उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष - 2
उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2 – चौदहवीं सदी में मंगोल साम्राज्य के विघटन के बाद तैमूर ने एक बार फिर तूरान और ईरान को एक शासन – सूत्र में बांध दिया था। तैमूर का साम्राज्य बोलूगा नदी के निचले बहाव से लेकर सिंधु नदी तक फैला हुआ था।
तैमूर ने साहित्य एवं कला को प्रश्रय दिया और उसके काल में समरकंद तथा हैरात पश्चिम एशिया के सांस्कृतिक केंद्र बन गए।
पंद्रहवी सदी के उत्तरार्ध में तैमूरी राजवंश की शक्ति का तेजी से क्षय हुआ। इससे दो नए तत्वों को उभरने का मौका मिला।
उत्तर में उजबेक नामक एक तुर्क मंगोल कबीले के लोग ट्रांस – आक्सियाना में उतर आए। उजबेक लोग मुसलमान तो बन गए थे , लेकिन तैमूर घराने के लोग उन्हें नीची निगाह से देखते थे और असंस्कृत तथा बर्बर मानते थे।
परिणामस्वरुप पश्चिम की ओर सफावी नामक एक नए राजवंश ने ईरान पर अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू कर दिया।
सफावी लोग हजरत मुहम्मद को अपना पूर्वज मानने वाले संतों के एक संप्रदाय के वंशज थे। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
सफावी , शिया संप्रदाय के हिमायती थे और जो लोग शिया संप्रदाय के सिद्धांतों को मानने को तैयार नहीं थे , उन पर वे जोर – जुल्म करते थे। उजबेक लोग सुन्नी थे।
ईरान से भी पश्चिम की ओर उस्मानिया तुर्कों की शक्ति का विकास हुआ। वे पूर्वी यूरोप और साथ ही इराक तथा ईरान पर भी अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे।
1494 ईस्वी में 14 वर्ष की अल्पायु में बाबर ट्रांस – ऑक्सियाना के फरगाना नामक एक छोटे से राज्य की गद्दी पर बैठा।
बाबर ने समरकंद पर दो बार कब्जा किया , लेकिन दोनों बार वह जल्दी से उसके हाथों से निकल गया। दूसरी बार उजबेक सरदार शैबानी खां को बाबर को निकाल बाहर करने के लिए निमंत्रित किया गया था।
शैबानी खां ने बाबर को हराकर समरकंद पर कब्जा कर लिया। शीर्घ ही उसने बाकी के तैमूरी राज्यों को भी जीत लिया। लाचार होकर बाबर ने काबुल की ओर रुख किया और 1504 ईस्वी में उसे जीत लिया। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
भारत – विजय
बाबर कहता है कि जब से उसने कबूल पर अधिकार किया ( 1504 ईस्वी ) तब से लेकर पानीपत में हासिल जीत तक ‘ मैंने हिंदुस्तान को जीतने के बारे में सोचना कभी बंद नहीं किया था ‘।
बाबर भी भारत में धन-धान्य की ख्याति सुनकर उसकी ओर आकर्षित हुआ था। उसने सुन रखा था कि भारत सोने – चांदी का देश है।
बाबर की भारत – विजय की आकांक्षा का एक और कारण यह था कि काबुल से बहुत मामूली आमदनी होती थी। उसे काबुल पर उज़बेकों के हमले का भी खतरा था , और मुसीबत में शरण लेने के लिए तथा उज़बेकों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई करने के लिए भारत एक उपयुक्त स्थान था।
अफगान सरदारों में एक सबसे दुर्धर्ष व्यक्ति पंजाब का सूबेदार दौलत खां लोदी था। वास्तव में दौलत खां पंजाब का लगभग स्वतंत्र शासक था।
1518 – 19 ईस्वी में बाबर ने भिरा के शक्तिशाली दुर्ग को जीत लिया। जब बाबर काबुल लौटा तो दौलत खां ने उसके प्रतिनिधि को भिरा से निकाल दिया।
1520 – 21 ईस्वी में बाबर ने एक बार फिर सिंधु नदी पार की और आसानी से भिरा और स्यालकोट को जीत लिया। इस तरह हिंदुस्तान में दाखिल होने के दोनों दरवाजे अब उसके कब्जे में थे।
दौलत खां के बेटे , दिलावर खां के नेतृत्व में एक दूतमंडल बाबर के पास पहुंचा। उन्होंने बाबर को भारत आने के लिए निमंत्रित किया और सुझाव दिया कि उसे , इब्राहिम लोदी को अपदस्थ कर देना चाहिए , संभव है राणा सांगा का भी कोई संदेश वाहक उसी समय भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण लेकर बाबर के पास पहुंचा हो। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
पानीपत की लड़ाई ( 20 अप्रैल , सन 1526 )
इब्राहिम लोदी ने अनुमानत: 100000 सैनिक को और 1000 हाथियों की विशाल वाहिनी लेकर पानीपत में बाबर का सामना किया। चूँकि भारतीय सेना में आमतौर पर नौकरो – चाकरों के बड़े दल हुआ करते थे , इसलिए इब्राहिम लोदी की सेना में लड़ैतों की संख्या इससे काफी कम रही होगी।
बाबर ने मोर्चे को मजबूत बनाते हुए अपनी सेना के एक बाजू को पानीपत में विश्राम दे दिया और दूसरे को पेड़ों की डोलियां और टहनियों से भरी एक खाई के जरिए सुरक्षा प्रदान की।
सामने उसने गाड़ियों को आपस में बांधकर उनकी एक कतार रक्षा – प्राचीर की तरह खड़ी कर दी। दो-दो गाड़ियों के बीच छाती की ऊंचाई पर तोपें रखने की जगह बना दी गई। इस युक्ति को बाबर ने उस्मानिया ( रुसी ) युक्ति कहा।
बाबर ने दो कुशल उस्मानिया तोपचियों – उस्ताद अली और मुस्तफा – की सेवाएं भी प्राप्त कर ली थी।
