दिल्ली सल्तनत - 2
दिल्ली सल्तनत – 2 – 1286 ईस्वी में बलबन की मृत्यु हो गयी। बलबन ने शहजाद महमूद को अपना उत्तराधिकारी चुना था , लेकिन वह मंगोलों के खिलाफ एक लड़ाई में मारा जा चुका था।
बलबन के दूसरे बेटे बोगरा खां ने बंगाल और बिहार पर शासन करते रहना ज्यादा पसंद किया , हालांकि अमीरों ने उसे दिल्ली की गद्दी संभालने के लिए निमंत्रित किया था। इस स्थिति में बलबन के एक पौत्र को गद्दी पर बैठाया गया।
खलजियों जैसे बहुत – से गैर – तुर्क गौरों के आक्रमण के समय ही भारत आए थे।
बलबन ने गद्दी पर नासिरुद्दीन महमूद के पुत्रों के दावों को खारिज करके जो उदाहरण पेश किया था उससे यह संदेश मिला कि कोई भी सेनानायक स्थापित राजवंश के शहजादों को दरकिनार करके खुद गद्दी पर काबिज हो सकता था बशर्ते उसे अमीरों और सेना का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। दिल्ली सल्तनत – 2
खिलजी ( 1290 ई – 1320 ई )
खिलजी अमीरों के एक गुट ने 1290 ईस्वी में बलबन के अयोग्य उत्तराधिकारियों को पदच्युत करके अपने नेता जलालुद्दीन खिलजी को गद्दी पर बैठा दिया।
जलालुद्दीन उत्तर – पश्चिम सीमाओं का प्रधान रक्षक था और उसने कई लड़ाइयों में मंगोलों के खिलाफ अपना जौहर दिखाया था।
जलालुद्दीन खिलजी ने सिर्फ 6 साल राज किया। उसने बलबन के शासन के कुछ कठोर पहलुओं का मार्जन करने का प्रयत्न किया।
जलालुद्दीन दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था जिसने स्पष्ट शब्दों में यह विचार सामने रखा कि राज्य को शासितों के स्वैच्छिक समर्थन पर आधारित होना चाहिए। और चूंकि भारत में बहुत बड़ा बहुमत हिंदुओं का है , इसलिए इस देश का राज्य सच्चे अर्थों में इस्लामी राज्य नहीं हो सकता।
जलालुद्दीन ने सहिष्णुता का व्यवहार करने और कड़ी सजाओ का सहारा न लेने की नीति अपनाकर अमीरों की सद्भावना भी प्राप्त करने की कोशिश की। दिल्ली सल्तनत – 2
जलालुद्दीन की नीति को अलाउद्दीन ने उलट दिया , और जो भी उसका विरोध करने की हिमाकत करता उसे वह कड़ी – से – कड़ी सजा देता था।
अलाउद्दीन ( 1296 ई – 1316 ई ) ने अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन को धोखे से मार कर गद्दी हासिल की।
अवध के सूबेदार के रूप में देवगीर पर हमला करके अलाउद्दीन ने अकूत संपत्ति प्राप्त कर ली थी।
जलालुद्दीन इस संपत्ति को हासिल करने की आशा से अपने भतीजे से मिलने कोरा चला गया।
अपने चाचा की हत्या करने के बाद अलाउद्दीन ने सोने की चमकती चकाचौंध करके अधिकांश अमीरों और सैनिकों का समर्थन प्राप्त कर लिया।
अपने विरोधियों को आतंकित करने के लिए अलाउद्दीन ने अधिक – से – अधिक कठोरता और निष्ठुरता बरतने का तरीका अपनाया।
जो अमीर सोने के लोभ से उसके पक्ष में आ गए थे उनमें से अधिकांश को उसने या तो मार डाला या बर्खास्त करके उनकी संपत्ति जब्त कर ली। दिल्ली सल्तनत – 2
जलालुद्दीन के शासन-काल में इस्लाम कबूल करके हजार – दो हजार मंगल दिल्ली के आसपास बस गए थे। अलाउद्दीन ने उन सब का सफाया कर दिया। इन नए मुसलमानों ने गुजरात की लूट में अधिक बड़े हिस्से की मांग करते हुए विद्रोह कर दिया था।
अलाउद्दीन ने अमीरों को अपने खिलाफ साजिश करने से रोकने के लिए कई नियम बनाए।
भोजों और उत्सवों का आयोजन करना उनके लिए निषिद्ध कर दिया। वे सुल्तान की अनुमति के बिना आपस में वैवाहिक संबंध भी नहीं जोड़ सकते थे।
उत्सवों और भोजों का आयोजन न किया जाए , इस प्रयोजन से उसने शराब और नशीले पदार्थों के उपयोग पर रोक लगा दी। उसने एक गुप्तचर प्रणाली भी स्थापित की। दिल्ली सल्तनत – 2
1316 ई में अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद अलाउद्दीन के कृपापात्र मलिक काफूर ने उसके नाबालिक बेटे को दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया।
कुछ ही दिन बाद कपूर राजमहल के रक्षकों द्वारा मार दिया गया और खुसरो नामक एक व्यक्ति , जो हिंदू से मुसलमान बना था , दिल्ली की गद्दी पर बैठा।
खुसरो के खिलाफ न तो मुसलमान अमीरों ने कोई आवाज उठाई न दिल्ली की रिआया ने। यहां तक की दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने उससे भेंट स्वीकार करके उसे सम्मान दिया।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि दिल्ली और आसपास के इलाकों के मुसलमानों पर अब नस्लवादी विचारों का असर नहीं होता था और किसी की नस्ली तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि चाहे जो हो , यदि वह व्यक्ति के रूप में अच्छा होता था तो वे उसकी बात मानने को तैयार रहते थे।
1320 ईस्वी में गयासुद्दीन तुगलक के नेतृत्व में अधिकारियों के एक गुट ने विद्रोह का झंडा उठाया। राजधानी के बाहर सुल्तान के समर्थकों और विरोधियों के बीच घमासान युद्ध हुआ। खुसरो की पराजय हुई और विद्रोहियों ने उसे मार डाला। दिल्ली सल्तनत – 2
तुगलक ( 1320 ई – 1412 ईस्वी )
गियासुद्दीन तुगलक ने एक नए राजवंश की स्थापना की जो 1412 ईस्वी तक शासन करता रहा।
तुगलक वंश ने दिल्ली सल्तनत को तीन सुयोग्य सुल्तान दिए – गियासुद्दीन , उसका बेटा मोहम्मद बिन तुगलक ( 1324 ई – 51 ई ) और भतीजा फिरोजशाह तुगलक ( 1351 ई – 88 ई )।
इनमें से प्रथम दो सुल्तानों ने ऐसे साम्राज्य पर शासन किया जिसमें लगभग पूरा देश शामिल था। फिरोजशाह का साम्राज्य कुछ छोटा आवश्य था , फिर भी उसका विस्तार अलाउद्दीन के साम्राज्य के बराबर था।
यद्यपि तुगलक 1412 ई तक शासन करते रहे , तथापि हम कह सकते हैं कि 1398 ईस्वी में भारत पर तैमूर के आक्रमण के साथ तुगलक राजवंश का अंत हो गया। दिल्ली सल्तनत – 2
दिल्ली सल्तनत का प्रादेशिक विस्तार
