थी –
उत्तर – मदुरै
प्रश्न 11 – ईशा की आरंभिक सदियों में तमिल – परिषदों में संकलित साहित्य किस नाम से विख्यात है जिसमे पाण्ड्य राजाओं का उल्लेख है ?
उत्तर – संगम
प्रश्न 12 – किस राजा ने रोमन सम्राट ‘ ऑगस्टस ‘ के दरबार में राजदूत भेजे ?
उत्तर – पाण्ड्य
प्रश्न 13 – चोल राज्य मध्य काल के आरंभ में क्या कहलाता था ?
उत्तर – चोलमण्डलम ( कोरोमंडल )
प्रश्न 14 – चोल राज्य की राजनीतिक सत्ता का केंद्र था –
उत्तर – उरैयूर
प्रश्न 15 – ईसा – पूर्व दूसरी सदी के मध्य में किस चोल राजा ने श्रीलंका पर विजय की और लगभग 50 वर्षों तक वहां शासन किया ?
उत्तर – एलारा
प्रश्न 16 – किस शासक के द्वारा पुहार ( कावेरीपट्टनम ) की स्थापना की गई ?
उत्तर – कारैकाल
प्रश्न 17 – रोमानों ने अपने हित की रक्षा के लिए सेना की दो टुकड़ियाँ कहाँ स्थापित की जिसकी पहचान चेर क्षेत्र में ‘ क्रांगनोर ‘ से की जाती है ?
उत्तर – मुजिरीस
प्रश्न 18 – प्रायद्वीपीय भारत में किस स्थान पर रोमनों ने ऑगस्टस का मंदिर बनवाया था ?
उत्तर – मुजिरीस
प्रश्न 19 – चेर कवियों के अनुसार उनका सबसे बड़ा राजा कौन था जिसे लाल या भला चेर भी कहा जाता था ?
उत्तर – सेनगुट्टुवन
प्रश्न 20 – किस क्षेत्र के बारे में यह कहावत है कि ” जितनी जमीन में एक हाथी लेट सकता था उतनी जमीन सात आदमियों का पेट भर सकती है ” ?
उत्तर – कावेरी डेल्टा
प्रश्न 21 – तमिल भूमि में ब्राह्मण का दर्शन सबसे पहले किस युग में होता है ?
उत्तर – संगम युग
प्रश्न 22 – ‘ एनाडि ‘ किसकी उपाधि थी ?
उत्तर – सेनाध्यक्षों की
प्रश्न 23 – चोल और पाण्ड्य दोनों राज्यों में असैनिक और सैनिक दोनों तरह के अधिकारियों के पद पर रखे जाते थे –
उत्तर – ‘ वल्लाल ‘ या धनी किसान
प्रश्न 24 – उपलब्ध संगम साहित्य कब संकलित किया गया ?
उत्तर – लगभग 300 ई और 600 ई के बीच
प्रश्न 25 – वह आख्यानात्मक ग्रंथ जिसमे 18 मुख्य ग्रंथ आते है –
उत्तर – मेलकणक्कु
प्रश्न 26 – वह उपदेशात्मक ग्रंथ जिसमे 18 लघु ग्रंथ है –
उत्तर – कीलकणक्कु
प्रश्न 27 – आख्यानात्मक ग्रंथों को कहते हैं –
उत्तर – ‘ वीरगाथा काव्य ‘
प्रश्न 28 – व्याकरण और अलंकारशास्त्र का ग्रंथ है –
उत्तर – तोलकाप्पियम
प्रश्न 29 – तमिल ग्रंथ जिसमें दार्शनिक विचार और सूक्तियां हैं –
उत्तर – तिरुकुरल
प्रश्न 30 – तमिल में दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं –
उत्तर – ‘ सिलप्पदिकारम ‘ और ‘ मणिमेकले ‘
प्रश्न 31 – किस तमिल महाकाव्य में कोवलन तथा माधवी की प्रेम कथा है ?
उत्तर – सिलप्पदिकारम
प्रश्न 32 – किस तमिल महाकाव्य में कोवलन और माधवी के संसर्ग से उत्पन्न कन्या के साहसिक जीवन का वर्णन है ?
उत्तर – मणिमेकले