भारत में बारूद का उपयोग धीरे-धीरे विकसित हो रहा था। बाबर का कहना है कि उसने सर्वप्रथम इसका इस्तेमाल भीरा के किले पर हमला करते समय किया था। स्पष्ट ही , भारत को बारूद की जानकारी थी , लेकिन उत्तर भारत में इसका आम उपयोग बाबर के आगमन के समय ही शुरू हुआ। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
बाबर अपनी जीत का मुख्य श्रेय अपने धनुर्धरों को देता है।
पानीपत की प्रथम लड़ाई ( 20 अप्रैल 1526 ई ) को भारतीय इतिहास के निर्णायक लड़ाइयों में गिना जाता है। इस लड़ाई से लोदी शक्ति की रीढ़ टूट गई और दिल्ली तथा आगरा तक के पूरे क्षेत्र पर बाबर का नियंत्रण स्थापित हो गया।
इस क्षेत्र पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाने के लिए बाबर को दो बड़ी और कठिन लड़ाइयां लड़नी पड़ी – एक मेवाड़ के राणा सांगा के विरुद्ध और दूसरी पूर्वी अफ़गानों के खिलाफ।
इस दृष्टि से पानीपत की लड़ाई राजनीतिक दृष्टि से उतनी निर्णायक नहीं थी जितनी की मानी गई है। उसका उत्तर भारत का प्रभुत्व स्थापित करने के संघर्ष में एक नए दौर का सूत्रपात माना जा सकता है।
बाबर ने रोजनामाचे में दर्ज किया है ” अब फिर हमें कबूल की गरीबी नहीं चाहिए। ” उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
खानवा की लड़ाई
बाबर ने राणा सांगा पर समझौता भंग करने का आरोप लगाया। वह कहता है कि उसे राणा सांगा ने भारत आने को आमंत्रित किया था और इब्राहिम लोदी के खिलाफ उसका साथ देने का वचन दिया था , लेकिन जब वह दिल्ली और आगरा जीतने में जुटा हुआ था , तब राणा हाथ धरे बैठा रहा।
बहुत से अफगान राणा सांगा के साथ हो गए। इनमें इब्राहिम लोदी का छोटा भाई महमूद लोदी भी था जिसे सांगा की जीत होने पर दिल्ली की गद्दी वापस पा जाने की आशा थी। मेवात का शासक हसन खां मेवाती भी राणा के साथ हो गया।
राणा सांगा की ख्याति एवं इसकी प्रारंभिक सफलता की जानकारी से बाबर की सेना में पस्ती छा गई। उनमें जोश भरने के लिए बाबर ने पूरी गंभीरता से ऐलान किया कि यह लड़ाई है , अपने को सच्चा मुसलमान दिखाने के लिए।
लड़ाई से एक दिन पहले बाबर ने अपने सैनिकों के सामने शराब की सुराहियाँ उलीच दी और सारे पैमाने तोड़ डालें। उसने अपने राज्य – भर में शराब की खरीद – बिक्री पर पाबंदी लगा दी और मुसलमानों पर से सारी चुंगी उठा ली। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
खानवा की लड़ाई ( 1527 ईस्वी ) में मुकाबला जमकर हुआ। बाबर के अनुसार , सांगा की सेना में दो लाख से अधिक सैनिक थे। इनमें 10000 अफगान घुड़सवार थे। संभव है , यह आंकड़े भी अतिरंजित हो लेकिन इसमें शक नहीं है कि बाबर की सेना संख्या – बल में कम थी।
सांगा की सेना भयंकर मार – काट के बाद पराजित हो गई। राणा – सांगा बचकर भाग निकला। वह बाबर से फिर संघर्ष करना चाहता था , लेकिन उसके अपने ही सरदारों ने उसे जहर देकर मार दिया , क्योंकि वे राणा के मंसूबों को खतरनाक और आत्मघाती मानते थे।
खनवा की लड़ाई से दिल्ली – आगरा क्षेत्र में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। बाबर ने आगरा से पूर्व की ओर ग्वालियर , धौलपुर आदि कई किलो को जीतकर अपनी स्थिति और भी मजबूत बना ली।
बाबर ने हसन खां मेवाती से छीनकर अलवर के भी एक बड़े हिस्से को अपने राज्य में मिल लिया। उसके बाद वह मालवा क्षेत्र में चंदेरी के राजा मेदिनी राय पर चढ़ गया। एक-एक राजपूत सिपाही अंतिम सांस तक लड़ा और स्त्रियों ने जौहर कर लिया , फिर भी राय की पराजय हुई। इस प्रकार चंदेरी पर भी बाबर का कब्जा हो गया। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
अफगान
अफगान हार तो गए थे , लेकिन मुगल शासन को मन से स्वीकार नहीं कर पाए थे।
अफगान सरदारों की सहायता बंगाल का शासक नुसरत शाह कर रहा था। जिसने इब्राहिम लोदी की एक बेटी से विवाह किया था।
अफगानों की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि उनके पास कोई लोकप्रिय नेता नहीं था। कुछ समय बाद इब्राहिम लोदी का एक भाई महमूद लोदी , जो खनवा में बाबर के खिलाफ लड़ा था , बिहार पहुंचा।
अफगानों ने अपने शासक के रूप में उसका स्वागत किया और वे उसके अधीन शक्ति अर्जित करने में जुट गए।
1529 ई के आरंभ में बनारस के निकट गंगा पार कर लेने पर बाबर का सामना घाघरा नदी के किनारे पार खड़ी अफगानों और नुसरत शाह की संयुक्त सेना से हुआ।
यद्यपि बाबर ने घाघरा नदी पार कर ली थी और अफगान सेना को पीछे हटने पर विवश कर दिया था , तथापि वह वहां निर्णायक जीत हासिल नहीं कर सका। इस बीच वह बीमार हो गया। उसे मध्य एशिया की परिस्थिति की चिंता परेशान कर रही थी। सो उसे अफ़गानों से जैसे – तैसे एक समझौता करना पड़ा।
उसने बिहार पर अपनी थोड़ी – बहुत प्रभुता का दावा जाताया , लेकिन इस प्रदेश के अधिकांश इलाकों को उसने अफगान सरदारों के अधिकार में ही छोड़ दिया। तत्पश्चात वह आगरा लौट गया। इसके कुछ ही दिन बाद वह कबूल जा रहा था तो रास्ते में लाहौर में उसकी मृत्यु हो गई। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