बलबन के समय से रणथंभौर , जो सबसे शक्तिशाली राजपूत राज्य था , सल्तनत के हाथ से निकल गया था। जलालुद्दीन ने रणथंभौर पर एक चढ़ाई अवश्य की , लेकिन उस पर कब्जा करना टेढ़ी खीर लगा।
अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने न केवल मालवा और गुजरात पर उसका अधिकार स्थापित कर दिया और राजस्थान के अधिकांश नृतपतियों को उसके अधीन कर दिया , बल्कि दक्कन और दक्षिण भारत में मुदरै तक के प्रदेशों पर उसका अधिकार स्थापित कर दिया।
अलाउद्दीन खिलजी ने प्रादेशिक विस्तार का जो नया दौर आरंभ किया उसे उसके उत्तराधिकारियों ने जारी रखा और उसकी चरम परिणीति मोहम्मद – बिन – तुगलक के शासन-काल में हुई।
इस समय मालवा , गुजरात और देवगीर पर राजपूत राजवंशो का शासन था । गंगा घाटी में तुर्क शासन की स्थापना के बावजूद ये राजवंश अपने तौर – तरीकों में कोई बदलाव नहीं कर पाए थे।
इसके अलावा इनमें से प्रत्येक पूरे क्षेत्र पर अधिकार करने की महत्वाकांक्षा पाले हुए था। यहां तक कि जब इल्तुतमिश ने गुजरात पर हमला किया तो मालवा और देवगीर दोनों राज्यों के शासको ने उस पर दक्षिण से आक्रमण कर दिया। दिल्ली सल्तनत – 2
मराठा क्षेत्र में देवगीर के शासक तेलंगाना प्रदेश के वारंगल राज्य से बराबर जोर – आजमई करते रहे। उधर कर्नाटक के होयसलों के खिलाफ भी वे संघर्षरत रहे। और होयसल अपने पड़ोसी मबार ( तमिल क्षेत्र ) के पांड्यों से लड़ते – भिड़ते रहे।
इन प्रतिदवंद्विताओं के चलते न केवल मालवा और गुजरात को जीतना आसान हो गया , बल्कि आक्रमणकारियों को दक्षिण की ओर अधिकाधिक आगे बढ़ते रहने का प्रोत्साहन मिलता रहा।
कई कारणों से तुर्क शासको को मालवा और गुजरात पर अधिकार करना जरूरी लग रहा था। ये क्षेत्र उपजाऊ और जनबहुल तो थे ही , पश्चिम के समुद्री बंदरगाहों और गंगा घाटी से उन्हें जोड़ने वाले व्यापारिक मार्गों पर भी उनका नियंत्रण था।
गुजरात के बंदरगाहों से होने वाले विदेशी व्यापार से बहुत – सा सोना – चांदी वहां आता था , जिसके उस क्षेत्र के शासक अपना खजाना भर रहे थे।
दिल्ली के सुल्तानों की गुजरात पर कब्जा करने की इच्छा का एक और कारण यह भी था कि उसने उन्हें अपनी सेना के लिए बाहर से घोड़े मंगवानी में सहूलियत हो जाती थी। दिल्ली सल्तनत – 2
समुद्री मार्ग से भारत में अरबी , इराकी और तुर्की घोड़ों का आयात आठवीं सदी से ही व्यापार की एक महत्वपूर्ण मद रहा था।
1299 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी के दो प्रमुख सेना नायकों के नेतृत्व में एक सेना ने राजस्थान के रास्ते गुजरात के लिए कूच कर दिया। रास्ते में उसने जैसलमेर पर हमला करके उस पर कब्जा कर लिया।
गुजरात का राजा रायकरण कोई प्रतिरोध नहीं कर पाया और भाग खड़ा हुआ। राज्य के प्रमुख नगरों में खूब लूट – खसोट मचाई गई। इनमें अन्हिलवाड़ भी शामिल था , जहां पीढ़ी – दर पीढ़ी अनेक सुंदर इमारते और मंदिर बनवाए गए थे।
प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर को भी , जिसे 12वीं सदी में नए सिरे से बनवाया गया था , लूट गया। यहां तक की खम्बात के धनाढ्य मुसलमान व्यापारियों के साथ भी लिहाज नहीं किया गया। यहीं पर मलिक कपूर को बंदी बना लिया गया था। इसी मलिक कपूर ने सुल्तान के दक्षिणी सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया।
देवगीर के राजा रामचंद्र की मदद से रायकरण ने किसी तरह दक्षिण गुजरात के एक हिस्से पर अपना कब्जा कायम रखा। रायकरण को देवगीर के यादव राजा का मदद देना यादवों के राज्य पर दिल्ली सल्तनत के आक्रमण का एक अतिरिक्त कारण था। दिल्ली सल्तनत – 2
राजस्थान
राजस्थान में उसका पहला लक्ष्य रणथंभौर था जहां पृथ्वीराज चौहान के उत्तराधिकारी शासन कर रहे थे। वहां के राजा हमीरदेव ने अपने पड़ोसी राज्यों पर एक के बाद एक कई आक्रमण किए थे।
हमीरदेव को धार के राजा भोज और मेवाड़ के राणा को परास्त करने का श्रेय दिया जाता है।
गुजरात विजय के बाद जब सुल्तान की सेना लौट रही थी तो लूट के माल में हिस्सेदारी के सवाल को लेकर मंगोल सैनिकों ने बगावत कर दी। बगावत को दबा दिया गया और फिर मंगोलों का कत्लेआम किया गया।
दो मंगोल अमीर अपने कुछ अनुगामियों के साथ भागकर शरण लेने के लिए रणथंभौर पहुंचे।
अलाउद्दीन ने हमीरदेव को संदेश भेजो कि वह या तो उन्हें मार दे या अपने राज्य से निकाल दे। लेकिन अपनी शरणागत – वत्सलता और अपनी सेना तथा दुर्ग के दुर्जेयता में अपने विश्वास के कारण हमीरदेव ने सुल्तान को तीखा जवाब भेजो। दिल्ली सल्तनत – 2
रणथंभौर की ख्याति राजस्थान के सबसे मजबूत किले के रूप में थी।
अलाउद्दीन ने अपने एक विख्यात सेनापति के नेतृत्व में सेना भेजी , लेकिन हमीरदेव ने उसे पराजित कर दिया और सुल्तान की सेना को भारी क्षति उठाकर वापस लौटना पड़ा।
अंत में अलाउद्दीन ने एक विशाल सेना लेकर खुद रणथंभौर के खिलाफ कूच किया। इस अभियान में प्रसिद्ध शायर अमीर खुसरो भी अलाउद्दीन के साथ था।
अमीर खुसरो ने रणथंभौर के किले और उसकी रक्षा – व्यवस्था का बहुत सजीव विवरण किया है।
सुल्तान ने 3 महीने तक किले पर घेरा डाले रखा। आखिर राजपूतों ने जौहरव्रत का निश्चय किया। स्त्रियां चिताओं पर चढ़ गई और पुरुष लड़ते हुए शहीद होने के लिए किले से बाहर आ गए। दिल्ली सल्तनत – 2
फारसी में जौहर का यह पहला वर्णन है जो हमें उपलब्ध है। राजपूतों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते हुए सभी मंगोलों ने भी मृत्यु का वर्णन किया। यह घटना 1301 ईस्वी की है।
चित्तौड़ , रणथंभौर के बाद राजस्थान का सबसे शक्तिशाली राज्य था।
जब दिल्ली की सेना गुजरात पर आक्रमण करने के लिए कूच कर रही थी तब चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने उसे अपने राज्य से गुजरने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था।