बाबर के भारत आगमन का महत्व
बाबर का भारत में आगमन कई दृष्टि से महत्वपूर्ण था। कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद यह पहला अवसर था जब काबुल और कंधार उस साम्राज्य के अंग बन गए थे जिसमें उत्तर भारत शामिल था। काबुल और कंधार भारत पर आक्रमण के लिए आधार का काम करते रहे थे।
आर्थिक दृष्टि से देखें तो काबुल और कंधार पर नियंत्रण होने से भारत के विदेश व्यापार को बढ़ावा मिला , क्योंकि ये दोनों शहर पूर्व में चीन की ओर तथा पश्चिम में भूमध्य सागर के बंदरगाहों की ओर जाने वाले कारवाओं के प्रस्थान स्थल थे।
बाबर ने भारत में एक नई युद्ध- पद्धति का सूत्रपात किया। बाबर ने दिखाया कि तोपखाने और अश्वारोही सेना के कुशल संयोग से कितना – कुछ हासिल किया जा सकता है। उसकी जीत से भारत में बारूद और तोपखाने की लोकप्रियता तेजी से बड़ी।
बाबर ने फिरोज तुगलक की मृत्यु के बाद छीजती जा रही ताज की प्रतिष्ठा को पुन: स्थापित कर दिया। यद्यपि सिकंदर लोदी और इब्राहिम लोदी ने इस प्रतिष्ठा को वापस लाने की कोशिश की , परंतु उन्हें थोड़ी – बहुत कामयाबी ही मिल पाई।
बाबर को एशिया के दो परम पराक्रमी योद्धा चंगेज खां और तैमूर का वंशज होने का गौरव प्राप्त था। इसलिए उसका कोई भी सरदार उसके साथ समानता का दावा नहीं कर सकता था और न उसकी गद्दी पर आंखें गड़ा सकता था। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
बाबर अपने सिपाहियों की कठिनाइयों में हिस्सेदारी करने को हमेशा तैयार रहता था। वह शराब और अच्छी शोहबत का शौकीन था। लेकिन साथ ही वह कठोर अनुशासनवादी और काम लेने में बहुत सख्त था।
बाबर रूढ़िवादी सुन्नी था। लेकिन वह धर्मांध नहीं था और इस्लाम के धर्म – विशारदों तथा उलेमाओं की बातों पर राज – काज के मामले में ध्यान नहीं देता था।
बाबर ने सांगा के खिलाफ अपनी लड़ाई को जिहाद की संज्ञा दी और जीत के बाद ‘ गाजी ‘ का खिताब अपनाया , लेकिन स्पष्ट है कि उसके कारण राजनीतिक थे।
बाबर को फारसी और अरबी का गहरा ज्ञान था और उसे तुर्की भाषा के , जो कि उसकी मातृभाषा थी , दो सबसे प्रसिद्ध लेखकों में गिना जाता है। उसका प्रसिद्ध संस्मरण ” तुजुक – ए – बाबरी ” विश्व साहित्य की एक अमर कृति मानी जाती है। एक मसनवी तथा एक जाने-माने सूफी संत की रचना का तुर्की भाषा में अनुवाद उसकी अन्य कृतियाँ है।
वह एक गंभीर प्रकृति – विशारद था और उसने भारत की वनस्पतियों तथा जीव – जंतुओं का वर्णन विस्तार से किया है। उसनें कई योजनाबद्ध बगीचे लगवाए और उनमें पानी के तीव्र प्रवाह की व्यवस्था करवाई।
बाबर ने राज्य को एक नई अवधारणा का सूत्रपात किया। इस राज्य का आधार बादशाह की शक्ति और प्रतिष्ठा थी। इसमें धार्मिक और सांप्रदायिक कट्टरवाद के लिए स्थान नहीं था। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
हुमायूँ की गुजरात – विजय और शेरशाह से उसका संघर्ष
बाबर की मृत्यु के बाद दिसंबर 1530 ईस्वी में उसका बेटा हुमायूँ गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी उम्र सिर्फ 23 साल की थी।
जब हुमायूँ आगरा में गद्दी पर बैठा उस समय काबुल और कंधार भी उसमें शामिल थे। काबुल और कंधार हुमायूँ के छोटे भाई कामरान की देख – रेख में थे।
कामरान ने लाहौर और मुल्तान पर कब्जा कर लिया। हुमायूँ अन्यत्र व्यस्त था और गृह – युद्ध नहीं चाहता था , इसलिए उसके सामने इस स्थिति को स्वीकार कर लेने के अलावा कोई चारा नहीं था।
पंजाब और मुल्तान को कामरान के हवाले कर देने का लाभ यह था कि हुमायूँ साम्राज्य की पश्चिमी सीमा की ओर से निश्चित होकर पूर्वी हिस्सों की ओर ध्यान दे सकता था।
1532 ईस्वी में हुमायूँ ने दौराह नामक स्थान पर बिहार को जीतने वाली अफगान सेना को परास्त कर दिया और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जौनपुर पर कब्जा कर लिया ।
इस सफलता के बाद हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डाला। यह सशक्त दुर्ग पूर्वी भारत के प्रवेश द्वार के रूप में जाना जाता था। हाल में वहां शेर खां नामक एक अफगान सरदार के हाथों में चला गया था। 4 महीने की घिरेबंदी के बाद हुमायूँ शेर खां के समझौते के प्रस्ताव पर राजी हो गया। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
इस समझौते के अनुसार चुनार के किले पर शेर खां का कब्जा कायम रहने को था। बदले में उसने मुगलों को प्रति वफादार रहने का वचन दिया और बंधक के रूप में अपना एक बेटा हुमायूँ के पास भेज दिया। बहादुर शाह की बढ़ती हुई शक्ति के कारण हुमायूँ को आगरा लौटने की जल्दी थी , सो उसने समझौते को स्वीकार कर लिया।
बहादुर शाह लगभग हुमायूँ की ही उम्र का सुयोग्य और महत्वाकांक्षी शासक था। 1526 ईस्वी में गद्दी पर बैठते ही उसने मालवा को जीत – लिया और उसके बाद राजस्थान की ओर मुड़ा।
बाद के कुछ कथाओं के अनुसार , इसी समय राणा सांगा की विधवा रानी ने हुमायूँ को राखी भेज कर उससे मदद मांगी थी और हुमायूँ विरोचित आचरण करते हुए उसके गुहार की जवाब में सहायता के लिए पहुंच गया।
किसी भी समकालीन लेखक ने इस बात का कोई उल्लेख नहीं किया है , और संभव है , यह कथा सच न हो। लेकिन यह सच है कि हुमायूं ने आगरा से ग्वालियर की ओर कोच किया। मुगल हस्तक्षेप के भय से बहादुर शाह ने राणा से जैसे – तैसे एक संधि कर ली , और उससे नगद और जिसे भारी हर्जाना वसूल करके किले को उसके कब्जे में छोड़ दिया।
अगले डेढ़ साल हुमायूँ दिल्ली में एक नए नगर के निर्माण में व्यस्त रहा जिसका नाम दिनपनाह रखा गया। यह दोषारोपण भी किया गया है कि हुमायूँ की ऐसी निष्क्रियता का कारण उसकी अफीम खाने की आदत थी। दो में से कोई भी आरोप पुरे तौर पर सही नहीं है। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
हुमायूँ यदा – कदा अफीम खाता तो था लेकिन वह कोई अफीमची नहीं था। दीनपनाह के निर्माण का मकसद दोस्तों और दुश्मनों दोनों को प्रभावित करना था। यदि आगरा को बहादुर शाह से खतरा होता तो दिल्ली दूसरी राजधानी का काम कर सकती थी।
बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर फिर घेरा डाल दिया और इब्राहिम लोदी के एक रिश्तेदार तातार खां को आगरा पर आक्रमण करने के लिए हथियार और आदमी दिए। हुमायूं ने तातार खां की चुनौती को आसानी से विफल कर दिया।
बहादुर शाह के खतरे को समाप्त करने के लिए हुमायूँ ने मालवा और गुजरात पर कब्जा कर लिया। लेकिन हुमायूँ ने जितनी तेजी से मालवा और गुजरात पर अधिकार किया था उतनी ही तेजी से वे उसके हाथ से निकल गए भी गए।
गुजरात को जीतने के बाद हुमायूँ ने उसे अपने छोटे भाई अस्करी के सुपुत्र कर दिया था और खुद मांडू चला गया था। अक्सरी अनुभवहीन था अतः वह जन – विद्रोह और बहादुर शाह द्वारा दोबारा शक्ति अर्जित करने से डर गया और वहां से भाग खड़ा हुआ।
इसके कुछ समय बाद , बहादुर शाह पुर्तगालियों के एक अन्य जहाज पर पुर्तगाली गवर्नर से हुई हाथा – पाई में जहाज से गिर पड़ा और डूबकर मर गया। इसके साथ ही गुजरात की तरफ से मुगल साम्राज्य के लिए बचा – खुचा खतरा भी समाप्त हो गया। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
शेर खां
आगरा से हुमायूँ की गैर हाजिरी ( फरवरी 1535 ई से फरवरी 1537 ई ) के दौरान शेर खां ने अपनी स्थिति और भी मजबूत कर ली थी। अब वह बिहार का निर्विवाद स्वामी था।
एक नई सेना सज्जित करके हुमायूँ ने शेर खां के खिलाफ कूच कर दिया और 1537 ई की अंतिम दिनों में चुनार पर घेरा डाल दिया। सिद्धहस्त तोपची रूमी खां की तमाम कोशिशों के बावजूद उस पर कब्जा करने में हुमायूँ को 6 महीने लग गए।
इस बीच शेर खां ने धोखे से रोहतास के मजबूत किले पर कब्जा कर लिया। अपने परिवार को वह वहां सुरक्षित छोड़ सकता था। उसके बाद उसने दूसरी बार बंगाल पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी गोंड पर अधिकार कर लिया।
गौड़ को जीतने के बाद शेर खां ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि वह बंगाल को उसके अधिकार में रहने दे तो शेर खां बिहार उसे सौंप देगा और 10 लाख दीनार का सालाना कर अदा किया करेगा।
लेकिन हुमायूँ बंगाल को शेर खां के हाथों में छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। बंगाल के पास भरपूर सोना था। वहां माल का उत्पादन खूब होता था और वह विदेशी व्यापार का केंद्र भी था। हुमायूँ ने शेर खां के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और बंगाल पर चढ़ाई करने का फैसला कर लिया। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
बंगाल की ओर हुमायूँ का कूच निरुद्देश्य किस्म का था। लगभग सालभर बाद उसकी सेना पर चौसा में जो विपत्ति टूटी इसकी शुरुआत इस कूच के साथ ही हो गई थी।
शेर खां बंगाल से दक्षिण बिहार आ गया था। उसने बिना किसी प्रतिरोध के हुमायूँ को बंगाल में आगे बढ़ने दिया ताकि वह उसके संचार को भंग करके बंगाल में घेर ले।
छोटे भाई हिंदाल की महत्वाकांक्षा और शेर खां की सरगर्मियों के कारण आगरा से हुमायूं के सारे संबंध टूट गए। उसे न वहां से कोई समाचार मिल रहा था और न रसद – कुमुक।
तीन-चार महीने गौड़ में बिताने के बाद वहां एक छोटा – सा रक्षक दल तैनात करके हुमायूँ ने आगरा के लिए वापस कूच किया। बरसात का मौसम शुरू हो गया था और अफगान बार-बार हमले कर रहे थे। लेकिन इसके बावजूद हुमायूँ अपनी सेना को बक्सर के पास चौसा तक ले आया।
शेर खां के शांति के एक प्रस्ताव के बहकावे में आकर हुमायूँ कर्मनासा नदी पार कर उसके पूर्वी तट पर आ गया ,जहां तैयार बैठे अफ़ग़ान घुड़सवारों की एक फौजी को उस पर हमला करने का पूरा मौका मिल गया। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
हुमायूँ ने न केवल खामी – भारी राजनीतिक समझ का बल्कि दोषपूर्ण सेनापतित्व का भी परिचय दिया। उसने अपने लिए गलत मैदान का चुनाव किया और खुद को ऐसी स्थिति में डाल लिया कि उसे संभालने का मौका ही नहीं मिला।