अजमेर से मालवा जाने के रास्ते पर चित्तौड़ का नियंत्रण था जो अलाउद्दीन के भावी विजययोजना में बाधक हो सकता था।
एक लोक कथा प्रचलित है कि अलाउद्दीन की निगाह रतन सिंह की रूपवती रानी पद्मिनी पर लगी हुई थी। लेकिन बहुत – से आधुनिक इतिहासकार इस कथा को सच नहीं मानते , क्योंकि इसके प्रथम उल्लेख अलाउद्दीन के चित्तौड़ – विजय के 100 साल बाद हुआ है। इस कथा में पद्मिनी सिंघलद्वीप की रानी है।
अलाउद्दीन ने काफी निकट से चित्तौड़ पर घेरा डाला। अंत में उसने किले पर कब्जा कर लिया ( 1303 ईस्वी )। राजपूतों ने जौहर किया और अधिकांश योद्धा लड़ाई में खेत रहे। दिल्ली सल्तनत – 2
चित्तौड़ अलाउद्दीन के नाबालिक बेटे खिज्र खां के हवाले कर दिया गया और किले में एक मुस्लिम रक्षक – दल तैनात कर दिया गया। कुछ समय बाद किले की जिम्मेदारी रतन सिंह के एक परिजन को सौंप दी गई।
अलाउद्दीन ने गुजरात के मार्ग पर पड़ने वाले जालौर को भी जीत लिया।
मालूम होता है , अलाउद्दीन ने राजपूत राज्यों में अपना प्रत्यक्ष प्रशासन स्थापित करने का प्रयास नहीं किया।
राजपूत , राजाओं को अपने-अपने राज्यों में शासन करने दिया गया , लेकिन उन्हें सुल्तान को नियमित कर – नजराने देने पड़ते थे और उसके आदेशों का पालन करना पड़ता था।
अजमेर , नागौर आदि कुछ महत्वपूर्ण शहरों में मुस्लिम रक्षक सेनाएं तैनात की गई। दिल्ली सल्तनत – 2
दकन और दक्षिण भारत
राजस्थान जीतने का सिलसिला पूरा करने से पहले ही अलाउद्दीन ने मालवा को फतह कर लिया था। मालवा पर सल्तनत का प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया गया।
अमीर खुसरो बताता है कि मालवा राज्य इतना विस्तृत था की भूगोलशास्त्री भी इसकी सीमाओं का अंकन करने में असमर्थ थे।
1306 ई – 7 ईस्वी में अलाउद्दीन ने दो सैनिक आक्रमणों की योजना बनाई। पहला आक्रमण रायकरण के खिलाफ था जो गुजरात से निष्कासित कर दिए जाने के बाद मालवा की सीमा पर बगलाना पर अधिकार जमाए बैठा था।
दूसरे , आक्रमण का लक्ष्य देवगीर के राय रामचंद्र था जिसका रायकरण से संधि – संबंध था। पहले की एक लड़ाई में रामचंद्र दिल्ली को वार्षिक कर देने पर राजी हो गया था।
दूसरे आक्रमण की कामना अलाउद्दीन ने अपने गुलाम मलिक काफूर को सौंपी। दिल्ली सल्तनत – 2
राय ने आत्मसमर्पण किया तो उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया गया। उसे दिल्ली ले जाया गया जहां उसका राज्य वापस कर दिया गया और उसे राय रायन के ख़िताब के साथ फिर से अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया।
राय को एक लाख टके की भेंट दी गई और राजत्व ने प्रतीकस्वरूप सुनहले रंग का छत्र प्रदान किया गया। उसे गुजरात का एक जिला भी दिया गया। उसकी एक बेटी का विवाह अलाउद्दीन से कर दिया गया।
1309 ई और 1311 ई के बीच मलिक काफूर ने दक्षिण भारत पर दो आक्रमण किए। पहला आक्रमण तेलंगाना क्षेत्र में वारंगल पर किया गया था और दूसरे के लक्ष्य द्वार समुद्र ( आधुनिक कर्नाटक ) , मबार तथा मुदरै ( तमिलनाडु ) थे।
अलाउद्दीन के दरबार के कवि अमीर खुसरो ने इन आक्रमणों पर पूरी एक पुस्तक की रचना कर दी।
यह पहला अवसर था जब मुसलमानों की सेना दक्षिण में मुदरै तक पहुंच गई और साथ में अकूत संपत्ति लेकर लौटी। दिल्ली सल्तनत – 2
इन आक्रमणों से दक्षिण भारत की परिस्थितियों के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी मिलती है।
जब काफूर की सेना मबार में वीर चोल नामक स्थान पर पहुंची तो वहां मुसलमान व्यापारियों की एक बस्ती बसी हुई पाई गई। वहां के शासक की सेना में मुस्लिम सैनिकों की एक टुकड़ी भी थी।
इन अभियानों के कारण लोगों की निगाह में काफूर की इज्जत बहुत बढ़ गई और सुल्तान ने उसे अपने साम्राज्य का मलिक नायब नियुक्त कर दिया।
काफूर ने वारंगल और द्वार समुद्र के शासको को शांति की याचना करने पर विवश कर दिया। उन्हें अपना सारा कोष और हाथी उसके हवाले करने पड़े और सालाना कर देने का वचन देना पड़ा।
काफूर जितना लूट सकता था उतना उसने लूट। लूटें गए स्थानों में मंदिर भी शामिल थे। आधुनिक मद्रास के निकट चिंदाबरम मंदिर इनमें से एक था। लेकिन उसे तमिल सेनाओं को पराजित किए बिना ही दिल्ली लौटना पड़ा।
अलाउद्दीन दक्षिणी राज्यों को प्रत्यक्ष शासन में लाने के पक्ष में नहीं था। दिल्ली सल्तनत – 2
1315 ईस्वी में रायचंद्र , जो हमेशा दिल्ली का वफादार बना रहा था , चल बसा और उसके बेटों ने दिल्ली की अधीनता का जुआ अपने कंधे से उतार फेंका।
मलिक काफूर ने तुरंत मौके पर पहुंच कर विद्रोह को शांत कर दिया और इस क्षेत्र को सीधे अपने प्रशासन के अधीन कर लिया।
गददीनशीन होने पर मुबारक शाह ने देवगिरी को फिर से जीत कर वहां एक मुसलमान सूबेदार नियुक्त किया। उसने वारंगल पर भी आक्रमण किया।
वारंगल के शासक को एक जिला सल्तनत के हवाले करने एवं सोने की 40 ईंटों का वार्षिक कर देने के लिए सहमत होना पड़ा।
सुल्तान की खुसरो खां नामक एक गुलाम ने लूट-पाट के इरादे से मबार पर हमला किया और पाटन के समृद्ध नगर को तबाह कर दिया। दिल्ली सल्तनत – 2
1320 ईस्वी में गियासुद्दीन के गद्दीनशीन होने के बाद एक अविश्रांत और प्रबल आक्रामक नीति आरंभ की गई।
इस उद्देश्य से सुलतान के बेटे मुहम्मद – बिन – तुगलक को देवगीर में तैनात कर दिया गया।
वारंगल के राजा द्वारा निर्धारित कर अदा करने में फिर चूक होने का बहाना बनाकर मुहम्मद – बिन – तुगलक ने वारंगल पर आक्रमण कर दिया। आरंभ में उसे हार खानी पड़ी। मुहम्मद – बिन – तुगलक को विफल होकर देवगीर लौटना पड़ा। दिल्ली सल्तनत – 2
मुहम्मद – बिन – तुगलक ने अपनी सेवा को पुनर्गठित करके वारंगल पर फिर आक्रमण किया और इस बार राय के साथ कोई मुरव्वत नहीं बरती गई। इस विजय के बाद मबार पर हमला करके उसे भी जीत कर सल्तनत का हिस्सा बना लिया गया।
तत्पश्चात मुहम्मद – बिन – तुगलक ने उड़ीसा पर आक्रमण किया। अगले ही साल उसने बंगाल को भी जीत लिया जो बलबन की मृत्यु के बाद से स्वतंत्र चला आ रहा था।
इस प्रकार के 1324 ई तक दिल्ली सल्तनत मदुरै तक फैल गई। इस क्षेत्र में बचा हुआ आखिरी हिंदू राज्य कांपिली ( दक्षिण कर्नाटक ) भी 1328 ईस्वी में सल्तनत में मिला लिया गया। दिल्ली सल्तनत – 2
अलाउद्दीन की बाजार नियंत्रण तथा कृषि संबंधी नीति
अलाउद्दीन ने बाजार पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए जो कदम उठाए वे उसके समकालीनों के लिए दुनिया के महान आश्चर्यों में से थे।
चित्तौड़ की लड़ाई से लौटने के बाद एक – के – बाद – एक जारी किए गए कई आदेशों के जरिए अलाउद्दीन ने खाद्यानों , शक़्कर और रसोई तेल से लेकर सुई तक तथा आयात किए कीमती वस्त्रों से लेकर घोड़े , मवेशी और गुलाम लड़के – लड़की तक की कीमतें तय कर दी।
अलाउद्दीन ने दिल्ली में तीन बाजार स्थापित किए – एक खाद्यानों के लिए , दूसरा कीमती वस्त्रों के लिए और तीसरा घोड़ों , गुलामों और मवेशियों के लिए।
प्रत्येक बाजार एक उच्च अधिकारी के नियंत्रण में होता था जिसे शाहना कहा जाता था। वह व्यापारियों की एक पंजिका रखता था और दुकानदारों तथा कीमतों पर कड़ी निगाह रखता था।
अलाउद्दीन के सामने बाजार को नियंत्रित करने के कुछ अतिरिक्त कारण थे। दिल्ली पर मंगोलों के हमलों से स्पष्ट हो गया था कि उन्हें रोकने के लिए एक बड़ी सेना रखनी जरूरी है। लेकिन अगर वह कीमतों को नीचे नहीं लाता और सैनिकों के वेतन को कम नहीं करता तो इतनी बड़ी सेना जल्दी ही उसका खजाना खाली कर देती। दिल्ली सल्तनत – 2
खाद्यानों की नियमित और सस्ती आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उसने घोषणा की कि दोआब क्षेत्र , अर्थात यमुना के निकट – मेरठ से लेकर इलाहाबाद के निकट कड़ा की सीमा तक के प्रदेश में भूराजस्व की अदायगी सीधे राज्य को की जाएगी।
इसका मतलब यह था कि इन प्रदेशों का कोई भी गांव किसी को एकता में नहीं दिया जा सकता था। इसके अलावा , भूराजस्व बढ़ाकर उपज के आधे हिस्से पर तय कर दिया गया।
सुल्तान ने भूराजस्व बहुत बढ़ा दिया था और उसकी अदायगी नकद करने को कहा था , इसलिए किसानों को अपनी उपज बंजारों के हाथों सस्ती बेचनी पड़ रही थी।
उधर बंजारे लोग इस सस्ते अनाज आदि को शहरों में पहुंचा देते थे जहां दुकानदारों को उन्हें निश्चित कीमतों पर बेचना पड़ता था।
जमाखोरी को रोकने के लिए सभी बंजारों के नाम पंजिका में दर्ज किए गए और उनके एजेंटों तथा परिजनों को नियमों के उल्लंघन के लिए सामूहिक रूप से जिम्मेदार बनाया गया। दिल्ली सल्तनत – 2
इससे भी आगे बढ़कर राज्य ने अपने भंडार स्थापित किए जिन्हें अनाजों से भरा रखा जाता था। आपूर्ति की कमी आने पर , इन भंडारों से अनाज जारी कर दिए जाते थे।
बरनी बताता है कि अकाल के समय भी कीमतों में एक दाम या पाई की भी बढ़ोतरी नहीं होने दी जाती थी। बरनी ने लिखा है कि ‘ अनाज मंडी में कीमतों का स्थायित्व इस युग का एक आश्चर्य था ‘।
गुजरात विजय के कारण अच्छी नस्ल के घोड़ों की आपूर्ति में सुधार हुआ था। अच्छी नस्ल के घोड़े केवल राज्य को ही बेचे जा सकते थे।
मवेशी और गुलामों की कीमतों का नियमन कड़ाई से किया जाता था। बरनी ने उनकी कीमतें तफ्सील से बताई है।
हमें ऐसी जानकारी मिलती है कि देश के विभिन्न भागों में नफीस किस्म के कपड़े दिल्ली लाने के लिए मुल्तानी व्यापारियों को भारी रकम में पेशगी दी जाती थी। दिल्ली सल्तनत – 2
भूराजस्व नगद वसूल किए जाने से अलाउद्दीन को अपने सिपाहियों को नगद वेतन देने में सुविधा हुई। नगद वेतन देने वाला वह इस सल्तनत का पहला सुल्तान था।
इतिहासकार बरनी का ख्याल था कि अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण का एक बड़ा उद्देश्य हिंदूओं को सजा देना था क्योंकि ज्यादातर व्यापारी हिंदू थे और मुनाफाखोरी से वे ही अपनी थैलियां भरते थे।
यह स्पष्ट नहीं है कि अलाउद्दीन का बाजार- नियंत्रण केवल दिल्ली पर ही लागू था या साम्राज्य के अन्य नगरों पर भी।
अलाउद्दीन दिल्ली सल्तनत का पहला शासक था जिसने इस बात पर आग्रह रखा कि दोआब से भूराजस्व का निर्धारण खेती के लिए इस्तेमाल की जा रही जमीन की पैमाइस के आधार पर किया जाए। दिल्ली सल्तनत – 2
अलाउद्दीन चाहता था कि खूत और मुकददम कहे जाने वाले उस क्षेत्र के जमींदार उसी तरह कर दे जिस तरह दूसरे लोग देते हैं।
अलाउद्दीन की बाजार – नियमन की नीति उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गई।
अलाउद्दीन द्वारा किए गए भूराजस्व संबंधी सुधारो से ग्रामीण क्षेत्रों के साथ शासन के निकटतर संबंधों की शुरुआत हुई। दिल्ली सल्तनत – 2
मुहम्मद – बिन – तुगलक के प्रयोग
अलाउद्दीन के बाद मुहम्मद – बिन – तुगलक ( 1324 – 51 ईस्वी ) को एक ऐसे शासक के रूप में सबसे अधिक याद किया जाता है जिसने कई साहसपूर्ण प्रयोग किये और कृषि में गहरी रुचि का परिचय दिया।
मुहम्मद – बिन – तुगलक ने धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया था और वह बहुत ही विवेचनात्मक बुद्धि और खुले दिमाग वाला व्यक्ति था। उसका संलाप न केवल मुसलमान रहस्यवादियों से चलता था , बल्कि हिंदू योगियों तथा जिन पर जिनाप्रभा सूरी जैसे जैन मुनियों से भी चलता था।
मुहम्मद – बिन – तुगलक योग्यता के आधार पर किसी को भी ऊंचे पद देने को तैयार रहता था , चाहे वह अमीर घराने का हो या अदना परिवार का।