हुमायूँ बहुत मुश्किल से लड़ाई के मैदान से जान बचाकर भागा और एक भिश्ती की सहायता से उसने कर्मनासा को तैयार कर पार किया।
चौसा की पराजय ( मार्च 1539 ई ) के बाद , हुमायूँ ने फिर से सेना एकत्र करके शेर खां पर आक्रमण कर दिया। कन्नौज की इस लड़ाई ( मई 1540 ईस्वी ) में उसने अफ़गानों का जमकर मुकाबला किया। हुमायूँ के दोनों भाई , हिंदाल और अस्करी बहादुरी से लड़े , लेकिन मुगलों के हिस्से में नाकामयाबी ही आई।
कन्नौज की लड़ाई ने हुमायूँ और शेर खां के बीच के संघर्ष का फैसला कर दिया था। अब हुमायूँ बिना बादशाहत का बादशाह था। काबुल और कंधार कामरान के हाथों में था। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
अगले ढाई वर्षो तक वह सिंध और उसके आसपास के इलाकों में भटकता रहा। आखिर में उसे ईरान के शाह के दरबार में शरण मिली और 1545 ईस्वी में उसी की सहायता से उसने कबूल और कंधार पर फिर से अधिकार कर लिया।
स्पष्ट है कि शेर खां के खिलाफ हुमायूँ की विफलता का मुख्य कारण यह था कि वह अफ़गानों की शक्ति का सही अंदाजा नहीं लगा पाया।
हुमायूँ का जीवन बहुत रुमानियत भरा था वह शाह से फकीर बना और फिर फकीर से शाह। 1555 ईस्वी में सूर साम्राज्य के विघटन के बाद उसने दिल्ली पर फिर से अधिकार कर लिया।
वह दिल्ली के अपने किले की पुस्तकालय की इमारत की पहली मंजिल से गिर गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसकी प्रिय पत्नी ने किले के निकट उसका एक शानदार मकबरा बनवाया। यह मकबरा उत्तर भारत की स्थापत्य शैली में एक नए दौर की शुरुआत का सूचक है। संगमरमर का दूसरा भव्य गुंबद इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
शेरशाह और सुर साम्राज्य ( 1540 ईस्वी – 55 ईस्वी )
शेरशाह दिल्ली की गद्दी पर 67 साल की ढलती उम्र में बैठा। उसका नाम फरीद था और उसका पिता जौनपुर का एक छोटा सा जागीरदार था। अपने पिता की जागीर की देख – रेख की जिम्मेदारी संभालते हुए फरीद ने प्रशासन का अच्छा अनुभव प्राप्त करा।
फरीद को शेर खां का ख़िताब उसके संरक्षक ने एक शेर को मरने पर दिया था। शेरशाह ने मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के बाद से उत्तर भारत में स्थापित सबसे बड़े साम्राज्य पर शासन किया।
1532 ईस्वी में मारवाड़ की गद्दी पर बैठने वाले राजा मालदेव ने बहुत तेजी से पूरे पश्चिमी और उत्तरी राजपूताना पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। राजस्थान में एक बड़ा केंद्रीकृत राज्य स्थापित करने के मालदेव के प्रयत्नों को दिल्ली और आगरा के लिए खतरा माना जाएगा ,यह बात निश्चित थी।
राजपूत और अफगान फौजों की भिड़ंत ( 1544 ई ) अजमेर और जोधपुर के बीच सामेल नामक स्थान में हुई। सामेल की लड़ाई ने राजस्थान के भाग्य का फैसला कर दिया।
शेरशाह अजमेर और जोधपुर को जीतकर मेवाड़ की ओर मुड़ा। राणा प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं था सो उसने चित्तौड़ की चाबियां शेरशाह को भिजवा दी। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
शेरशाह का आखिरी सैनिक अभियान कालिंजर के खिलाफ था। कलिंजर एक मजबूत किला था जिस पर अधिकार करने का मतलब बुंदेलखंड में आसानी से पैर जमा लेना था।
कलिंजर की घेराबंदी के दौरान एक तोप फट गई , जिससे शेरशाह बुरी तरह से घायल हो गया। किले पर अधिकार हो जाने की खबर सुनने के बाद ( 1545 ईस्वी ) में उसकी मृत्यु हो गई।
अब शेरशाह का दूसरा बेटा इस्लाम शाह गद्दी पर बैठा। उसने 1553 ई तक राज्य किया। उसने अपना ज्यादातर समय अपने भाइयों के विद्रोहों को दबाने और अफ़गानों के बीच होने वाले कबीलाई झगड़ों को निपटने में लगाना पड़ा।
उसकी मृत्यु कम उम्र में ही हो गई जिसके बाद उसके उत्तराधिकारी में गृह – युद्ध छिड़ गया। इससे हुमायूँ को भारत पर अपना खोया हुआ साम्राज्य वापस पाने का मौका मिल गया। 1555 ईस्वी में दो घमासान लड़ाईयों में अफ़गानों को परास्त करके उसने दिल्ली और आगरा पर फिर से अधिकार कर लिया। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
शेरशाह की देन
अपने साम्राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक शांति – व्यवस्था की पुर्नस्थापना शेरशाह के प्रमुखतम योगदानों में गिनी जा सकती है। डाकुओं और लुटेरों से वह सख्ती से पेश आया और भूराजस्व अदा करने अथवा सरकार के हुक्म मानने से इनकार करने वाले जमीदारों के साथ उसने बहुत कड़ाई से कम लिया।
शेरशाह का इतिहासकार अब्बास सरबानी बताता है कि जमींदार लोग इतने डर गए थे कि उनमें से किसी ने भी उसके खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाने या उसके अपने इलाके से गुजरने वाली यात्रियों को सताने की हिम्मत नहीं की।