दुर्भाग्य यह था कि मुहम्मद – बिन – तुगलक में जल्दबाजी और अधीरता की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा थी। इसलिए उसके कई प्रयोग विफल रहे और उसे ” अभागा आदर्शवादी ” कहा गया है।
सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक बंगाल के खिलाफ सफल सैनिक कार्रवाई करके लौट रहा था। उसका स्वागत करने के लिए मुहम्मद के आदेश पर जल्दबाजी में लकड़ी का एक मंडप बनाया गया। दिल्ली सल्तनत – 2
जब युद्ध में छीने गए हाथियों का प्रदर्शन किया जा रहा था , तभी जल्दबाजी में खड़ा किया गया वह मंडप गिर गया और सुल्तान मर गया।
इससे तरह – तरह की अफवाहें उठी – यह कि मुहम्मद तुगलक ने अपने पिता की हत्या की योजना बनाई थी , यह कि यह अल्ला का कहर था और यह कि सुल्तान को दिल्ली के संत निजामुद्दीन औलिया का अपमान करने का फल मिला है।
अपनी गद्दीनशीनी के शीघ्र बाद मुहम्मद – बिन – तुगलक ने जो सबसे विवादास्पद कदम उठाया वह था राजधानी का दिल्ली से देवगिरी को तथाकथित स्थानांतरण।
सल्तनत के विरुद्ध सबसे गंभीर विद्रोह मुहम्मद तुगलक के एक रिश्ते के भाई गुरशस्पा का विद्रोह था जिसे दबाने का काम सुल्तान को खुद करना पड़ा।
मालूम होता है कि सुल्तान देवगीर को दूसरी राजधानी बनाना चाहता था ताकि वह दक्षिण भारत पर बेहतर नियंत्रण स्थापित कर सके। दिल्ली सल्तनत – 2
इस प्रयोजन में उसने बहुत – से अधिकारियों और कुछ प्रमुख व्यक्तियों को , जिनमें सूफी संत भी शामिल थे , देवगीर में जा बसने का आदेश दिया। देवगीर का नया नाम उसने दौलताबाद रखा।
बाकी की आबादी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने की कोई कोशिश नहीं की गई। सुल्तान की गैर – हाजिरी में भी दिल्ली एक विशाल और घना आबाद नगर बनी रही।
जब सुल्तान देवगीर में था तब उसके सिक्के दिल्ली में ही ढाले जाते थे।
सुल्तान ने दिल्ली से दौलताबाद तक एक सड़क भी बनवा दी थी , लेकिन दिल्ली से दौलताबाद की दूरी 1500 किलोमीटर से भी अधिक थी।
यात्रा की कठिनाई और गर्मी से बहुत से लोगों की मृत्यु हो गई क्योंकि यह कूच ग्रीष्म में आरंभ किया गया था। जो लोग दौलताबाद पहुंचे उनमें से भी अधिकांश घर की याद से परेशान थे। इसलिए लोगों में काफी असंतोष था। दिल्ली सल्तनत – 2
दो – साल के बाद ही मुहम्मद तुगलक ने दौलताबाद छोड़ने का फैसला कर लिया जिसका मुख्य कारण यह था कि उसे शीघ्र ही पता चल गया कि जिस प्रकार वह दिल्ली से दक्षिण भारत पर नियंत्रण नहीं रख सकता था उसी प्रकार दौलताबाद से उत्तर भारत को काबू में नहीं रखा जा सकता था।
देवगीर को दूसरी राजधानी बनाने का प्रयत्न कई तरह से लाभदायक सिद्ध हुआ। संचार में सुधार होने से उत्तर और दक्षिण भारत एक – दूसरे के निकट आए।
दौलताबा जाने वाले बहुत – से लोग , जिनमें धर्म – कर्म में लीन पीर – ओलिए भी शामिल होते थे ,वही बस गए गए।
ये लोग दकन में उन धार्मिक , सांस्कृतिक और सामाजिक विचारों के प्रचार में सहायक सिद्ध हुए जिन्हें तुर्क अपने साथ उत्तर भारत लाए थे। दिल्ली सल्तनत – 2
इससे उत्तर और दक्षिण भारत के बीच तथा खुद दक्षिण भारत के अंदर भी सांस्कृतिक आदान – प्रदान की प्रभावशाली प्रक्रिया आरंभ हुई।
मुहम्मद – बिन – तुगलक ने एक और कदम उठाया। यह था ” प्रतीक मुद्रा ” का चलन आरंभ करना।
चौदहवीं सदी में दुनिया में चांदी की कमी हो गई थी। चीन का कुबलइ खां पहले ही प्रतीक – मुद्रा का प्रयोग सफलतापूर्वक कर चुका था।
ईरान के गजन खां नामक एक मंगोल शासक ने भी प्रतीक – मुद्रा का प्रयोग किया था।
मुहम्मद तुगलक ने काँसे का सिक्का चलाने का फैसला किया , जिसका मूल्य चांदी के टंके के बराबर ही होता था।
प्रतीक – मुद्रा की कल्पना भारत में नई थी और मुहम्मद तुगलक शायद सफल हो जाता , बशर्ते कि सरकार लोगों को जाली मुद्रा ढालने से रोक पाती। दिल्ली सल्तनत – 2
मगर सरकार वैसा कर नहीं पाई और शीघ्र ही नए सिक्कों का मूल्य बाजार में तेजी से गिरने लगा। अंत में मुहम्मद ने प्रतीक – मुद्रा वापस ले लेने का फैसला किया। उसने काँसे के सिक्कों के बदले चाँदी के सिक्के देने का वादा किया।
मोरक्को के यात्री इब्नबतूता को , जो 1333 ईस्वी में दिल्ली आया था , इन दोनों प्रयोगों का कोई हानिकारक प्रभाव देखने को नहीं मिला।
मुहम्मद – बिन – तुगलक के शासन के प्रारंभिक वर्षों के दौरान तर्मसरिन के नेतृत्व में मंगोल सहसा सिंध पर उमड़ आए और उनका एक दल दिल्ली से 65 किलोमीटर दूर मेरठ तक पहुंच गया।
झेलम के निकट एक लड़ाई में मुहम्मद तुगलक ने न केवल मंगोलों को परास्त कर दिया बल्कि कलानौर पर भी कब्जा कर लिया और कुछ समय तक उसका वर्चस्व सिंध के पास पेशावर तक कायम रहा।
देवगिरी से लौटकर सुल्तान ने गजनी और अफगानिस्तान पर कब्जा करने के लिए एक विशाल सेना तैयार कर ली। बरनी का कहना है कि उसका उद्देश्य गजनी और ईराक पर अधिकार करना था । लेकिन साल – भर बाद नए तौर पर खड़ी की गई सेना की छुट्टी कर दी गई। दिल्ली सल्तनत – 2
खुरासान योजना अभियान हिमालयी क्षेत्र में कुमाऊं के पहाड़ी प्रदेशों में आरंभ किया गया था और कहा जाता है कि इसका उद्देश्य चीनियों की बढ़त को रोकना था।
सफलता प्राप्त करने के बाद दिल्ली की सेना कठिनाई भरे प्रदेशों में बहुत दूर तक आगे बढ़ गई और वहां भारी विपत्ति में फंस गई। कहा जाता है कि 10000 की सेना में केवल 10 लोग वापस लौटे। लेकिन मालूम होता है , पहाड़ी प्रदेशों के राजाओं ने दिल्ली का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था।
मुहम्मद तुगलक ने कृषि में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए। उनमें से ज्यादा दोआब के क्षेत्र में आजमाए गए।