शेरशाह ने पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर बंगाल में सोना गांव तक पहुंचने वाली पुरानी शाही सड़क ( जिसे ग्रेंड ट्रंक रोड कहा जाता है ) को फिर से चालू करवाया। उसने आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ तक एक सड़क भी बनवाई जो स्पष्ट ही गुजरात के बंदरगाहों तक पहुंचने वाली सड़क से जुडी हुई रही होगी। एक तीसरी सड़क उसने लाहौर से मुल्तान तक बनवाई।
यात्रियों की सुविधा के लिए उसने इन सड़कों पर दो-दो कोस ( लगभग 8 किलोमीटर ) की दूरी पर सरायें बनवाई। इन सरायों में हिन्दुओं और मुसलमानों के रहने के लिए अलग-अलग स्थानों की व्यवस्था की गई। हर सराय में एक शाहना के अधीन कई चौकीदार हुआ करते थे।
बताया जाता है कि शेरशाह के ने कुल 1700 सराएँ बनवाए। उनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि वे कितनी मजबूत थी। शेरशाह की बनवाई सड़क और सरायों को ” साम्राज्य की धमनियां ” कहा गया है। सरायों का इस्तेमाल समाचार – सेवाओं के लिए , अर्थात डाक – चौकियों के तौर पर भी किया जाता था। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
शेरशाह के पूरे साम्राज्य में व्यापार के माल पर सिर्फ दो स्थानों में चुंगी लगती थी।
शेरशाह ने लोगों को शेख निजामी के इस सिद्धांत को ध्यान रखने का निर्देश दिया कि ” यदि तुम्हारे इलाके में किसी व्यापारी की मृत्यु हो जाए तो उसके माल पर हाथ डालना विश्वास घात है “।
शेरशाह ने स्पष्ट कर दिया कि किसी व्यापारी की जो भी क्षति होगी उसकी जिम्मेदारी स्थानीय मुकद्दमों और जमीदारों की होगी। माल चोरी होने पर मुकद्दमों और जमीदारों को उसे बरामद करना होता था। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता था तो उसे वहीं सजा दी जाती थी जो चोरों और डाकुओं को सजा थी।
सड़कों पर होने वाली हत्याओं के मामले में भी यही कानून लागू था। अब्बास सरवानी को व्यंजनापूर्ण भाषा में कहे तो ” कोई जर्जर बूढी औरत भी अपने सिर पर सोने के गहनों से भरी टोकरी रखकर यात्रा पर निकल जाती थी “।
शेरशाह ने सोने , चांदी और तांबे के सुंदर मानक सिक्के ढलवाए। उसके चांदी के सिक्के इतनी अच्छी तरह डाले हुए थे कि वह उसकी मृत्यु के बाद भी सदियों तक मानक सिक्कों के रूप में चलते रहे। साम्राज्य – भर में मानकीकृत माप – तौल चलाने के उसके प्रयत्नों से भी वाणिज्य को बढ़ावा मिला। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
शेरशाह ने सल्तनत काल से प्रचलित प्रशासनिक विभाजनों में बहुत परिवर्तन नहीं किए। कई गांवों को मिलाकर एक परगना बनता था। परगना शिकदार के जिम्मे होता था , जो शांति व्यवस्था का ध्यान रखता था जबकि मुंसिफ या आमिल भूराजस्व की उगाही की देख – रेख करता था। लेखे ( हिसाब – किताब ) फारसी और स्थानीय भाषा ( हिंदवी ) दोनों में रखे जाते थे।
परगना से ऊपर की इकाई शिक या सरकार थी जो शिकदार – ए – शिकदारान या फौजदार और एक मुंसिफ – ए – मुंसिफान के जिम्मे होती थी।
कई सरकारों को मिलाकर सूबा बनता था , लेकिन शेरशाह के काल में सूबों की खास जानकारी हमें नहीं।
शेरशाह ने भूराजस्व प्रणाली , सेना और न्याय – व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया। शेरशाह का आग्रह बोई गई जमीन की का पैमाइश पर था। भिन्न – भिन्न प्रकार की फसलों में राज्य का हिस्सा निर्धारित करते हुए दरों की सूची ( जिसे ‘ रे ‘ कहते थे ) तैयार की गई। इस तरह राज्य का जो हिस्सा निकला उसे संबंधित क्षेत्र में चल रही कीमतों के आधार पर नगद में कूता जा सकता था। राज्य का हिस्सा उपज का एक – तिहाई था।
जमीन को उत्तम , मध्यम और निम्न इन तीन दर्जों में बंटा दिया गया था। फिर औसत उपज का हिस्सा लगाया गया और उसका एक – तिहाई राज्य का हिस्सा हो गया। किसानों को सुविधा अनुसार जिंस या नकद अदायगी की छूट थी हालांकि सरकार को नकद अदायगी ज्यादा पसंद थी। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2

बोई गई जमीन के क्षेत्रफल , लगाई गई फसलों की किस्में और प्रत्येक किसान द्वारा देय लगान एक कागज में दर्ज होता था , जिसे पट्टा कहते थे। हर किसान को पट्टे की पूरी जानकारी दे दी जाती थी। किसी को भी किसान के ऊपर से कोई वसूली करने की इजाजत नहीं थी।
अकाल तथा दूसरी प्राकृतिक विपत्तियों का मुकाबला करने के लिए प्रति बीघा ढाई सेर की दर से एक अतिरिक्त शुल्क भी वसूल किया जाता था।
शेरशाह को किसानों की भलाई की बहुत फिक्र रहती थी। वह कहा करता था – ” किसान लोग निरीह होते हैं। जिनके हाथों में सत्ता होती है। उन्हीं के अधीन हो जाते हैं। अगर मैं उन पर जुल्म करूंगा तो वह अपना गांव – घर छोड़ देंगे, और देश बर्बाद और वीरान हो जाएगा जिसे फिर से खुशहाल होने में लंबा समय लगेगा “।
शेरशाह ने एक शक्तिशाली सेना खाड़ी की। उसने सिपाहियों की सीधी भरती का सिलसिला शुरू कर दिया। जिसके लिए हर रंग रूप के चरित्र की जांच की जाती थी। हर सिपाही का पूरा व्यक्तिगत वर्णन दर्ज रहता था जिसे चेहरा कहते थे।
उसके घोड़े पर शाही निशान लगा होता था ताकि कोई उसके बदले घटिया दर्जे के घोड़े का इस्तेमाल न कर सके। मालूम होता है कि ‘ दाग – प्रणाली ” के नाम से ज्ञात यह प्रणाली शेरशाह ने अलाउद्दीन से उधार ली थी।
न्याय पर शेरशाह का बहुत जोर रहता था। वह कहा करता था , ” न्याय धार्मिक कृत्यों में सबसे श्रेष्ठ है , और इसका अनुमोदन काफिर तथा मुसलमान दोनों करते हैं “। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
अलग – अलग स्थानों में न्याय करने के लिए ” काजी ” नियुक्त किए जाते थे। लेकिन गांवों में पहले की ही तरह फौजदारी और दीवानी दोनों तरह के मामलों का निपटारा स्थानीयत तौर पर पंचायतें और जमींदार ही करते थे।
शेरशाह के बेटे और उत्तराधिकारी इस्लाम शाह ने न्याय के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। उसने इस्लामी कानून की एक संहिता तैयार करवा दी। इस्लाम शाह ने अमीरों की सत्ता और विशेषाधिकारों पर भी अंकुश लगाने और सिपाहियों को नगद वेतन देने की कोशिश की।
शेरशाह एक महान निर्माता भी था। अपने जीवन काल में ही उसने सासाराम में अपने लिए जो मकबरा बनवाया वह स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना माना जाता है। इसे पूर्वर्ती स्थापत्य शैली की चरम परिणति और शैली का आरंभिक बिंदु समझा जाता है।
शेरशाह ने दिल्ली के निकट यमुना के किनारे एक नया नगर भी बसाया। अब उसमें से सिर्फ पुराना किला और उसके अंदर बनी एक मस्जिद शेष बची है। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
शेरशाह ने विद्वानों को भी संरक्षण दिया। हिंदी की कुछ उत्कृष्ट रचनाएं उसी के शासनकाल में पूरी की गई। उनमें से एक मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत काव्य – ग्रंथ भी था।
शेरशाह धर्मांध नहीं था लेकिन राजनीतिक कार्रवाइयों का औचित्य दिखाने के लिए कभी-कभी धार्मिक नारों का इस्तेमाल उसके द्वारा किया गया। मालवा में रायसेन का किला खाली कर देने के बाद भी पूरनमल और उसके साथियों को धोखे से की गई हत्या इसका एक उदाहरण है।
हिंदुओं से जरिया की वसूली जारी रही , और उसके अमीर लगभग निरपवाद रूप से अफगान लोग ही थे।
इस प्रकार सुरों के अधीन राज्य नस्ल और कबीले पर आधारित एक अफगान संस्था बना रहा। बुनियादी परिवर्तन अकबर के उदय के साथ ही हुआ। उत्तर भारत में साम्राज्य के लिए संघर्ष – 2
Short Questions And Answers
प्रश्न 1 – समरकंद तथा हैरात तैमूर के काल में पश्चिम एशिया के बन गए –
उत्तर – सांस्कृतिक केंद्र
प्रश्न 2 – उजबेक लोग कौन थे ?
उत्तर – सुन्नी
प्रश्न 3 – सफावी लोग किसको अपना पूर्वज मानने वाले संतों के एक संप्रदाय के वंशज थे ?
उत्तर – हजरत मुहम्मद
प्रश्न 4 – सफावी वंश का संप्रदाय कौन-सा था ?
उत्तर – शिया
प्रश्न 5 – बाबर ने काबुल कब जीता ?
उत्तर – 1504 ईस्वी
प्रश्न 6 – जब बाबर भारत आया उस समय पंजाब का सूबेदार कौन था ?
उत्तर – दौलत खां
प्रश्न 7 – दौलत खां का बेटा जिसके नेतृत्व में एक दूतमंडल बाबर के पास पहुंचा , उसका क्या नाम था ?
उत्तर – दिलावर खां
प्रश्न 8 – वह लोदी शासक कौन था जिसे अपदस्थ करने का सुझाव बाबर को दिया गया ?
उत्तर – इब्राहिम लोदी
प्रश्न 9 – पानीपत की पहली लड़ाई कब हुई ?
उत्तर – 20 अप्रैल 1526 ई
प्रश्न 10 – पानीपत की लड़ाई में बाबर ने किस युक्ति का उपयोग किया था ?
उत्तर – उस्मानिया
प्रश्न 11 – बाबर के प्रमुख तोपची कौन थे ?
उत्तर – उस्ताद अली, मुस्तफा
प्रश्न 12 – बाबर ने पहली बार बारूद का इस्तेमाल कहाँ किया ?
उत्तर – भिरा
प्रश्न 13 – बाबर ने अपनी जीत का श्रेय किसे दिया ?
उत्तर – धनुर्धरों
प्रश्न 14 – खानवा की लड़ाई कब और किसके बीच लड़ी गई ?
उत्तर – मुगल सम्राट बाबर और मेवाड़ के राजा राणा सांगा के बीच 16 मार्च, 1527 को
प्रश्न 15 – कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद किसके समय काबुल और कंधार भारत का अंग बना ?
उत्तर – बाबर के समय
प्रश्न 16 – इब्राहिम लोदी का छोटा भाई जिसने खानवा की लड़ाई में राणा का साथ दिया कौन था?
उत्तर – महमूद लोदी
प्रश्न 17 – खानवा की लड़ाई में राणा का साथ देने वाला मेवात का शासक था –
उत्तर – हसन खां
प्रश्न 18 – बाबर के खिलाफ अफगान सरदारों को सहायता देने वाला बंगाल का शासक कौन था ?
उत्तर – नुसरत शाह
प्रश्न 19 – बाबर की मृत्यु कहाँ हुई ?
उत्तर – लाहौर में
प्रश्न 20 – बाबर ने भारत में किस नई युद्ध-पद्धति का सूत्रपात किया ?
उत्तर – तोपखाना
प्रश्न 21 – बाबर किस वंश का वंशज था ?
उत्तर – चंगेज खां, तैमूर
प्रश्न 22 – बाबर की मातृभाषा कौन-सी थी ?
उत्तर – तुर्की
प्रश्न 23 – बाबर की प्रसिद्ध कृति का नाम क्या है ?
उत्तर – तुजुक-ए-बाबरी
प्रश्न 24 – बाबर ने किसके खिलाफ लड़ाई को जिहाद की संज्ञा दी तथा जीत के बाद गाजी की उपाधि धारण की ?
उत्तर – सांगा
प्रश्न 25 – हुमायूँ किस वर्ष गद्दी पर बैठा ?