मुहम्मद तुगलक अलाउद्दीन की खूतों और मुकदद्मों की किसानों की अवस्था में पहुंचा देने की नीति को ठीक नहीं मानता था।
यद्यपि अलाउद्दीन के शासनकाल की तरह उपज में राज्य का हिस्सा आधा ही रहा , तथापि इस हिस्से का परिमाण वास्तविक उपज के आधार पर नहीं , बल्कि मनमाने तौर पर निर्धारित किया जाने लगा। उपज का अंदाजा पैसे में लगाने के लिए कीमतें भी अवास्तविक रूप से निर्धारित की गई। दिल्ली सल्तनत – 2
इसी दौरान अकाल का 6 साल का एक लंबा दौर चला , जिसने प्रदेश को तबाह कर दिया। दिल्ली में इतने लोगों की मौत हुई कि वातावरण दूषित हो गया। सुल्तान दिल्ली छोड़कर 100 मील दूर गंगा के किनारे स्वर्गद्वारी नामक एक शिविर में चला गया और ढाई वर्षो तक वहीं बैठा रहा।
दोआब में कृषि के विस्तार और सुधार के लिए एक योजना आरंभ की। उसने दीवान – ए – अमीर – ए – कोही नाम से एक अलग विभाग की स्थापना की।
इलाके को विकास प्रखंडों में विभाजित कर दिया गया। प्रत्येक प्रखंड एक अधिकारी की अधीन रखा गया जिसका काम किसानों को कर्ज देकर कृषि का विस्तार करना और उन्हें बेहतर फसलें उगाने के लिए प्रेरित करना था – जैसे जौ के स्थान पर गेहूँ , गेहूँ के बदले गन्ना और गन्ने की जगह अंगूर और खजूर।
यह योजना विफल हो गई जिसका कारण उसे कार्यान्वित करने के लिए नियुक्त किए गए लोगों के अनुभवहीनता और बेईमानी थी। दिल्ली सल्तनत – 2
मुहम्मद – बिन – तुगलक न केवल गैर – अमीर वर्ग के परिवारों के लोगों से संपर्क रखता था बल्कि उनमें से सुयोग्य व्यक्तियों को ऊंचे पद भी देता था। इनमें से ज्यादातर लोग हिंदू से मुसलमान बने लोगों के वंशज थे , हालांकि इनमें कुछ हिंदू भी शामिल थे।
मुहम्मद तुगलक विदेशियों को भी , जो उसके दरबार में बड़ी तादाद में पहुंचते थे , अमीरों के वर्ग में स्थान देता था।
इस तरह मुहम्मद तुगलक के समय के अमीर वर्ग में विविध वर्गों के लोग शामिल थे। उनमें आपसी एकजुटता की कोई भावना विकसित नहीं हो पाई और न सुल्तान के प्रति निष्ठा की प्रवृत्ति। उल्टे साम्राज्य के विस्तृत फैलाव ने विद्रोह – बगावतों के लिए और सत्ता के स्वतंत्र क्षेत्र कायम करने का प्रयत्न करने के लिए अनुकूल अवसर प्रदान किए।
मुहम्मद तुगलक का शासनकाल दिल्ली सल्तनत के चरमोत्कर्ष का काल था , वही वह उसके विघटन की प्रक्रिया के आरंभ का दौर भी साबित हुआ। दिल्ली सल्तनत – 2
दिल्ली सल्तनत का पतन और विघटन फिरोज और उसके उत्तराधिकारी
मुहम्मद – बिन – तुगलक के शासन के उत्तरार्ध में साम्राज्य के विभिन्न भागों में बार-बार विद्रोह हुए।
साम्राज्य के विभिन्न भागों बंगाल में , मबार ( तमिलनाडु ) में , वारंगल में , कांपिली ( कर्नाटक ) में , पश्चिम बंगाल में , अवध में , गुजरात में और सिंध में एक – के – बाद – एक विद्रोह का सिलसिला जारी रहा।
मुहम्मद तुगलक किसी पर विश्वास नहीं करता था , सो वह बगावतों को दबाने के लिए साम्राज्य के एक हलके से दूसरे हलके को भागता रहता था। दक्षिण भारत के विद्रोह सबसे गंभीर थे।
सुल्तान के दक्षिण भारत के लौटते ही वहां फिर हरिहर और बुक्का नमक दो भाइयों के नेतृत्व में विद्रोह फूट पड़ा। उन्होंने एक छोटा – सा राज्य स्थापित कर लिया जो धीरे-धीरे फैलता गया। यह था विजयनगर साम्राज्य , जिसके दायरे में शीघ्र ही पूरा दक्षिण देश आ गया।
विजयनगर से उत्तर के क्षेत्र दकन में कुछ विदेशी अमीरों ने दौलताबाद के निकट एक छोटा – सा राज्य कायम कर लिया जिसने फैलकर बहमनी साम्राज्य का रूप ले लिया। दिल्ली सल्तनत – 2
बंगाल की स्वतंत्र हो गया। काफी कोशिशों के बाद मुहम्मद तुगलक ने अवध , गुजरात और सिंध के विद्रोहों को दबाने में कामयाबी हासिल की। सिंध में ही मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हो गई और उसका चचेरा भाई फिरोज तुगलक दिल्ली की गद्दी पर बैठा।
फिरोज तुगलक ने अमीरों , सेना और उलेमाओं के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई और उसने तय किया कि वह अपनी सत्ता उन्ही प्रदेशों पर कायम रखने की कोशिश करेगा जिनकी व्यवस्था केंद्र से आसानी से की जा सकती है। इसलिए उसने दक्षिण भारत और दकन पर फिर से अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न नहीं किया।
बंगाल पर फिरोज ने दो बार आक्रमण किए लेकिन दोनों बार विफल रहा। इस प्रकार बंगाल सल्तनत के हाथ से निकल गया।
फिरोज ने जाजनगर के शासक पर भी चढ़ाई की। वहां उसने मंदिरों को नष्ट – भ्रष्ट किया और काफी धन लूटा , लेकिन उड़ीसा को सल्तनत में मिलने की कोई कोशिश नहीं की। दिल्ली सल्तनत – 2
फिरोज ने पंजाब की पहाड़ियों में कांगड़ा ( आधुनिक हिमाचल प्रदेश में ) पर भी हमला किया।
परंतु फिरोज ने सबसे लंबे संघर्ष गुजरात और थट्टा के विद्रोहों को दबाने के लिए किए। ये विद्रोह तो दबा दिए गए लेकिन सेना भटककर कच्छ की खाड़ी वाले इलाके में पहुंच गई जिससे उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा।
फिरोज का शासनकाल शांति और मूक विकास का युग था। उसने हुक्म जारी किया कि जब भी किसी अमीर की मृत्यु हो तो इक्ता सहित उसका स्थान उत्तराधिकार में उसके पुत्र को दिया जाए। यदि उसके कोई पुत्र ना हो तो यह स्थान उसके दामाद को और दामाद भी ना हो तो उसके गुलाम को दिया जाए।
इक्ता से प्राप्त होने वाले राजस्व का हिसाब – किताब करते समय बकाया पाए जाने पर संबंधित अमीरों और उनके अमलों को यातना देने का रिवाज समाप्त कर दिया गया। वंशानुगत के सिद्धांत को फिरोज ने सेना पर भी लागू कर दिया। दिल्ली सल्तनत – 2
बूढ़े सिपाहियों को शांति से जीने और लड़ाई के लिए अपने बदले अपने बेटे या दामाद और बेटे या दामाद न होने पर अपने गुलाम को भेजने की सुविधा दे दी गई। सिपाहियों को नगद वेतन नहीं देना था। इसकी बजाय अलग-अलग गांवों के भूराजस्व उनके नाम कर दिए गए।
इससे पूरे सैनिक संगठन में शिथिलता आ गई। स्थिति यहां तक बिगड़ गई कि जब सिपाहियों द्वारा रखे जाने वाले घोड़ों का हिसाब लिया जाता था तो वे किरानियों को घूस देकर अपने नकारे घोड़ों को भी अच्छे घोड़े में शुमार करवा देते थे।
अपनी गलत नेकी और उदारता का उदाहरण पेश करते हुए एक बार खुद सुल्तान ने एक सिपाही को घोड़ों का हिसाब रखने वाले किरानी को घूस देने के लिए पैसा दिया।
फिरोज ने खुद को सच्चा मुसलमान शासक और अपने राज्य को विशुद्ध इस्लामी राज्य घोषित करके उलेमाओं को खुश करने की कोशिश की। दिल्ली सल्तनत – 2
फिरोज ने उलेमाओं को संतुष्ट रखने के लिए उनमें से बहुत को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। न्याय – व्यवस्था और शिक्षा उनके हाथों में ही रही।
जिन रीति – रिवाज को उलेमा इस्लाम के खिलाफ मानते थे उन पर फिरोज ने रोक लगाने की कोशिश की। उदाहरण के लिए उसने मुस्लिम स्त्रियों को इबादत करने और मन्नते मानने के लिए पीरों की मजारों पर जाने के रिवाज पर रोक लगा दी।
फिरोज के शासनकाल में ही जजिया एक अलग टैक्स बन गया। पहले वह भूराजस्व का ही हिस्सा था।
फिरोज ने ब्राह्मणों को जजिया अदा करने की जिम्मेदारी से बरी रखने से इनकार कर दिया क्योंकि शरीअत , यानी इस्लामी कानून में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं थी।
इस कर ( जजिया ) से केवल स्त्रियां , बच्चों , अंधों – अपंगो और जीविका के साधन से विहीन लोगों को ही मुक्त रखा गया। दिल्ली सल्तनत – 2
मुसलमानों को धर्मोपदेश देने के कारण उसने एक ब्राह्मण को सरे-आम जला दिया। इस्लाम के सिद्धांतों का ख्याल करके उसने अपने राजमहल की दीवारों पर बने सुंदर चित्रों को मिटवा दिया।
फरोज पहला सुल्तान था जिसने हिंदू धर्मग्रंथो का संस्कृत से फारसी में अनुवाद करने के लिए कदम उठाए ताकि हिन्दू आचार – विचारों को ज्यादा अच्छी तरह समजा जा सके।
संगीत , आयुर्वेद और गणित के भी कई ग्रंथ फिरोज के शासनकाल में संस्कृत से फारसी में अनुदित किए गए।
फिरोज ने मानव – दया के भी कई कदम उठाए। उसने चोरी के अपराध के लिए हाथ – पैर , नाक – कान काटने की अमानवीय सजाओ को उठा दिया।
गरीबों की मुफ्त इलाज के लिए फिरोज ने अस्पताल बनवाए और कोतवालों को बेरोजगार लोगों की सूची तैयार करने का आदेश दिया एवं गरीबों की लड़कियों की शादी के लिए दहेज की रकमें दी। दिल्ली सल्तनत – 2
फिरोज ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य सिर्फ सजा देने और कर वसूल करने के लिए ही नहीं है बल्कि वह जन – कल्याण की संस्था भी है।
फिरोज ने लोकनिर्माण के लिए एक बड़ा विभाग स्थापित किया जो सरकारी निर्माण – कार्यों की देख – रेख करता था।
फिरोज ने कई नगरों की मरम्मत करवाई और कई नई नहरें खुदवाई। सबसे बड़ी नहर कोई 200 किलोमीटर लंबी थी।
फिरोज ने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे जब भी किसी स्थान पर हमला करें तो सुंदर और कुलीन परिवारों में उत्पन्न लड़कों को चुनकर सुल्तान के पास गुलामों के रूप में भेज दें।
इस तरह धीरे-धीरे 180000 गुलाम इकट्ठे कर लिए। इनमें से कुछ को उसने विभिन्न दस्तकारियों का प्रशिक्षण दिलवाकर साम्राज्यभर के शाही कारखानों में नियुक्त कर दिया। बाकी में से उसने सिपाहियों का एक बड़ा दल तैयार किया। दिल्ली सल्तनत – 2
जब 1388 ईस्वी में फिरोज की मृत्यु हुई तो सुल्तान और उसके अमीरों के बीच सत्ता के लिए फिर से संघर्ष हो गया।
फिरोज की बेटे सुल्तान मुहम्मद ने गद्दी पर जम जाने के बाद सबसे पहले जो कदम उठाए उनमें से एक यह था कि उसने इन गुलामों की शक्ति को छिन्न – भिन्न करने के लिए इनमें से बहुतों को मरवा दिया और बहुतों को कैद में डलवा दिया एवं बाकी को तितर – बितर कर दिया।
लेकिन न सुल्तान मुहम्मद और न उसका उत्तराधिकारी नासिरुद्दीन महमूद ( 1394 ईस्वी – 1412 ईस्वी ) महत्वाकांक्षी अमीरों और दुर्दमनीय राजाओं पर नियंत्रण स्थापित कर पाया।
दिल्ली के सुल्तान की सत्ता वस्तुत: दिल्ली के आस – पास के कुछ इलाकों तक सिमट कर रह गई। जैसे कि एक वाकपट व्यक्ति ने कहा है – ” शाहे – जहां हुकूमत दिल्ली से पालम तक चलती है “।
दिल्ली पर तैमूर के हमले ( 1398 ईस्वी ) से सुल्तान की कमजोरी और भी बढ़ी। वैसे तैमूर तुर्क था। लेकिन चंगेज खां से खून के रिश्ते का दावा कर सकता था। दिल्ली सल्तनत – 2
तैमूर ने भारत पर लूटपाट के इरादे से हमला किया था और इस हमले का प्रयोजन पिछले 200 वर्षों के दौरान दिल्ली के सुल्तानों द्वारा एकत्र की गई विशाल संपत्ति को हथियाना था।
तैमूर के इस आक्रमण के कारण भारत का बहुत – सा धन , सोना – चांदी , हीरे – जवाहरात आदि , विदेश को चला गया।
राज मिस्त्री , संगतराश , बढ़ई वगैरह बहुत – से कारीगरों को भी तैमूर अपने साथ ले गया। इनमें से कुछ लोगों ने उसकी राजधानी समरकंद में कई सुंदर इमारतें बनाने में हाथ बंटाया।
भारत पर तैमूर के आक्रमण का प्रत्यक्ष राजनितिक प्रभाव बहुत सीमित ही रहा।
दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिए किसी एक सुल्तान को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता।
1200 ई से 1400 ई तक के काल में भारतीय जीवन में , अर्थात उसके शासन – तंत्र , लोगों के जीवन और उनकी अवस्था तथा कलास्थापत्य की स्थिति में अनेक नई विशेषताओं का समावेश हुआ। दिल्ली सल्तनत – 2
For Quiz
प्रश्न 1 – दिल्ली सल्तनत का वह पहला शासक कौन था जिसने स्पष्ट शब्दों में यह विचार सामने रखा कि राज्य को शासितों के स्वैच्छिक समर्थन पर आधारित होना चाहिए ?