उत्तर – 1530
प्रश्न 26 – जब हुमायूँ आगरा में गद्दी पर बैठा उस समय काबुल और कंधार किस की देख – रेख में थे ?
उत्तर – हुमायूँ के छोटे भाई कामरान
प्रश्न 27 – दीनपनाह का निर्माण किसने कराया था ?
उत्तर – हुमायूँ
प्रश्न 28 – हुमायूँ ने गुजरात पर कब्जा करने के बाद उसे किसे सौंप दिया था ?
उत्तर – अस्करी
प्रश्न 29 – 1532 ईस्वी में हुमायूँ ने दौराह नामक स्थान पर किसे हराया था ?
उत्तर – अफगानियों का
प्रश्न 30 – हुमायूँ के समय गुजरात राज्य का कौन था ?
उत्तर – बहादुरशाह
प्रश्न 31 – चौसा के युद्ध में हुमायूँ की हार हुई शेर खां विजयी रहा | यह युद्ध कितने ईस्वी में हुआ था ?
उत्तर – 1539 ई
प्रश्न 32 – किस लड़ाई ने हुमायूँ और शेर खां के बीच के संघर्ष का फैसला कर दिया था ? अब हुमायूँ बिना बादशाहत का बादशाह था |
उत्तर – कन्नौज
प्रश्न 33 – शेर खां से पराजित होने के बाद हुमायूँ ने किसके दरबार में शरण ली और 1545 ईस्वी में उसी की सहायता से उसने कबूल और कंधार पर फिर से अधिकार कर लिया ?
उत्तर – ईरान के शाह के दरबार में
प्रश्न 34 – हुमायूँ की मृत्यु कैसे हुई ?
उत्तर – पुस्तकालय की सीढ़ी से गिरकर
प्रश्न 35 – किसका मकबरा दोहरी गुंबदों वाली भारत में बना पहला मकबरा था ?
उत्तर – हुमायूँ
प्रश्न 36 – शेरशाह का मूल नाम क्या था ?
उत्तर – फरीद
प्रश्न 37 – फरीद का पिता कहाँ का जागीरदार था ?
उत्तर – जौनपुर
प्रश्न 38 – फरीद को शेर खां का खिताब किसने दिया था ?
उत्तर – फरीद के एक संरक्षक ने
प्रश्न 39 – शेरशाह का आखिरी सैनिक अभियान किसके खिलाफ था ?
उत्तर – कालिंजर
प्रश्न 40 – शेरशाह का मृत्यु के बाद गद्दी पर कौन बैठा ?
उत्तर – इस्लाम शाह
प्रश्न 41 – शेरशाह का इतिहासकार कौन था ?
उत्तर – अब्बास सरबानी
प्रश्न 42 – शेरशाह के समय ‘ साम्राज्य की धमनियाँ ‘ किसे कहा गया है ?
उत्तर – शेरशाह की बनवाई सड़क और सरायों को
प्रश्न 43 – शेरशाह के पूरे साम्राज्य में व्यापार के माल पर कितने स्थानों में चुंगी लगती थी ?
उत्तर – दो
प्रश्न 44 – किसने कहा है – ” शेरशाह के समय कोई जर्जर बूढी औरत भी अपने सिर पर सोने के गहनों से भरी टोकरी रखकर यात्रा पर निकल जाती थी .. उसके पास कोई चोर – डाकू फटकने की हिम्मत नहीं कर सकता ” |
उत्तर – अब्बास सरवानी
प्रश्न 45 – परगना में शांति व्यवस्था का ध्यान रखना किसके जिम्मे होता था ?
उत्तर – शिकदार
प्रश्न 46 – परगना में भूराजस्व की उगाही की देख – रेख कौन करता था ?
उत्तर – मुंसिफ या आमिल
प्रश्न 47 – शेरशाह के साम्राज्य का प्रशासनिक विभाजन था –
उत्तर – सूबा , सरकार , परगना , ग्राम
प्रश्न 48 – शेरशाह के शासनकाल में दरों की सूची क्या कहलाती थी ?
उत्तर – रे
प्रश्न 49 – शेरशाह के शासनकाल में राज्य का उपज में हिस्सा कितना था ?
उत्तर – एक – तिहाई
प्रश्न 50 – किस शासक के शासन में जमीन को उत्तम , मध्यम और निम्न इन तीन दर्जों में बाँट दिया गया था ?
उत्तर – शेरशाह
प्रश्न 51 – शेरशाह के शासनकाल में बोई गई जमीन के क्षेत्रफल , लगाई गई फसलों की किस्में और प्रत्येक किसान द्वारा देय लगान एक कागज में दर्ज होता था , जिसे कहते थे –
उत्तर – पट्टा
प्रश्न 52 – शेरशाह के शासनकाल में अकाल तथा दूसरी प्राकृतिक विपत्तियों का मुकाबला करने के लिए कितना अतिरिक्त शुल्क भी वसूल किया जाता था ?
उत्तर – प्रति बीघा ढाई सेर की दर से एक
प्रश्न 53 – कौन शासक यह कहा करता था कि ” किसान लोग निरीह होते हैं। जिनके हाथों में सत्ता होती है। उन्हीं के अधीन हो जाते हैं। अगर मैं उन पर जुल्म करूंगा तो वह अपना गांव – घर छोड़ देंगे, और देश बर्बाद और वीरान हो जाएगा जिसे फिर से खुशहाल होने में लंबा समय लगेगा “।
उत्तर – शेरशाह
प्रश्न 54 – जिसमें हर सिपाही का पूरा व्यक्तिगत वर्णन दर्ज रहता था , उसे क्या कहते थे ?
उत्तर – चेहरा
प्रश्न 55 – कौन शासक यह कहा करता था , ” न्याय धार्मिक कृत्यों में सबसे श्रेष्ठ है , और इसका अनुमोदन काफिर तथा मुसलमान दोनों करते हैं ” ?
उत्तर – शेरशाह
प्रश्न 56 – शेरशाह का मकबरा कहाँ स्थित है ?
उत्तर – सासाराम में
प्रश्न 57 – मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत काव्य – ग्रंथ की रचना किस शासक के समय पूरी की ?
उत्तर – शेरशाह