उत्तर – जलालुद्दीन खिलजी
प्रश्न 2 – 1320 ईस्वी में किसके नेतृत्व में अधिकारियों के एक गुट ने खुसरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तथा उसे मार डाला ?
उत्तर – गयासुद्दीन तुगलक
प्रश्न 3 – तुगलक राजवंश की स्थापना किसने की थी ?
उत्तर – गयासुद्दीन तुगलक
प्रश्न 4 – यद्यपि तुगलक 1412 ई तक शासन करते रहे , तथापि 1398 ईस्वी में किसके आक्रमण के साथ तुगलक राजवंश का अंत हो गया ?
उत्तर – तैमूर
प्रश्न 5 – अलाउद्दीन के रणथंभौर पर आक्रमण ( 1301 ईस्वी ) के समय वहाँ का शासक कौन था ?
उत्तर – हमीरदेव
प्रश्न 6 – अलाउद्दीन के रणथंभौर अभियान के समय उसके साथ कौन प्रसिद्ध शायर था जिसने रणथंभौर के किले और उसकी रक्षा व्यवस्था का सजीव वर्णन किया है ?
उत्तर – अमीर खुसरो
प्रश्न 7 – किसने बताता है कि मालवा राज्य इतना विस्तृत था की भूगोलशास्त्री भी इसकी सीमाओं का अंकन करने में असमर्थ थे ?
उत्तर – अमीर खुसरो
प्रश्न 8 – किसके शासन काल में मुसलमानों की सेना पहली बार दक्षिण में मुदरै तक पहुंच गई ?
उत्तर – अलाउद्दीन खलजी
प्रश्न 9 – अलाउद्दीन खलजी ने मलिक काफूर को किस पद पर नियुक्त किया ?
उत्तर – मलिक नायब
प्रश्न 10 – गददीनशीन होने पर मुबारक शाह ने किस राज्य को फिर से जीतकर वहां एक मुसलमान सूबेदार नियुक्त किया ?
उत्तर – देवगिरी
प्रश्न 11 – अलाउद्दीन ने तीन बाजार स्थापित किए –
उत्तर – दिल्ली में
प्रश्न 12 – अलाउद्दीन द्वारा स्थापित प्रत्येक बाजार एक उच्च अधिकारी के नियंत्रण में होता था, वह कहलाता था ?
उत्तर – शाहना
प्रश्न 13 – किस लेखक ने लिखा है कि ‘ अनाज मंडी में कीमतों का स्थायित्व इस युग का एक आश्चर्य था ‘ ? ( अलाउद्दीन के समय )
उत्तर – बरनी
प्रश्न 14 – सिपाहियों को नगद वेतन देने वाला दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान कौन था ?
उत्तर – अलाउद्दीन खलजी
प्रश्न 15 – किस इतिहासकार का ख्याल था कि अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण का उद्देश्य हिंदूओं को सजा देना था क्योंकि ज्यादातर व्यापारी हिंदू थे और मुनाफाखोरी से वे ही अपनी थैलियां भरते थे ?
उत्तर – बरनी
प्रश्न 16 – दिल्ली सल्तनत का पहला शासक कौन था जिसने इस बात पर आग्रह रखा कि दोआब से भूराजस्व का निर्धारण खेती के लिए इस्तेमाल की जा रही जमीन की पैमाइस के आधार पर किया जाए ?
उत्तर – अलाउद्दीन खलजी
प्रश्न 17 – किसके द्वारा किए गए भूराजस्व संबंधी सुधारो से ग्रामीण क्षेत्रों के साथ शासन के निकटतर संबंधों की शुरुआत हुई ?
उत्तर – अलाउद्दीन खलजी
प्रश्न 18 – मुहम्मद – बिन – तुगलक का संलाप किस जैन मुनि से चलता था ?
उत्तर – जिनाप्रभा सूरी
प्रश्न 19 – सल्तनत काल के किस सुल्तान को ” अभागा आदर्शवादी ” कहा गया है ?
उत्तर – मुहम्मद – बिन – तुगलक
प्रश्न 20 – किस जगह का नया नाम दौलताबाद रखा गया ?
उत्तर – देवगीर
प्रश्न 21 – जब सुल्तान मुहम्मद – बिन – तुगलक अपनी नयी राजधानी दौलताबाद ( देवगीर ) में था तब उसके सिक्के कहाँ ढाले जाते थे ?
उत्तर – दिल्ली में
प्रश्न 22 – मुहम्मद तुगलक ने किस धातु के सांकेतिक मुद्रा चलाने का फैसला किया ?
उत्तर – काँसे का
प्रश्न 23 – मुहम्मद – बिन – तुगलक के शासन के प्रारंभिक वर्षों के दौरान किसके नेतृत्व में मंगोल सहसा सिंध पर उमड़ आए ?
उत्तर – तर्मसरिन
प्रश्न 24 – सल्तनत काल में किस शासक के शासन काल में दोआब क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा था ?
उत्तर – मुहम्मद – बिन – तुगलक
प्रश्न 25 – अकाल के दौरान लगभग ढाई वर्षो तक मुहम्मद – बिन – तुगलक दिल्ली छोड़कर किस शिविर में चला गया था ?
उत्तर – स्वर्गद्वारी
प्रश्न 26 – दिल्ली सल्तनत के किस शासक ने दीवान – ए – अमीर – ए – कोही नाम से एक अलग विभाग की स्थापना की ?
उत्तर – मुहम्मद – बिन – तुगलक
प्रश्न 27 – मुहम्मद तुगलक की मृत्यु कहाँ हुई थी ?
उत्तर – सिंध
प्रश्न 28 – किस सुल्तान ने यह हुक्म जारी किया कि जब भी किसी अमीर की मृत्यु हो तो इक्ता सहित उसका स्थान उत्तराधिकार में उसके पुत्र को यदि उसके कोई पुत्र न हो तो उसके दामाद को और दामाद भी ना हो तो उसके गुलाम को दे दिया जाए ?
उत्तर – फिरोज तुगलक
प्रश्न 29 – किस सुल्तान ने सैनिक के पदों को वंशानुगत बना दिया तथा नगद वेतन के बदले सैनिकों को भूराजस्व उनके नाम कर दिए गए ?
उत्तर – फिरोज तुगलक
प्रश्न 30 – सल्तनत काल का वह सुल्तान कौन था जिसने खुद एक सिपाही को घोड़ों का हिसाब रखने वाले किरानी को घूस देने के लिए पैसा दिया ?
उत्तर – फिरोज तुगलक
प्रश्न 31 – किस शासक के समय ‘ जजिया ‘ एक अलग टैक्स बन गया ?
उत्तर – फिरोज तुगलक
प्रश्न 32 – दिल्ली सल्तनत का वह पहला सुल्तान कौन था जिसने हिंदू धर्मग्रंथो का संस्कृत से फारसी में अनुवाद करने के लिए कदम उठाए ?
उत्तर – फिरोज तुगलक